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रामायण
की प्रासंगिकता
मेरी बेटी गीतान्जलि मुम्बई के संजय राष्ट्रीय आरक्षित वन में सांपों पर यूनेस्को के तत्त्वाधान में शोध कर रही थी। एक युवा दलित विजय अवसरे ने गीतांजलि सांपों के बिलों को खोजना, साँपों को पकडना और रखना फिर छोडना सिखाया। मैं भी इस लडक़ी की सांप पकडने की योग्यता देखने के लिये गया था। तब एक दिन विजय अवसरे ने मुझसे सीधा ही प्रश्न किया, '' क्या राम ने शूद्र शम्बूक का तपस्या करने के कारण वध किया था?'' मैं ने उसे गौर से देखा। एक तो मुझे उत्तर देने के लिये समय चाहिये था और दूसरे, मैं ने देखा कि उसके चेहरे पर हल्का सा आक्रामक भाव तो था, किन्तु सत्य जानने की शुध्द जिज्ञासा भी थी। और शायद गीतांजलि के कारण मुझे उस पर विश्वास सा भी था। मैं ने तुलसी की रामचरित मानस तो गंभीरता पूर्वक पढी थी, किन्तु वाल्मीकि रामायण मैं ने टुकडों में ही पढी थी, क्योंकि मैं ने नौंवी से ग्यारहवीं तक की कक्षा में संस्कृत पढी थी जिसमें रामायण के कुछ अंश पढाये गये थे। रामायण के इस अंश को नहीं पढा था, और इस विवाद पर मुझे गम्भीरतापूर्वक सोचने का अवसर भी नहीं मिला था। मैं ने उत्तर दिया, '' राम जैसा पुरुषोत्तम ऐसा कार्य कभी नहीं कर सकता था। तपस्या करना तो बहुत ही उत्तम तथा पुण्य कार्य है। और यदि कोई शूद्र तपस्या कर रहा था तो वह प्रशंसनीय कार्य था, वध्य नहीं। फिर राम जिन्होंने निषादराज से मित्रता की और निभाई, तथा शबरी के जूठे बेर खाये।( उस समय मुझे नहीं मालूम था कि वाल्मीकि की शबरी ने राम की, तुलसी की शबरी के बराबर ही पूजा की थी और कन्दमूल फल खाये थे, किन्तु जूठे बेर नहीं खिलाए थे।) वे कैसे निरपराध शूद्र का वध कर सकते हैं? और फिर राम ने तो केवल राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा ली थी। इसलिये यह प्रसंग रामायण में किसी पोंगा पंडित ने जोडा है।'' विजय अवसरे ने कोई प्रतिवाद नहीं किया। किन्तु मुझे यह सन्देह बना रहा कि शायद विजय मेरी बात से असहमत न सही, किन्तु पूरी तरह सहमत भी नहीं लगा; ऐसा सहमत कि वह अपने मित्रों से यह बात विश्वासपूर्वक कह सके। इसीलिये तब से मेरे मन में शम्बूक वध का यह द्वन्द्व बैठ गया था। इस संदर्भ में शबरी की कथा भी प्रासंगिक है। शबरी भील जैसी वन्य जाति की महिला थी, शबरी का अर्थ ही होता है वन्य। पम्पा सरोवर के निकट सतंग ॠषि के आश्रम में वह रहती थी। रामायण के अरण्य काण्ड के 74 वें सर्ग के छठवें श्लोक में स्प्ष्ट लिखा है _ ''
तौ दृष्टवा तु तदा सिध्दा
समुत्थाय कृतान्जलि। ' उन दो भाईयों को( अपने आश्रम पर) आया देख, वह सिध्द तपस्विनी हाथ जोड क़र खडी हो गई तथा उसे बुध्दिमान राम तथा लक्ष्मण के चरणों में प्रणाम किया।'' आठवें श्लोक में राम शबरी को तपोधने कह कर सम्बोधन करते हैं। और दसवें श्लोक में वाल्मीकि लिखते हैं : ''
रामेण तापसी पृष्टा सा सिध्दा
सिध्दसम्मता। श्री रामचन्द्र जी के इस प्रकार पूछने पर वह सिध्द तपस्विनी वृध्दा शबरी, जो सिध्दों द्वारा सम्मानित थी, उनके सामने खडी होकर बोली।'' अर्थात केवल न राम ने उसे तपस्विनी मान कर सम्मान दिया वरन् अन्य सिध्द तपस्वी भी तपस्विनी शबरी को सम्मान देते थे। अर्थात उस काल में तपस्या यदि वन्य जातियों के लिये वर्जित नहीं थी, तब अन्य जातियों के लिये वर्जित होने की कोई सम्भावना ही नहीं बनती। तब उसी रामायण में यह कथन कि राम ने शूद्र शम्बूक का तपस्या करने के कारण वध किया, न तो तर्क संगत लगता है और न विवेक संगत। उत्तरकाण्ड की प्रामाणिकता पर इस शंबूक प्रसंग के कारण ही संशय हो उठता है। किंतु इस निष्कर्ष पर कोई संशय नहीं रह जाता कि वाल्मीकि के राम भीलनी शबरी को तपस्विनी का सम्मान देने वाले राम, शूद्र तपस्वी शम्बूक का सम्मान तो कर सकते थे, किन्तु वध तो क्या निरादर भी नहीं कर सकते थे। अवश्य ही यह प्रसंग किसी अन्य के द्वारा जोडा गया है क्योंकि उन दिनों किसी भी ग्रंथ की प्रतियां किसी भी व्यक्ति के हाथों द्वारा लिख कर ही बनाई जातीं थीं जिसमें त्रुटियों की स्वाभाविकता के साथ साथ अस्वाभाविक प्रक्षेप जोडने की संभावना बराबर बनी रहती थी। ( यह एक शोध का विषय तो बनता ही है कि रामायण की हस्तलिखित प्रतियों की ऐतिहासिक कालक्रम में खोज कर इस संभावना की पडताल की जाये) अब दूसरा प्रश्न यह उठता है कि कोई भी पंडित यह प्रक्षेप क्यों जोडेग़ा। पहली बात तो यह निश्चित है कि इस प्रसंग को जोडने का अर्थ शूद्रों को ऊपर न उठने देना है, उन्हें दलितावस्था में ही रखना है। अर्थात शूद्रों के ऊपर उठने की प्रक्रिया इसके पूर्व रही होगी, वरना उसमें अवरोध डालने का प्रश्न ही नहीं उठता। वैदिक युग में ऐसे ऊपर उठने के अनेक प्रमाण हैं। सत्यकाम जाबालि न केवल शूद्र माँ का पुत्र था, वरन् उसके पिता की भी कोई निश्चित पहचान न थी। वही सत्यकाम उपनिषदों का अत्यन्त सम्मानित दृष्टा बना। इसी तरह एक ब्राह्मण की रखैल का पुत्र ऐतरेय भी न केवल ॠषि बना, वरन् ॠग्वेद का एक उपनिषद उनके नाम से ऐतरेय उपनिषद जाना जाता है। नारद् मुनि ने पहले ही घोषित किया है कि राम वेदों के ज्ञाता हैं, अर्थात वे जानते हैं कि शूद्र भी वेदाध्ययन तथा तप आदि कर सकते हैं। वैसे भी भरत ने ( युध्द काण्ड 127 वें सर्ग के 47 वें श्लोक में) सुग्रीव जो वानर हैं, को अपना पांचवां भाई माना है। त्रेता युग में भी जातियां पूरी तरह रूढ नहीं हो पाईं थीं। विश्वामित्र का राजर्षि से ब्रह्मर्षि बनना इस खुलेपन का एक दृष्टांत है। वशिष्ठ द्वारा विश्वामित्र के ब्रह्मर्षि बनने का प्रारंभिक विरोध जाति पर आधारित न होकर, उनके क्रोधी स्वभाव के कारण किया गया विरोध था। स्वयं शबरी का उदाहरण भी यही सिध्द करता है कि तपस्या अथवा ब्रह्मज्ञान के लिये जाति का कोई बंधन नहीं। अनेक धर्म ग्रन्थों में स्पष्ट लिखा है कि जन्मना जायतेशूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते: अर्थात जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं। जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से यज्ञोपवीत कर, गुरुकुल जाकर शिक्षा लेता है तब वह द्विज कहलाता है।अर्थात ज्ञान प्राप्त करने पर दूसरा जन्म लेने वाला। और शूद्र वही बनता था जो किन्ही भी कारणों से विद्यार्जन नहीं करता था। कुछ अहंकारी अज्ञानी सवर्ण अपनी श्रेष्ठता सिध्द करने के लिये इस सूत्र को आधा ही उध्दृत करते हैं और यह सिध्द करना चाहते हैं कि शूद्र तो जन्म से शूद्र पैदा होता है। ऐसे अज्ञानियों से बच कर ही रहना चाहिये। - आगे पढें |
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