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मैं कैसे निकसूं मोहन खेलै फाग!
होली के रंग रसखान के कृष्ण के संग

रसखान के कृष्ण का फाग क्या कोई साधारण फाग होता था? वह तो गुलाल और अबीर की लालिमा को द्विगुणित करते हुए जीवन और रसानन्द और उल्लास का अद्भुत सामन्जस्य हैफागुन की एक लहर उठी है, जिसमें यह नहीं पता चलता कौन ज्यादा लाल हुआ? श्रीकृष्ण राधा की गुलाल से लाल हो गये या श्रीकृष्ण के प्रेम में पग राधा के कपोल रक्ताभ हो उठे
होरी भई के हरि भये लाल, कै लाल के लागि पगी ब्रजबाला
फागुन लगते ही पूरे ब्रजमण्डल में धूम मचा रखी है कृष्ण ने
कोई ऐसी युवति नहीं बची जो कृष्ण के आकर्षण से बची रह गई होसब लोक लाज त्याग कृष्ण के साथ फाग खेलने में सुबह से शाम तक तल्लीन हैं
फागुन लाग्यौ सखि जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है

नारि नवेली बचै नाहिं एक बिसेख मरै सब प्रेम अच्यौ है
।।
सांझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलालन खेल मच्यौ है

को सजनी निलजी न भई अरु कौन भटु जिहिं मान बच्यौ है
।।

गोपियों और राधा के साथ कृष्ण होली खेल रहे हैंराधा के साथ फाग खेलने की प्रक्रिया में परस्पर अनुराग बढ रहा हैदोनों आनन्द की अठखेलियां कर रहे हैंकमल समान सुन्दर मुख वाली राधा कृष्ण के मुख पर कुंकुम लगाने की घात में हैगुलाल फेंकने का अवसर ताक रही हैचारों और गुलाल ही गुलाल उड रही हैउसमें ब्रजबालाओं की देहयष्टि इस तरह चमक रही है मानो सावन की सांझ में लोहित गगन में चारों ओर बिजली चमकती हो
गुलाल की चारों ओर उड रही धूल के बीच रसखान ने गोपियों के सौन्दर्य को रूपायित करने के लिये सावन के महीने में सूर्यास्त के बाद छायी लालिमा और चारों दिशा में दामिनी की चमक के रूपक का प्रयोग किया है
क्योंकि गोपियां उस लाल गुलाल के उडने में स्थिर नहीं चपल हैं तो उनका गोरा शरीर चमकती तडक़ती बिजली के समान दिखाई दे रहा है वह भी सावन माह के सूर्यास्त से रक्ताभ आकाश में
मिली खेलत फाग बढयो अनुराग सुराग सनी सुख की रमकै

कर कुंकुम लै करि कंजमुखि प्रिय के दृग लावन को धमकैं
।।
रसखानि गुलाल की धुंधर में ब्रजबालन की दुति यौं दमकै

मनौ सावन सांझ ललाई के मांझ चहुं दिस तें चपला चमकै
।।

रसखान राधा कृष्ण के होली खेलने पर बलिहारी हैंइतना सुन्दर दृश्य है इस होली का कि क्या कहैंफाग खेलती हुई प्रिया को देखने के सुख को किसकी उपमा दें? देखते ही बनता है वह दृश्य कि उस पर सब वार देने का मन चाहता हैजैसे जैसे छबीली राधा पिचकारी भर भर हाथ में ले यह कहते हुए कृष्ण को सराबोर करती जाती हैं कि यह लो एकऔर अब यह दूसरी वैसे वैसे छबीले कृष्ण राधा की इस रसमय छवि को छक कर नैनों से पी मदमस्त होते हुए वहां से हटे बिना खडे ख़डे हंसते हुए भीग रहे हैं
खेलतु फाग लख्यौ पिय प्यारी कों ता सुख की उपमा किहीं दीजै

देखत ही बनि आवै भलै रसखान कहा है जो वारि न कीजै
।।
ज्यौं ज्यौं छबीली कहै पिचकारी लै एक लई यह दूसरी लीजे

त्यौं त्यौं छबीलो छकै छाक सौं हेरै हंसे न टरै खरौ भीजे

गोपियां एक दूसरे से कृष्ण की बुराई करती हैं कि कृष्ण बडे ही रसिक हैं, सूने मार्ग में उन्हें एक अनजानी नई नवेली स्त्री मिलीफाग के बहाने उसे गुलाल लगाने के चक्कर में मनमानी कर रहे हैंउस सुकुमारी की साडी फ़ट गई है और रंग में भीग चोली खिसक गई हैउसे गालों पर लाल गुलाल लगा कर आलिंगित कर रिझा कर अपने आकर्षण के अधीन कर विदा कर दिया है
आवत लाल गुपाल लिये सूने मग मिली इक नार नवीनी

त्यौं रसखानि लगाई हिय भट् मौज कियौ मनमांहि अधीनी
।।
सारी फटी सुकुमारी हटी अंगिया दरकी सरकी रंगभीनी

गाल गुलाल लगाइ कै अंक रिझाई बिदा कर दीनी
।।

गोपियां आपस में चर्चा करती हैं फाग के फगुनाये मौसम में _ गोकुल का एक सांवला ग्वाल गोरी सुन्दर ग्वालिनों से होली का हुडदंग कर धूम मचा गयाफाग और रसिया की एक बांकी तान गा कर मन हर्षा गयाअपने सहज स्वभाव से सारे गांव का मन ललचा गया हैपिचकारी चला कर युवतियों को नेह से भिगो गया और मेरे अंग तो भीगने से बच गये पर अपने नैन नचा कर मेरा मन भिगो गयामेरी भोली सास और कुटिल ननद तक को नचा कर बैर का बदला लेकर मुझे सकुचा गयाऐसा है वह सांवला ग्वाल
गोकुल को ग्वाल काल्हि चौमुंह की ग्वालिन सौं
चांचर रचाई एक धूमहिं मचाईगो

हियो हुलसाय रसखानि तान गाई बांकी
सहज सुभाई सब गांव ललचाइगो

पिचका चलाइ और जुबति भिजाइ नेह
लोचन नचाइ मेरे अम्ग ही बचाइगो

सासहि नचाइ भोरी नन्दहि नचाइ खोरी
बैरिन सचाइ गोरी मोहि सकुचाइगो
।।

रसखान कहते हैं _ चन्द्रमुखी सी ब्रजवनिता कृष्ण से कहती है, निशंक होकर आज इस फाग को खेलो तुम्हारे साथ फाग खेल कर हमारे भाग जाग गये हैंगुलाल लेकर मुझे रंग लो, हाथ में पिचकारी लेकर मेरा मन रंग डालो, वह सब करो जिसमें तुम्हारा सुख निहित हो लेकिन तुम्हारे पैर पडती हूं यह घूंघट तो मत हटाओ, तुम्हें कसम है ये अबीर तो आंख बचा कर डालो! अन्यथा तुम्हारी सुन्दर छवि देखने से मैं वंचित रह जाऊंगी
खेलिये फाग निसंक व्है आज मयंकमुखी कहै भाग हमारौ

तेहु गुलाल छुओ कर में पिचकारिन मैं रंग हिय मंह डारौ

भावे सुमोहि करो रसखानजू पांव परौ जनि घूंघट टारौ

वीर की सौंह हो देखि हौ कैसे अबीर तो आंख बचाय के डारो
।।

होली के बौराये हुरियाये माहौल में एक बिरहन राधन् ऐसी भी है जिसे लोक लाज ने रोका हैबाकि सब गोपियां कृष्ण के साथ धूम मचाये हैं रसखान के मोहक शब्दों में इस ब्रजबाला की पीडा देखते ही बनती है मर्म को छू जाती हैवह कहती है _ मैं कैसे निकलूं मोहन तुम्हारे साथ फाग खेलने? मेरी सब सखियां चली गईं और मैं तुम्हारे प्रेम में पगी रह गयीहुआ यूं कि मैं ने एक रात सपना देखा था कि नन्द नन्दन मिलने आये हैं, मैं ने सकुचा कर घूंघट कर लिया है और उन्होंने मुझे अपनी भुजाओं में भर लिया हैअपने प्रेम का रस मुझे पिलाया और मेरे प्रेम के रस से छक गये हैं लेकिन तभी मेरी बैरिन पलकें खुल गयींमेरा सपना अधूरा छूट गया, फिर मैं ने बहुत कोशिश की पर आंख लगी ही नहींफिर अगले दिन के अगले पहर में पलकें मूंद कर फिर मैं ने उस सपने से परिचय लेने का प्रयास किया तो उसमें ही आंखे मूंदे मूंदे मेरा पूरा दिन निकल गया और शाम हो गई और होलिका का डंडा रोप दिया गयातब सास ननद घर के कामकाज सौंप नाराज होकर चली गईदेवर भी नाराज होकर अनबोला ठान बैठा
मन ही मन पछताती छत पर चढी ख़डी रही, पर घर से निकलने का रास्ता नहीं सूझा
तुम्हारी मुरली की टेर सुन कर रात की अधूरी इच्छा मन को व्याकुल करती है, अब कैसे मन को धीरज दिलाऊं, मन की अकुलाहट है कि उठती ही जा रही है वेदना से भरा ये मन फटता क्यों नहीं कि अब एक तिल भर दुख भी उसमें समा नहीं सकतामन तो करता है कि लोक लाज और कुल की मर्यादा छोड छाड ब्रज के ईश्वर और प्रेम तथा रति के नायक रसखान के श्रीकृष्ण से जा मिलूं
मैं कैसे निकसौं मोहन खेलै फाग
मेरे संग की सब गईं, मोहि प्रकटयौ अनुराग
।।
एक रैनि सुपनो भयो, नन्द नन्दन मिल्यौ आहि

मैं सकुचन घूंघट करयौ, उन भुज मेरी लिपटाइ
।।
अपनौ रस मो कों दयो, मेरो लीनी घूंटि

बैरिन पलकें खुल गयी, मेरी गई आस सब टूटि
।।
फिरी बहुतेरी करी, नेकु न लागि आंखि

पलक - मूंदी परिचौ लिया, मैं जाम एक लौं राखि
।।
मेरे ता दिन व्है गयो, होरी डांडो रोपि

सास ननद देखन गयी, मौहि घर बासौ सौंपि
।।
सास उसासन भारुई, ननद खरी अनखाय

देबर डग धरिबौ गनै, बोलत नाहु रिसाय
।।
तिखने चढि ठाडी रहूं, लैन करुं कनहेर

राति द्यौंस हौसे रहे, का मुरली की टेर
।।
क्यों करि मन धीरज धरुं, उठति अतिहि अकुलाय

कठिन हियो फाटै नहीं, तिल भर दुख न समाये
।।
ऐसी मन में आवई छांडि लाज कुल कानी

जाय मिलो ब्रज ईस सौं, रति नायक रसखानि
।।

एक तो रसखान के कृष्ण अनोखे उस पर रसखान की कविता में खेला गया राधा कृष्ण फाग अनोखा! प्रेम की व्याख्या को लेकर उनका काव्य अनोखाउनके उकेरे फागुन के रंग जीवन्त हो जाते हैं और मानस पटल पर राधा कृष्ण की प्रेम में पगी फाग लीला साकार हो उठती है

मनीषा कुलश्रेष्ठ
मार्च 14, 2003

 


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