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भक्तिकालीन काव्य में होली
भक्तिकाल
और रीतिकाल में होली,
फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है।
चाहे वह राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेडछाड से भरी होली हो या नायक
नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीत की होली हो। आदिकालीन कवि विद्यापति
से लेकर भक्तिकालीन
सूरदास,
रहीम,
रसखान,
पद्माकर, जायसी,
मीरा,
कबीर
और रीतिकालीन
बिहारी,
केशव,
घनानन्द आदि सभी कवियों का यह विषय प्रिय विषय रहा है।
चाहे वो सगुन साकार भक्तिमय प्रेम हो या निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम या
फिर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच का प्रेम हो,
फाल्गुन माह का फाग भरा रस सबको छूकर गुजरा है। होली के
रंगों के साथ साथ प्रेम के रंग में रंग जाने की चाह ईश्वर को भी है तो भक्त
को भी है, प्रेमी को भी है तो प्रेमिका को भी। रंग
भरी राग भरी रागसूं भरी री। इस पद में मीरां ने होली के पर्व पर अपने प्रियतम कृष्ण को अनुराग भरे रंगों की पिचकारियों से रंग दिया है। मीरां अपनी सखि को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि, हे सखि मैं ने अपने प्रियतम कृष्ण के साथ रंग से भरी, प्रेम के रंगों से सराबोर होली खेली। होली पर इतना गुलाल उडा कि जिसके कारण बादलों का रंग भी लाल हो गया। रंगों से भरी पिचकारियों से रंग रंग की धारायें बह चलीं। मीरां कहती हैं कि अपने प्रिय से होली खेलने के लिये मैं ने मटकी में चोवा, चन्दन, अरगजा, केसर आदि भरकर रखे हुये हैं। मीरां कहती हैं कि मैं तो उन्हीं गिरधर नागर की दासी हूँ और उन्हीं के चरणों में मेरा सर्वस्व समर्पित है। इस पद में मीरां ने होली का बहुत सजीव वर्णन किया है। सूरदास जैसे नेत्रहीन कवि भी फाल्गुनी रंग और गंध की मादक धारों से बच न सके और उनके कृष्ण और राधा बहुत मधुर छेडख़ानी भरी होली खेलते हैं। हरि
संग खेलति हैं सब फाग। सूर के कान्हा की होली देख तो देवतागण तक अपना कौतुहल न रोक सके और आकाश से निरख रहे हैं कि आज कृष्ण के साथ ग्वाल बाल और सखियां फाग खेल रहे हैं। फाग के रंगों के बहाने ही गोपियां मानो अपने हृदय का अनुराग प्रकट कर रही हैं, मानो रंग रंग नहीं उनका अनुराग ही रंग बन गया है। सभी गोपियां सुन्दर साडी पहन कर, चित्ताकर्षक चोली पहन कर तथा अपनी आँखों में काजल लगा कर कृष्ण की पुकार सुन बन ठन कर अपने घरों से निकल पडीं और होली खेलने के लिये आ खडी हुई हैं। डफ, बांसुरी, रुंज और ढोल और मृदंग बजने लगे हैं तथा सभी लोग आनंदित होकर मधुर स्वरों में गा उठे हैं, मानो आनन्द की तरंगे उठ रही हों। एक ओर कृष्ण और ग्वाल बाल डटे हैं तो दूसरी ओर समस्त ब्रज नारियां: ये सभी संकोच छोड एक दूसरे को मीठी मनभावन गालियां दे रहे हैं, छेडछाड ज़ारी है, अचानक कुछ सखियां मिल कृष्ण को घेर लेती हैं और स्वर्णघट में भरा सुगंधित रंग उनके सर पर उंदेल देती हैं। कुछ सखियां उन पर कुंकुम केसर छिडक़ देती हैं। इस प्रकार ऊपर से नीचे तक रंग, अबीर गुलाल से मंडित कृष्ण ऐसे लग रहे हैं जैसे मानो शाम के समय आकाश में बादल छा गये हों, कान्ह का श्यामल शरीर लाल रंग में रचा ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे डूबते सूर्य की लालिमा और सांवले बादलों से घिरा आकाश कहीं लाल कहीं श्यामल दिखता है। सूरदास जी कहते हैं कि फाग के सुन्दर रंगों से दसों दिशायें परिपूर्ण हो गयी हैं। तभी तो आकाश से देवतागण अपना विचरण भूल श्याम सुन्दर का फाग विनोद देखने को ठिठक गये हैं और आनन्दित हो रहे हैं। रसखान जैसे रस की खान कहलाने वाले कवि ने तो फाग लीला के अर्न्तगत अनेकों सवैय्ये रच डाले हैं। सभी एक से एक रस और रंग से सिक्त _
फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है। एक गोपी अपनी सखि से फाल्गुन मास के जादू का वर्णन करते हुए कहती है, कि जबसे फाल्गुन मास लगा है तभी से ब्रजमण्डल में धूम मची हुई है। कोई भी स्त्री, नवेली वधू नहीं बची है जिसने प्रेम का विशेष प्रकार का रस न चखा हो। सुबह शाम आनन्द मगन होकर श्री कृष्ण रंग और गुलाल लेकर फाग खेलते रहते हैं। हे सखि इस माह में कौन सी सजनी है जिसने अपनी लज्जा और संकोच तथा मान नहीं त्यागा हो! खेलत
फाग लख्यौ पिय प्यारी को ता मुख की उपमा किहीं दीजै। एक गोपी अपनी सखि से फागलीला का वर्णन करती हुई कहती है कि ऐ सखि, मैं ने कृष्ण और उनकी प्रिया राधा को फाग खेलते हुये देखा। उस समय की जो शोभा थी उसे किसी की भी उपमा नहीं दी जा सकती। वह शोभा तो देखते बनती थी, कि उस पर कोई ऐसी वस्तु भी नहीं जिसे निछावर किया जा सके। ज्यों ज्यों राधा एक के बाद एक रंग भरी पिचकारी उनपर डालती थीं, त्यों त्यों वे उनके रूप रस में सराबोर होकर मस्त हो रहे थे और हंस हंस कर वहां से भागे बिना खडे ख़डे भीग रहे थे। बिहारी तो संयोग और वियोग निरुपण दोनों में सिध्दहस्त कवि हैं, संयोग हो या वियोग फागुन मास का विशेष महत्व है। प्रिय हैं तो होली मादक है और प्रिय नहीं हैं तो होली जैसा त्यौहार भी रंगहीन प्रतीत होता है। बसन्त ॠतु भी अच्छी नहीं लगती। बन
बाटनु पिक बटपरा,
तकि बिरहिनु मत मैन। बिहारी ने फागुन को साधन के रूप में लेकर संयोग निरुपण भी किया है। फागुन महीना आ जाने पर जब नायक नायिका के साथ होली खेलता है तो नायिका भी नायक के मुख पर गुलाल मल देती है या फिर पिचकारी से उसके शरीर को रंग में डुबो देती है।
जज्यौं उझकि झांपति बदनु,
झुकति विहंसि सतराई। इस प्रकार हमारे प्राचीन कवियों ने फागुन मास और होली के रंग भरे त्योहार को अपने शब्दों में बडी सजीवता से प्रस्तुत किया है। होली का महत्व जो तब था, आज भी वही है। फागुन मास में बौराये आमों की तुर्श गंध और फूलते पलाश के पेडों के साथ तन मन आज भी बौरा जाता है। आज भी होली रूप रस गंध का त्यौहार है। होली उत्साह, उमंग और प्रेम पगी छेडछाड लेकर आती है। होली सारे अलगाव और कटुता और अपनी रंग भरी धाराओं से धो जाती है। इस रंगमय त्यौहार की महत्ता अक्षुण्ण है। -
मनीषा
कुलश्रेष्ठ
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