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यात्रा वृत्तान्त
दक्षिण के अधिकांश मंदिरों की तरह यहाँमात्र हिन्दुओं के प्रवेश तथा हिन्दु वेशभूषा की पाबंदी थी। पुरुषों के लिये मात्र सफेद धोती तथा स्त्रियों के लिये साडी क़ा ही प्रावधान था। आनन फानन में पुरुषों ने तो धोती किराये पर लेकर काम चला लिया। जिन महिलाओं ने साडी पहनी थी उन्हें कोई परेशानी न थी। हम कुछ सलवार-कुर्ते और जीन्स में थे। हमने भी बैग्स से साडी निकाल कर किसी तरह उपर से लपेट काम चला लिया। मन्दिर में कैमरा निषिध्द था। मंदिर का र्स्वणमण्डित गर्भगृह दर्शनीय अवश्य था, पर वहां के पुजारी मंदिर के समक्ष एक सैकण्ड से ज्यादा ठहरने ही नहीं देते थे, बडी शुष्कता से धक्का मार वे आगे बढ ज़ाने को कहते। भक्त और भगवान के बीच पुजारियों की भारत के तमाम प्रसिध्द मन्दिरों में यही व्यवसायिक सी भूमिका है, कहीं आप टिकट लीजिये, कहीं चढावे की रकम अधिक होने पर आपको पुजारी मंदिर के गर्भगृह के अन्दर तक ले जाकर भगवान के विग्रह के दर्शन करवा देंगे अन्यथा भीड में आपको घने धुंए के अतिरिक्त कुछ नहीं देख कर ही संतोष करना होगा। मंदिर में जाकर रिश्वत देकर आपका मन एक बारगी जरूर खट्टा होगा कि भगवान के दर्शनार्थ भी रिश्वत? पर यही आज का चलन है। गुरवायूर से निकल कर हम केरल के मनोरम रास्तों पर फिर आ गए। सच ही कहा है किसी ने केरल के लिये कि गॉड्स ओन कन्ट्री । अब बस में अन्ताक्षरी का दौर चल पडा था। पर मेरा मन था कि मनोरम दृश्यों में उलझ कर रह गया था। समुद्र से आकर इकठ्ठा हुए बैकवाटर्स में सुन्दर नौकाएं और जाल डाले मछुआरे। कम भीडभाड सुन्दर छोटे-बडे घर नारियल काजू और कटहल तथा केलों के वृक्षों तथा अनेकानेक फूलों-वनस्पतियों से सुसज्जित। सादी वेशभूषा सफेद कमीज और धोती में पुरुष और सुन्दर साडियों में सजी, मोगरे के गजरों को बालों में सजाए सांवली सलज्ज स्त्रियां। अब रबर के पेडों के फार्म दिखना शुरु हो गए थे। अब हमारा गंन्तव्य कोचीन था। पर रास्ते में किसी के सुझाने पर हम करीब बीस किलोमीटर अन्दर की ओर जाकर थोडा ऊंचा चढ क़र पहाडों के थेक्कडी नामक स्थान पर पहुंचे। यह पेरियार जंगलों के आसपास का इलाका था। वहाँ थोडा पैदल ऊंचा चढ क़र पहाडों के बीच बहती नदी और नीचे गिरते एक सुन्दर झरने पर जाकर रुके, दृश्य नयनाभिराम था। झरना बहुत वेग से नीचे गिर रहा था और बूंदों का उछाल अद्भुत दृश्य उत्पन्न कर रहा था। शाम हो चली थी, समय कम था फिर भी लगभग वहाँबिताया एक घण्टा बहुत रोचक था। लाईट कम थी पर हमने उस मनोरम झरने को कैमरे में कैद कर ही लिया। रात आठ बजे हम कोचीन पहुंचे। हम जिस निर्धारित गेस्टहाउस में रुके वह बडा सुन्दर था, शयनकक्ष की खिडक़ियों के बाहर समुद्र लहरा रहा था। सुबह उठ कर हम कोचीन के दर्शनीय स्थलों को देखने निकल पडे। क़ोचीन एक बडा रोचक और जीवंत शहर है। इसे प्राकृतिक बन्दरगाह कहा जाता है तथा अरब सागर की रानी के नाम से विख्यात है। कोचीन का सामुद्रिक इतिहास बडा प्राचीन है, अरब, चीनी, डच, पुर्तगाली और अंग्रेज अलग अलग समुद्री रास्तों से कोचीन पहुंचे। और यह दुनिया के गिने-चुने स्थानों में से है जहां पर ज्यूइश सिनागॉग, पुर्तगाली चर्च, डच वास्तुकला, मस्जिद, मंदिर तथा चाइनीज फ़िशिंग नेट एक ही शहर में देखने को मिलते हैं। कोचीन से हम दूसरे दिन सुबह फिर निकले, गाते-गुनगुनाते, रास्तों में रुक दक्षिण भारतीय खाने और सीधे-सरल लोगों की प्रेममय मेजबानी का आनन्द लेते हुए। अब हमारा गंतव्य था केरल की राजधानी, एक प्राचीन और ऐतिहासिक शहर तिरुअनन्तपुरम या त्रिवेन्द्रम। दोपहर हम त्रिवेन्द्रम पहुंचगए। हमारे ग्रुप में सभी लोग पहले प्रसिध्द कोवलम बीच पर जाना चाह रहे थे। तो बस सबने अपने बीच के अनुकूल वस्त्र लिये और चल पडे। क़ोवलम त्रिवेन्द्रम से 13 किमी दक्षिण में स्थित है। क़ोवलम बडा साफ सुथरा और शान्त बीच है। किनारे किनारे लगे नारियल के पेडों की छटाएं अरब सागर के सुनहरी बालू वाले इस लम्बे तट को घेरे हैं, मध्दम लहरें, तथा कहीं कहीं झांकती चट्टानें बडा सुरम्य दृश्य प्रस्तुत करती हैं। ऌस तट पर अपने साथी के हाथों में हाथ डाल साथ लम्बी सैर करते कई जोडे अपनी शामें रूमानी करते हैं। हम भी सुखद स्मृतियाँ लेकर वहाँसे न चाह कर भी लौटे। शाम ढल गई थी और समुद्र निशा छाने के साथ समुद्र अशांत हो चला था। और इस मानसून वाले मौसम में आने का जहां आनंद आ रहा था, वहीं परेशानी यह थी कि फोटोग्राफी के लिये पर्याप्त प्रकाश उपलब्ध नहीं हो रहा था। अगली सुबह त्रिवेन्द्रम के अन्य दर्शनीय स्थलों के लिये सुरक्षित थी। सुबह नहा धो कर हम पद्मनाभ मंदिर पहुंचे। यह प्राचीन मंदिर श्री विष्णु जी का मंदिर है। इसका पुर्ननिर्माण राजा मार्तण्ड वर्मा ने करवाया था वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। यह मंदिर शहर के एक ऊंचे स्थान पर बना है और शहर का प्रतीक चिन्ह है। यह मन्दिर दक्षिणी वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। हम हाथों में गुलाबी कमल और छोटे केलों की डलिया लेकर दर्शनार्थ अन्दर पहुंचे। मंदिर का गर्भगृह देखकर मैं तो सम्मोहित ही हो गयी थी। शेषशायी(शेषनाग पर गहरी नींद में सोए) विष्णु का इतना विशाल जीवंत व सुन्दर विग्रह कभी नहीं देखा था। पूरी मूर्ति के दर्शनार्थ गर्भगृह को तीन खम्भों से तीन हिस्सों में बांटा था, सच ही उस सुन्दर विग्रह को एक साथ देखने की ताब किसी की आंखों में नहीं हो सकती। पहले भाग में शेषशैय्या पर आंखे मूंदे लेटे विष्णु का सुन्दर मुख अलौकिक शान्ति के भाव को लिये था, और उनका निद्रामग्न मुद्रा में हाथ पास की चौकी पर रखा था, हाथ की उंगलियां इतनी सजीव कि बस न जाने कब फडक़ उठें, उनमें पहनी अंगूठियां तक स्पष्ट थीं। दूसरे भाग में वक्ष और नाभि। नाभि में से उपर को एक नाल से कमल निकला हुआ था जिस पर ब्रह्मा विराजमान थे, इसीलिये इन्हें पद्मनाभ स्वामी कहा जाता है। अंतिम भाग में उनके सुन्दरता से गढे हुए पैर थे, निद्रामग्न विष्णु जी का एक पैर सीधा तथा एक तनिक मुडा हुआ इतना सहज लगता है कि आप शेषशायी विष्णु के प्रति श्रध्दा से तो भर ही जाते हो और साथ ही स्वत: ही उस अजाने, अदेखे मूर्तिकार के प्रति भी एक श्रध्दा जागती है जिसने इस काली चमकीली चट्टान को सीमित साधनों में काट-छांट, तराश इतना सुन्दर विग्रह बनाया होगा। मन्दिर की पूरी परिक्रमा कर जब हम लौटे तब ही नहीं आज भी वह मूर्ति मेरे मन में सजीव है। दु:ख इस बात का है कि कैमरा मन्दिर में वर्जित था। मंदिर से निकल हम नेपियर म्यूजियम पहुंचे। यह घनाकार भवन, आकर्षक लाल और सफेद रंगो से सजा है। अब हम बच्चों की रुचि का खयाल कर ज़ू ग़ए जो कि प्राकृतिक तथा जंगलों से घिरे इलाके में स्थित है तथा जानवरों को उनके प्राकृतिक निवास की भांति ही रखा गया है। वहाँसे लौट कर हम महिलाओं ने साडियों की खरीदारी में रुचि ली और केरल की पारम्परिक अवसरों पर पहनी जाने वाली सफेद और सुनहरे बॉर्डर तथा सुन्दर पारम्परिक सुनहरी बूटियों वाली साडी ख़रीदी। त्रिवेन्द्रम से विदा ले कन्याकुमारी की ओर चलते-चलते हम त्रावनकोर राज्य की पुरानी राजधानी पद्मनाभपुरम पैलेस पहुंचे। यह लकडी तथा ग्रेनाइट पत्थर का महल बडा विचित्र और सुन्दर है। यह पैगोडाशेप्ड पैलेस 17 वीं तथा 18 वीं शती की लकडी क़ी दीवारों, खंभों पर उकेरी नक्काशियों तथा अनोखी वास्तुकला के लिये प्रसिध्द है। यहाँसे निकल कर हम कन्याकुमारी के लिये चल पडे। क़न्याकुमारी में हम आरामदेह व शान्त तथा पवित्र वातावरण वाले विवेकानन्द आश्रम में ठहरे। कन्याकुमारी मेरा पहले भी देखा हुआ स्थान था। पर इस बार काफी बदलाव नजर आए। विवेकानन्द स्मारक तो अपनी उसी अलौकिक शान्त भव्यता से रचा-बसा वैसा ही था। पर पास की एक चट्टान पर तमिल के प्राचीन कवि तिरुवलयूर की विशाल प्रतिमा नई थी। इसके अलावा भी समुद्र तट के आस पास किये अन्धाधुन्ध कन्स्ट्रक्शन ने सूर्यास्त का सौंदर्य छीन लिया है। तट बहुत अस्वच्छ हो गया है। कन्याकुमारी से अगली सुबह पांच बजे ही निकल कर हम 6 घण्टे लम्बी यात्रा कर हम मदुरई पहुंचे। मीनाक्षी मन्दिर की भव्यता अवर्णनीय है। 14 वीं शताब्दी में निर्मित शिव के इस प्राचीन मन्दिर में पुराणों में वर्णित समस्त देवी-देवताओं की यहाँमूर्तियां हैं। इस मन्दिर में चारों ओर 11 अद्भुत गुम्बद हैं। मुख्यद्वार पूर्व में है। यहाँदो मन्दिर हैं एक शिव जी का है दूसरा उनकी प्रिया मीनाक्षी देवी अर्थात पार्वती का है। सुन्दरेश्वर मन्दिर के सामने जो विशाल कक्ष है उसके खम्भों पर भगवान शिव के विभिन्न मुद्राओं में चित्र उकेरे हुए हैं। उनमें उनके विवाह का अद्भुत मूर्ति चित्रण मुख्य है। यहाँएक हजारों खम्भों का विशाल हॉल है जो कि 16 वीं शती में बना था। इन खम्भों पर एक ड्रेगन, शेर की मिली जुली आकृति वाले किसी पौराणिक जीव की आकृति बनी है। इन खंभों में प्रत्येक में से अलग ध्वनि प्रतिध्वनित होती है। मन्दिर से पूजा कर हम उसी दिन दिन का भोजन कर कोडाईकनाल के लिये निकल गए। मानसून अपने पूरे जोरों पर था। हम जैसे ही मदुरई की उमस भरी गर्मी वाले मैदानों को पार कर पालनी हिल्स के पहाडों पर चढने लगे बरसात शुरु हो गई और ठण्ड इतनी कि सबको बस में ही अपने गरम कपडे निकालने पडे। रास्ता तो मनोरम था ही उस पर घनेरे हरियाले जंगल, कहीं भी फूट पडे छोटे बडे झरने और उनका प्राकृतिक संगीत। एक जगह हम शाम की चाय के लिये रुके, पास ही एक झरना अपनी धुन गुनगुना रहा था। प्रकृति का इतना निर्बाध सौंदर्य कहीं नहीं देखा था मैं ने। पहुंचते ही रात ढल गई थी, और घने कोहरे और ठण्ड ने मुझे तो बीमार ही कर डाला। अस्थमा के असमय अटैक से मैं निराश हो गई थी कि कैसे कल घूम सकूंगी? बारिश और कोहरे की वजह से यह टूरिस्ट सीजन कतई नहीं था कोडाईकनाल के लिये। फिर भी उस रात हम सब इकट्ठे हुए और फुरसत से महफिल सजी, फिर तो गानों, चुटकुलों, मिमिक्री से सबने खूब मजा लिया। अगली सुबह इतनी निराशाजनक नहीं थी। धूप निकल आई थी, हालांकि कोहरे का धुंधलका कम न था, फिर भी हमने कॉकर्स वॉक की लम्बी सैर का सुरम्य आनंद उठाया। पहाडों, वादियों पर तैरते और हमें छुकर गुजरते बादलों ने उस दिन को अविस्मरणीय बना दिया। सितारे जैसी आकृति वाली कोडाई लेक में नौका विहार का आनंद लिया। अगले दिन रुक कर भी हमने अन्य दर्शनीय स्थल जैसे ब्रेयान्ट बोटनीकल गार्डन और पिलर रॉक्स, गोल्फ कोर्स आदि देखे। अब हमें कोयम्बटूर लौटना था। कोयम्बटूर नीलगिरी पहाडियों में स्थित है यह तमिलनाडु का तीसरा मुख्य शहर है। यह शान्त मगर आकर्षक शहर दक्षिण का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र है। हम यहाँ एक सप्ताह रुके। फिर ढेर सारी स्मृतियाँ और छायाचित्र ले कर लौट आए।
– मनीषा कुलश्रेष्ठ |
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