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यात्रा
वृत्तान्त
सिक्किम के
पाँच
खज़ाने
अस्त्युत्तरस्याम् दिशि देवतात्मा हिमालयोनाम नगाधिराजः
पूर्वापरौ तोयनिधीवगायः सितः पृथिव्या इव मानदण्डः।।
- कालिदास, कुमारसम्भव
भारत के
उत्तर में देवता के समान पूजनीय हिमालय नाम का विशाल पर्वत है।
वह पूर्व और पश्चिम के समुद्रों तक फैला हुआ ऐसा लगता है
मानो वह पृथ्वी को नापने तौलने का मानदण्ड है।
'सोसायटी
ऑफ नेचर फोटोग्राफर्स'
की शीतकालीन (वर्ष
1987)
कार्यशाला,
सिक्किम ललित कला
अकादमी के तत्वावधान में होने जा रही थी और सदस्य के नाते मेरे पास भी
सूचना आई। अब सोचना पडा,
क्योंकि यदि कश्मीर
होता,
कुलू मनाली,
कोडाली-कनाल जैसे
जाने माने सुंदर स्थल या काजीरंगा,
कान्हा आदि अभयारण्य
होते तो बिना सोचे हाँ कह देता किंतु सिक्किम। सिक्किम की क्या खासियत है,
क्या आकर्षक है?
हिमालय पर्वत
श्रृंखला इस पृथ्वी पर विशालतम प्राकृतिक संरचना है और विश्व का प्रथम
प्राकृतिक आश्चर्य है। बहुल अनुपम और अद्वितीय वनस्पतियों और औषधियों का
भंडार है,
हजारों जातियों के सुंदर
पक्षियों का बसेरा है तथा अलौकिक सौंदर्य का खजाना है। भारतवर्ष में लगभग
45
हजार जाति की वनस्पतियां
हैं, 15
हजार पुष्प से सजने वाली
हैं और लगभग 25
हजार औषधि का काम करती हैं।
विश्व में लगभग 35
हजार अनोखी छटा वाले ऑर्किड
(एक प्रकार के 'जीवन्ती'
नाम के फूल) पुष्पी
पौधे हैं। इनमें से लगभग 1300
जातियां भारतवर्ष
में हैं जिनमें से लगभग 600
सिक्किम में हैं।
भारतवर्ष मे लगभग 12500
जातियों के पक्षी हैं,
जबकि सिक्किम में
लगभग 550।
सारे भारतवर्ष में लगभग 15
हजार पुष्पीय पौधें
हैं जबकि सिक्किम में लगभग
4000। इससे यह तो
साबित हो जाता है कि सिक्किम की उपलब्धि विशेष है तथा उसका कारण उसका
हिमालय की गोद में खेलना है।
सिक्किम की
प्राकृतिक संरचना एक सुदृढ क़िले के समान है। इस की पश्चिम (नेपाल) सीमा
पर सिंहलीला,
उत्तरी (तिब्बत) पर
चोमियोमों,
पूर्व (तिब्बत तथा भूटान)
सीमा पर दोख्या नाम की पर्वत श्रंखलाएं हैं,
और दक्षिण दिशा में
भारत की ओर तीस्ता नदी की घाटी उसका मुख्य द्वार है। इसकी चौडाई पूर्व_पश्चिम
मे लगभग 65
किलोमीटर है और लंबाई
उत्तर-दक्षिण दिशा मे 100
किलोमीटर है। तीन
तरफ ऊंचे पहाडों से घिरा होने के कारण सिक्किम के दक्षिण द्वार से जब
मानसून पानी से लडी हवायें ले जाता है तब वे इस छोटे से क्षेत्र में लगभग
630
सेंटीमीटर की वर्षा प्रतिवर्ष करती हैं।
यदि हम तीस्ता के
पठार से बढना शुरू करें तो पहले हमें उष्ण कटिबंधीय पौधे और वृक्ष जैसे,
आम,
नीम,
कटहल आदि मिलेंगे।
फिर लगभग 7000
फुट की ऊंचाई चढने पर
समशीतोष्ण कटिबंधीय वृक्ष जैसे,
चीड,
स्प्रूस (एक प्रकार
का देवदार) बांज या बलूत (ओक),
मैग्नोलिया आदि
मिलेंगे और 10
हजार फुट की ऊंचाई चढने पर
आल्पीय (अल्प पर्वत सदृश्य) मखमली घास,
जिसमें रंग-बिरंगे
विभिन्न किस्म के फूल जैसे प्रिम्यूला,
ब्लूजैन्शियन,
सैक्सीफ्राज,
ईडलवाइस आदि खिले
मिलेंगे। फिर तिब्बती,
ठंडा मरुस्थली पठार और फिर
कंचनजंगा की अनंतकालीन बर्फ। इसी तरह पक्षियों और अन्य जंतुओं की विविधता
भी मिलती है। विश्व में अन्यत्र इतनी वानस्पतिक तथा जलवायु की विविधता
पाने के लिए कुछ हजार किलोमीटर की यात्रा तय करनी पडेग़ी,
जबकि सिक्किम में
मात्र 50-60
किमी की यात्रा यथेष्ट
होगी। मैंने गौर किया कि जिस तरह छोटे से सिक्किम में विश्व के पाँचों
प्रकार के वानस्पतिक प्रकार मिल जाते हैं और इतनी विभिन्नता लिए हुए,
एक साथ मेल जोल से
रह रहे हैं कुछ वैसे ही हम लोगों की संस्था सोसायटी ऑव नेचर फोटोग्राफर्स
है जिसमें सारे भारत के लोग हैं अपनी अपनी विभिन्नता लिए किन्तु जब आपस
में मिलते हैं तो कितनी समानताएं - सोचने में,
मूल्यों में,
जीवन दर्शन में -
मिलती हैं।
कंचनजंगा का नाम
मैंने सुन रखा था और लगता था कंचनजगा जैसे सिक्किम का पर्यायवाची है।
कंचनजगा की ऊंचाई 282216
फुट मानी जाती है। (हिमालय की चोटियां अभी भी बढ रही हैं) और विश्व की
सबसे ऊंची चोटी में इसका स्थान तीसरा है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं
कि कंचनजंगा का सिक्किम की संस्कृति में विशेष महत्त्व है। लेप्चा भाषा
में कंचनजगा का सही उच्चारण खाँगचेंदजोंगा है और इसका अर्थ है,
'हिम के पाँच अनंत
खजाने'।
क्योंकि कंचनजंगा मे 5
चोटियां हैं और ये
5
खजाने स्वर्ण जैसे बहुमूल्य
खनिज,
औषधियां,
अस्त्र शस्त्र,
वस्त्र और धर्मग्रंथ
हैं। कंचनजंगा को सिक्किम लोग अपने प्रिय रक्षक देवता (देवी नहीं) के रूप
में मानते हैं और उनकी यह श्रध्दा इतनी गहरी है कि
1955
के ब्रितानी पर्वतारोही दल
को उन्होंने कंचनजंगा पर इस शर्त पर चढने की अनुमति दी थी वे उसके शिखर
पर नहीं चढेंग़े और इसलिए वह दल शिखर से
5
फुट नीचे तक जाकर ही वापस
लौटा। ये पांच खजाने साधारण आदमी की मुख्य आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।
इसका अर्थ यही समझा जाना चाहिए कि प्राकृतिक और पारस्थितिकी (इकोलॉजी) की
दृष्टि से सिक्किमी लोग हजारों वर्ष पहले सिक्किम की समृध्दि के लिए
कंचनजंगा का महत्त्व समझ गए थे और उसका सम्मान करते आए हैं। यदि इन
खजानों को मैं आधुनिक नाम देने की धृष्टता करूं तो वे क्रमशः इस प्रकार
होंगे : प्राकृतिक
सौंदर्य,
वनस्पति और आर्किड,
इलायची,
शांतिप्रिय लोग,
धर्मग्रंथ।
सन्
1848
मे एक प्रसिध्द अंग्रेज वनस्पतिज्ञ,
जॉन डॉल्टन हुक्कर
ने सिक्किम आकर न केवल यहां के प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाया,
वरन यहां की बहुत
सारी अनुपम और बाकी विश्व में न मिलने वाली वनस्पतियों और आर्केडों को वे
सिक्किम से बाहर ले गए और उनका प्रचार यूरोप में अधिक हुआ। जॉन हुकर वही
थे जिनकी मूल्यवान सलाह चार्ल्स डार्विन ने अपने मानव विकास सिध्दांत के
लिए ली थी। विश्व में सबसे पहले लेख का जिसमें कि एवरेस्ट चोटी का जिक्र
किसी विदेशी ने किया हो,
श्रेय संभवतः इन्हीं
डॉ ज़ॉन डाल्टन हुकर को मिलेगा। सन
1848
में उन्होंने कंचनजंगा
पर्वत श्रृंखला पर घूमते हुए पश्चिम की दिशा में एक बहुत ही भव्य ऊंची
चोटी देखी जोकि वहां से लगभग एक सौ पच्चीस किलोमीटर थी और उन्होंने अपनी
डायरी में नोट किया कि वह चोटी हिमालय पर्वत श्रृंखला के उस क्षेत्र की
चोटियों में सबसे ऊंची और भव्य है तथा नेपाली लोग उसे
'त्सुन्याओं'
के नाम से पुकारते
हैं।
वैज्ञानिक सर्वेक्षण
की त्रिकोणमितीय पध्दति से हिमालय की चोटियों की परिशुध्द स्थिति एवं
ऊंचाई मापने का कार्य भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने
1849-1885
में किया था। तथा 1856
में ही गणना से सिध्द हुआ कि
29028 फुट ऊंची चोटी
सबसे ऊंची चोटी है। श्री एवरेस्ट ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग में
1816
से कार्य करना प्रारम्भ
किया था,
तथा
1830-1843
तक भारतीय सर्वेक्षण विभाग
के सर्वोच्च पद पर रहे। दृष्टव्य है कि श्री एवरैस्ट को,
जिन्होने यह
वैज्ञानिक त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण पध्दति का शुभारम्भ कराया था,
सम्मान देने के लिये
उनकी सेवा निवृत्ति के तेरह वर्षों बाद उनके सम्मान में सर्वोच्च शिखर को
उनका नाम दिया गया।
हम लोग जलपाईगुडी
25
दिसंबर 1987
को सुबह 11
बजे ही पहुंच गए थे और लगभग 12
बजे वहां से सिक्किम नेशनल ट्रांसपोर्ट की बस से गंतोक के लिए चल पडे।
ग़ंतोक जाने की सडक़ तीस्ता नदी (सिक्किम की गंगा) के
किनारे-किनारे ही चलती है। यात्रा के शुरू में हम लोगों को अपने गर्म
पुलोवर उतार देने पडे क्योंकि दिसंबर के महीने में भी,
उस समय बडी ग़र्मी लग
रही थी और हम ठंडी हवा के साथ-साथ मनोरम दृश्यों का आनंद ले रहे थे।
प्रारंभ में इस सडक़ के दोनों तरफ वनों में शाल के वृक्षों की अधिकता थी
और बीच-बीच में सागोन,
अश्वपत्र,
आम,
नीम,
आदि ऊष्ण-कटिबंधीय
वृक्षों के तनों पर एपीफाइट (उपरिरोही) फर्न (पुष्पहीन वनस्पति) पायल या
बाजूबंद की तरह सजे हुए थे और कहीं-कहीं भाग्यवान तनों पर भव्य रंग रूप
वाले ऑर्किड शोभायान थे। शाल का जंगल घना होता है। और वह बडा साफ और
प्रकाशवान रहता है,
क्योंकि राजसी तथा
'शालीन'
वृत्ति का शाल वृक्ष
बेलों,
झाडियों और लताओं आदि को
अपने पास पनपने का प्रोत्साहन नहीं देता है। थोडी दूर चलने पर और थोडी
ऊंचाई पर जाने पर जंगल अधिक घना हो जाता है और उनमें बेलों लताओं और
दूसरे उपरिरोही तथा परजीवी पौधों की संख्या बढ ज़ाती है। सडक़ की वह यात्रा
जिसमें एक तरफ तीस्ता का प्रवाहमान शुध्द जल मन को आह्लादित करता है और
दूसरी तरफ वृक्षों की हरीतिमा मन को हर लेती है,
ॠषिकेश से बद्रीनाथ
के दृश्यों की याद दिलाती है। किन्तु यहाँकी वनस्पति में अधिक विविधता है,
विशेषकर प्रारंभ में
ऊष्ण कटिबंधीय पौधे और वृक्ष अधिक है।
अभी सिक्किम की सीमा,
शायद बारह-पन्द्रह
किमी होगी कि,
पश्चिम की ओर दार्जिलिंग
जाने वाली सडक़ मिली थी। दार्जिलिंग में भी आकर्षण है,
किन्तु वह रहस्य नहीं जे 'गन्तोक'
नाम में है। आगे
चलने पर सीमा से आठ-दस किमी पहले पूर्व की ओर जाती एक सडक़ मिली - जो
कलिम्पोंग जाती है। कलिम्पोंग,
इस क्षेत्र में अपने
पुष्पों के लिये बहुत विख्यात है,
तथा आधुनिक भागमभाग
से बचा हुआ भी। रंगपो एक छोटा शहर है,
जो पश्चिम बंगाल और
सिक्किम की सीमा पर स्थित है। रंगपो पहुंचते-पहुंचते चार बज चुके थे और
अब हवा में थोडी ठंडक और बढ ग़ई थी,
इसलिए सिक्किम
प्रवेश करते हुए हमने अपने पुलओवर पहन लिए। यहां पर शराब की दुकानें बहुत
हैं,
शराब पर कर भी कम है। बौध्द
लोग धार्मिक कृत्यों के साथ मद्यपान भी करते हैं। किन्तु ऊधम या शोर
मचाने वाले शराबी बहुत कम देखे।
वैसे तो पहाड क़ी
चढाई-उतराई बहुत पहले शुरू हो गयी थी,
किन्तु रंगपो के बाद
घुमाव ज्यादा हैं और यहां की वनस्पति अब बदलकर समशीतोष्ण कटिबंधीय हो गई
थी। शाल और सागोन आदि के स्थान पर बलूत (ओक),
देवदारु (स्प्रूस)
आदि आने शुरू हो गये थे। इस सडक़ पर यात्रा करते समय एक बात और ध्यान में
आई,
वह यह कि यहां पर ट्रेफिक
कम है और गांवों के आस-पास भी लोग जरा कम ही नजर आते हैं क्योंकि वनों के
साथ सुखी सहस्तित्व रखते हुए घनी आबादी का रहना मुश्किल ही है। सिक्किम
में बर्फीले पहाडों के बावजूद लगभग
12
प्रतिशत जंगल हैं किन्तु अब चाय तथा नारंगी की खेती बढाने के लिए कृष्य
जमीन का प्रतिशत भी धीरे-धीरे बढता जा रहा है।
सिक्किम हिमालय की
गोद में खेलते हुए निस्संदेह सुखद विशेषता वाला प्रदेश है। तभी भूटिया
लोग इसे डेनजांग कहते हैं जिसका अर्थ होता है
'सूखी
घर'
या
'नया
महल'
तथा लेप्चा भाषा में इसे
'नाइमाईल'
कहते हैं,
जिसका अर्थ होता है
स्वर्ग। इन नामों से यह पता लग जाता है कि सिक्किम और उसके आस-पास के
सारे लोग सिक्किम के सौंदर्य को तथा उसके गुणों को बहुत पहले से समझते
आये हैं और उनका सुख लेते आए हैं (लूटते नहीं!)।
लेप्चा लोगों की
लोक-कथाओं में उनका बाहर से सिक्किम आने का जिक्र कहीं नहीं मिलता,
इसलिए लगता है कि वे
यहां के सबसे पुराने निवासी हैं,
उनकी अपनी संस्कृति,
रहन-सहन और भाषा है।
भूटिया लोग तिब्बती इलाके से कोई
13वीं
सदी के आस-पास आये और उन्होंने जब इसे चावल का प्रदेश पाया तो उनकी खुशी
की सीमा न रही। नेपालियों का आगमन,
सिक्किम में
19वीं
सदी में शुरू होता है। यद्यपि नेपाली बहुतायत से हिन्दू होते हैं,
किंतु नेपाली हिंदू
और बौध्दों की संस्कृति में और भी अधिक समानता पाई जाती है। चूंकि हिन्दु
और बौध्द धर्म दोनों ही उदार प्रकृति के हैं इसलिए नेपाली हिन्दू और
बौध्द तथा भूटिया और लेप्चा बौध्द लोगों में आपस में शांति और प्रेम के
संबंध हैं। अब लेप्चा,
भूटिया तथा नेपाली लोगों
में वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे हैं। लेप्चा लोगों की मांग पर,
सिक्किम सरकार ने,
लेप्चा लोगों के लिए
विशेष संरक्षित क्षेत्र निश्चित कर दिए हैं। हम लोग ऐसे ही एक क्षेत्र
जोंगु घूमने गए।
गंतोक से जोंगु की
यात्रा लगभग 2
घण्टे की है और यह गंतोक से उत्तर जाने वाले राजमार्ग से लगभग दस किमी
हटकर है। तीस्ता नदी के किनारे तथा पहाडों से घिरा यह बहुत ही रम्य स्थल
है। जब हम लोग जोंगु पहुंचे तब वहां एक मेला लगा हुआ था। इस मेले की अपनी
एक विशेषता थी। आम तौर पर मेले में जो दुकानें होती हैं वे तो थीं किन्तु
वे सब की सब एक फुटबाल मैदान के चारों तरफ सजाकर लगाई गई थीं और इस सारे
मेले का केन्द्र यह फुटबाल मैदान था और इस मैदान में भिन्न-भिन्न दलों के
फुटबाल मैच एक के बाद एक हो रहे थे। ऐसा अनूठा मेला और खेल का मेल मैंने
कहीं-नहीं देखा और मैंने गौर किया कि एक आम सिक्किमी आदमी या औरत का शरीर
अच्छा,
स्वस्थ और सशक्त होता है।
एक तो उन्हें पहाडों पर हमेशा चढना और उतरना पडता है और दूसरे उनमें से
जो लोग गाँव या शहर में आ गए हैं उन्हें फुटबाल का शौक बहुत ज्यादा है।
मेले में फुटबाल के इन खेलों में लडक़ियों के फुटबाल खेल ने बहुत प्रभावित
किया क्यों कि शेष भारत में फुटबाल लडक़ियों में इतना लोकप्रिय नहीं हो
पाया है,
जितना विकसित देशों में
किन्तु सिक्किम की लडक़ियां फुटबाल की लोकप्रियता के मामले में किसी भी
विदेशी से पीछे नहीं हैं।
जोंगु घूमते हुए
हमने देखा कि तीस्ता के किनारे-किनारे डोंडा (बडी ऌलायची) के बडे-बडे खेत
थे। हम नदी के किनारे घूमते हुए जा रहे थे। वहां से हमें कंचनजंगा का जो
दृश्य दिखाई दिया वह अद्वितीय था। वैसे तो सिक्किम में लगभग सभी स्थानों
से कंचनजंगा अपनी ऊंचाई के कारण दिख जाती है किन्तु उस स्थान की तीस्ता
की घाटी से कंचनजंगा देखना मानों
'विस्टाविजन'
का आनंद दे रहा था।
घाटी में सूरज की छाया आ चुकी थी और इसलिए तुलनात्मक रूप से वह अंधेरे
में थी किंतु कंचनजंगा खुली धूप में चांदी सी चमचमा रही थी। इस कारण घाटी
हमारे पास होते हुए भी,
हावी न होकर कंचनजंगा की
शोभा बढा रही थी।
हम गंतोक में
सिन्योलचू लॉज में ठहरे हुए थे। इस होटल से कोई आधा घण्टे की चढाई के
भीतर ही जो हनुमान टेक है,
वहां से कंचनजंगा का
दृश्य देखने के लिए सारे गंतोक से उत्साही घुमकड सुबह ही पहुंच जाते हैं।
हम लोग भी सूर्योदय से लगभग आधा घण्टा पहले पहुंच गए थे और सूर्य की आभा
से प्रतिक्षण बदलता वहां प्राकृतिक दृश्य देखने का आनंद तो अद्भुत ही है।
इससे पहले कि सूर्य अपनी किरणें कंचनजंगा पर डाले,
कंचनजंगा एक अरुण
आलोक में जैसे चंदन लगा कर स्नान करती दिखती है,
मानो वह अपने
प्रियतम से मिलने के लिए श्रृंगार कर रही हो। और यदि अपने प्रियतम से
मिलने के लिए वह श्रृंगार नहीं कर रही होती तब उसकी झलक मिलते ही,
पहली किरन पडते ही,
लज्जा से उसके कपोल
लाल लाल कैसे हो जाते। प्रियतम के चुम्बन के प्रयत्न मात्र से ! धुंधलके
से एकदम प्रकाश में आ जाने पर कंचनजंगा का व्यक्तित्व जैसे निखर उठा!
क्या अज्ञान से ज्ञान में प्रवेश,
अंधकार से प्रकाश
में प्रवेश,
भोलेपन से प्रेम में प्रवेश
में बहुत समानता नहीं है। और थोडी ही देर में जैसे कंचनजंगा की चोटी
स्वर्णमय हो जाती और इसके बाद जब सूर्य थोडा चढता है तब वह चांदी सी धवल
जगमगाती है। शायद इसी सूर्योदय के इन रंगीन दृश्यों का आनंद लेने के कारण
सिक्किमी लोग कंचनजंगा में तांबा,
सोना और चांदी के
खजानों का स्थान मानते हैं। यह सूर्योदय इतना निराला और अद्भुत था कि इस
सारे अनुभव ने मेरे हृदय में एक कविता की प्रेरणा दी। यह कविता सौंदर्य
बोध से उद्भूत कविता है। इस सौंदर्य का पान करने के पश्चात जब मैं लौटकर
आ गया था और कमरे में आराम से बैठ गया तब अचानक कविता की प्रेरणा के साथ
एक नया रूपक भी मेरे मानस में कौंधा था। कंचनजंगा के लिए होटल से निकलने
से लेकर सूर्योदय के आनन्द में डूबने तक के प्रत्येक कार्य में और कविता
रचने के प्रत्येक कार्य में एक सशक्त और जीवन्त संबन्ध एकाएक मेरे मन में
कौंध गया दो,
बिलकुल अलग विधियों से
सौंदर्य सृजन की विधियों में एक गहरी समानता दिखलाई दी। प्रस्तुत है
कविता :
कंचनजंगा और कविता
अंधेरे
मुंह
होटल के तारों को
छोड
चढता
हूँ
पहाडी पर
अदृश्य चोटी की
ओर
कंचनजंगा के
दर्शन करने
कल्पना ही पकड
सकती है
जिन नक्षत्रों की
दूरी
उन्हीं की सुरमई
रोशनी में
टटोलता हूं राह
मैं
कभी हल्के से
टिके
पत्थरों सा
फिसलता
कभी आडी तिरछी
पगडंडियों सा
भटकता
पहुंचता हूं चोटी
पर
चट्टानों की
गरिमा
और
पेडों
की हरीतिमा
मेरी धमनियों में
फैल जाती है
और बढ ज़ाती है
मेरी उत्कंठा
अवगुण्ठन में पर
छिपी बैठी है
कंचनजंगा
थोडी ही देर में
देखता हूं
हल्की अरुणाई आभा
में
उषा लगा रही है
कंचनजंगा को
चंदन का उबटन
हैरान हूं
कहां है सूरज !
कहां से आया यह
उबटन
अरे कंचनजंगा के
कपोल
अरुणिम अरुणिम
ज्यों गोपियों के
बीच
कृष्ण का हो आगमन
और
ढँक
लिए हों लाज ने
सबसे पहले राधा
के कपोल
और मुझे पूर्व
में
अभी नहीं दिख रहा
है सूर्य
क्या पहली किरन
छिपकर फेंक रहा
है सूर्य !
अब कंचनजंगा की
सखियों के भी गाल
हो रहें हैं लाल
लाल
मैं देख रहा हूं
सब तरफ लाल ही
लाल
अब कंचनजंगा
दमक रही है
तृप्त और दीप्त
स्वर्णिम
स्वर्णिम
प्रेम से प्रथम
मिलन पर
मुस्करा रहा है
सूर्य
मधुरिम मधुरिम
अब कंचनजंगा
चमक रही है
शुध्द रजत धवला
सी
हरियाली गाने लगी
है गीत,
भौंरे गुनगुना
रहे हैं
कंचनजंगा के
प्रेम पर
सीमा है आकाश
मैं खडा हूं चोटी
पर
निस्तब्ध
डूब गया हूं
आकाश से उतर आई
है
सौंदर्य सरिता
जैसे कोरे कागज
पर
यह कविता
लौटते समय रास्ते
में एन्चे गुम्पा भी देखा।
यह गुम्पा लगभग
200
साल पुराना है।
ऐसा माना जाता है
कि,
इसकी संस्थापना करने
वाले लामा दुपथाब कार्पो दक्षिण सिक्किम की मैनम पहाडी से उड क़र इस स्थान
पर आये थे।
हम जब एन्चे गुम्पा में
घूम रहे थे तो वातावरण बहुत ही शांत था,
हमारे मंदिरों
में ऐसी शांति नहीं मिलती।
गुम्पा के एक
कोने में धूप जलाते हैं।
यह इस तरह का धूप
आला,
लगभग सभी गुम्पाओं के
आस-पास देखा।
उस समय दो महिलाएं वहां
'धूप'
जला रही थीं।
वे साडी पहने
खुले बाल रखे आधुनिक साजसज्जा में थीं।
वह
'धूप'
मैंने देखा कि
वहां बहुतायत से पाये जाने वाले वृक्ष
'जूनिपर'
(जिसे हिंदी में
धूपी कहते हैं) की सूखी पत्तियां ही थीं।
ये पत्तियां आम
पत्तियों के आकार की न होकर कुछ इस तरह की होती हैं जिस तरह से कसीदाकारी
में पत्ती काढ क़र दिखाई जाती है।
हवा में एक
मनमोहक सुगंध फैली हुई थी।
वे स्त्रियां इस
धूप के साथ कत्थई रंग का पदार्थ भी रख रही थीं।
जब मैंने उनसे
दूसरे पदार्थ के बारे में पूछा,
जोकि गाढा कत्थई
रंग का था,
उन्होंने बताया कि छांग
(चावल से बनाई हुई स्थानीय मदिरा) बनाने के बाद जो अवशेष बचता है यह
पदार्थ वह ही है।
जब मैंने उनसे
पूछा कि,
क्या पूजा के समय
मद्यपान उचित है ?
एक ने मुस्कराकर
उत्तर दिया, ''मदिरा
यदि अन्य समय के लिये उचित है तो पूजा के लिए क्यों नही
?''
मैंने उत्तर दिया,
''पूजा तो एक
पुण्य कार्य है,
उस समय मद्यपान
तो वातावरण को दूषित कर सकता है।''
उसने फिर मुस्करा
कर उत्तर दिया, ''मद्यपान
पुण्य कार्य में भी मदद कर सकता है,
वह मद्यपान
करनेवाले की मानसिक क्षमता पर निर्भर करता है।''
हम लोग इस तरह
बातें भी कर रहे थे और उन महिलाओं के पूजा करते हुए फोटो भी ले रहे थे।
उनके फोटो लेने
में हमें विशेष आनन्द आ रहा था क्योंकि वे सुन्दर और सौम्य तो थी हीं तथा
साथ ही हमारे फोटो लेने पर वे नाक भौंह नहीं सिकोड रही थीं।
इस गुम्पा के पास
जाते समय चारों ओर घूमते समय जो बात प्रभावकारी थी वह यह थी कि जहां-तहां
झण्डे फहरा रहे थे।
इन झण्डों का
आकार एक बहुत चपटे आयात के समान होता है।
इनकी ऊंचाई तो
बहुत ज्यादा होती है किन्तु चौडाई बहुत ही कम और इसलिये ये हवा में
लहराते खूब हैं।
इन झण्डों पर
बौध्द धर्म के मंत्र लिखे थे।
बौद्व लोगों का
विश्वास है कि हवा में जब ये झंडे लहराते हैं तो इन झण्डों से मंत्र की
पुनीत शक्ति हवा में आ जाती हैं और वह हवा आसपास के दुष्टों और पापियों
को दूर भगा देती है।
इसलिए सिक्कम में
पहाडों
पर भी जगह-जगह इस तरह के
बहुत से झण्डे एक कतार में लगे रहते हैं और इसी ध्येय से हर गुंपा के
चारों तरफ प्रार्थना चक्र भी लगे रहते हैं,
जिन्हें
श्रध्दालु भक्त आकर घुमाते हैं और
'ओम
मणिम् पद्ये हुम्'
मंत्र जाप करते
हैं।
इस मंत्र का अर्थ होता
है 'कमलरूपी
मणि में निवास करने वाले की जय।'
सतही तौर पर
देखने से ऐसा लग सकता है कि यह प्रक्रिया एक आदिम अंधविश्वास जनित
प्रक्रिया है और आदिम लोग ही इसे जादू की तरह प्रभावकारी मान सकते हैं
किंतु थोडा गहराई से सोचने पर मुझे लगा कि कि इसमें एक गहरा मानवीय सत्य
छिपा है।
ये झण्डे इतने ऊंचे और
इतनी सख्या में होते हैं कि किसी भी व्यक्ति को आसानी से दिखते हैं।
और जब वह व्यक्ति
उन्हें विश्वास के साथ देखता है तो वह यह मानता है कि इससे दुष्ट और पापी
लोग दूर भागते हैं।
तब उसके हृदय में
भी जो दुष्ट या पापी प्रवृतियां होती हैं वे भी स्वतः ही भागती हैं
क्योंकि यह प्रक्रिया विश्वासी मनुष्य के अर्ध_चेतन
और अचेतन में जाकर काम करती है।
हमारे अधिकाश
कार्य हमारे विश्वास पर ही आधारित होते हैं और उनसे ही वे शक्ति पाते हैं।
इस मनोवैज्ञानिक
गहरे सत्य को बौध्दों ने बहुत पहले पहचाना और उसका उपयोग किया।
कोई मुझसे यदि
पूछे कि दुनिया का सबसे निराला फूल का परिवार कौन सा है,
तो मैं कहूंगा
ऑर्किड।
इस पुष्प की तीन
विशेषताएं बिलकुल निराली हैं।
सबसे पहली
विशेषता तो इसके रंग और रूप की है,
जिसे निखारने और
बनाने में प्रकृति ने अविश्वासी जादुई कर्तब दिखलाया है।
इस फूल का
रंग-रूप,
अक्सर
,
की तरह होता है और ये
पुष्प कीडों
के रंग-रूप की नकल करने
में इतने कुशल और परिशुध्द होते हैं कि नर कीडे ऌन फूलों को मादा समझकर
उनके साथ संभोग करने आते हैं।
इस संभोग की
प्रक्रिया में यह तो पता नहीं
कीडों
को कितना आनंद मिलता है,
किंतु इन पुष्पों
का पराग उन कीडों
के पंख में लग
जाता है और फिर वे कीडे दूसरे ऐसे ही पुष्प पर जाते हैं तब वे स्वपरागण
तो नहीं कर पाते किन्तु वे पर परागण (क्रॉस पोलीनेशन) कर देते हैं।
कुछ ऑर्किड हवा
तथा अन्य विधियों द्वारा परागित (पौलीनेट) होते हैं।
इनके नाम भी
परागण के सहायक कीडे क़े नाम पर पड ज़ाते हैं जैसे मक्खी ऑर्किड,
मधुमक्खी
ऑर्र्किड आदि।
यदि हम ऑर्किड
शब्द के मूल पर जाएं तो हम देखेंगे कि यूनानी भाषा का शब्द ऑर्किस,
इसका स्रोत है,
जिसका अर्थ होता
है 'अंड
ग्रंथि' (टेस्टिकल्स)।
इस पुष्प के जो
कंद होते हैं वे अंडग्रंथि के समान दिखते हैं।
इसकी दूसरी
विशेषता यह है कि इसके पुष्पों का जीवन लंबा होता है।
ये पुष्प एक बार
सजाने पर कई दिनों तक उस कमरे में तरोताजा रहते हैं और इसके कारण भी यह
पुष्प आज विश्व में बहुत लोकप्रिय हो गया है और बडी मात्रा में मलेशिया
और श्रीलंका आदि देशों से इसका निर्यात होता है।
भारतवर्ष से इसके
निर्यात के लिए बहुत गुंजाइश है।
आयुर्वेद की ऐसी
दवाईयों में जिसमें दीर्घजीवन का गुण लाना हो इन पुष्पों को उपयोग होता
है।
इसीलिये इस परिवार के
कुछ पुष्पों का नाम जीवन्ती है।
इसकी तीसरी
विशेषता है कि यह बारहमासी काष्ठहीन पौधा अधिकतर पराश्रयी होता है और
इसलिये दूसरे वृक्षों पर फूलता और फलता है।
किन्तु गौर करने
की बात यह है कि यह उन वृक्षों का आश्रय ही लेता है,
'भोजन और पानी'
नहीं लेता।
सभी आर्किड फूलों
का आकार दुहरा सममित (बाइलेट्रल सिमेट्रिकल) होता है।
इनमें
3
बाह्य दल (सैपल) होते
हैं तथा तीन
पंखुडियां। एक
पंखुडी अक्सर अन्य पंखुडियों की अपेक्षा रंगरूप में बहुत ही भिन्न होती
है और अक्सर नीचे की तरफ लटकती रहती है।
इसलिए इस पंखुडी
क़ा नाम होंठ है तथा यह होंठ प्रत्येक आर्किड को एक विशिष्टता प्रदान करता
है।
ऑर्किड इन्हीं तीन
पंखुडियों तथा तीन बाह्य दलों के रंग,
रूप और आकार
बदलकर विभिन्न कीटों के शरीर की नकल,
लगभग शत प्रतिशत
सफलता के साथ करता है।
आर्किड पुष्पों
ने परागण के कितने अनोखे तरीके अपनाए हैं उन सबका वर्णन करने में एक मोटी
पुस्तक भर जाएगी।
मैं दो अनुपम
परागण विधियों की संक्षिप्त में चर्चा
करूंगा।
एक आर्किड है
मैसडिवैलिया मस्कोजा,
इसका पुष्प मात्र
एक से मी बडा।
किन्तु यह लघु
पुष्प का ओंठ (ओंठ ही तो आर्किड को विशिष्टता प्रदान करते हैं) इतना
संवेदनशील है कि इस पर सूक्ष्म कीट बैठा और इसने धीरे धीरे उठना शुरु
किया और फिर अपने वेग को बढाते हुए पुष्प के
मुंह
पर फटाक से फाटक की तरह
बैठकर उस कीट को कैद कर लेता है (कमल भी
भंवरे
को कैदकर लेता है,
पर मात्र
सूर्यास्त पर)।
कीट जो मात्र
चुम्बन लेने आया था,
अब पुष्प की आगोश
में 'कैद'
है।
यह पुष्प उस कीट
को कुछ देर अपने आलिंगन में
बांधकर
रखता है और तब ही उसका
दरवाजा (ओंठ) खुलता है।
खुलते ही कीट
उडक़र निकल जाता है,
और जब किसी अन्य
मैसडिवैलिया मस्कोजा के पास चुम्बन के लिए जाता है तब फिर उसके आलिंगन
पाश का आनन्द उठाता है और इन पुष्पों का
'पर
परागण'
करता है।
मेरे विचार से उस
सूक्ष्म कीट को मात्र चुम्बन नहीं,
भोजन (मकरंद) भी
प्राप्त होता होगा।
'केटसीटम'
प्रजाति के कुछ
पुष्प देखने में पक्षियों सरीखे दिखते हैं।
इस प्रजाति का एक
पुष्प आश्चर्यजनक रूप से किलकिला (किंग फिशर) सरीखा दिखता है मेरी समझ मे
यह पक्षियों के रूप की नकल,
पक्षियों को
आकर्षित करने के लिए नहीं है,
वरन वह मानव के
पक्षी प्रेम का लाभ उठाने के लिए है।
इस पक्षी की एक
टाँग,
जो वास्तव में एक
तंतु है जो प्रजनन स्तंभ से निकलकर,
ओष्ठ तक आती है।ज्योंही
कोई कीडा या पतंगा इस ओंठ पर बैठता है और,
अनजाने में ही,
इस तंतु को
स्पर्श करता है (अर्थात वह उसकी
टाँग
खींचता है),
कि उसके ऊपर मधुर
पराग कणों की वर्षा हो जाती है।
उस तंतु के
खिंचने से वह चाकू सी धार वाला तंतु पराग कणों को रखने वाली झिल्ली को
काट देता है।
झिल्ली के कटते ही,
द्रव पराग कण
बाहर निकलते हैं और हवा का स्पर्श पाते ही वे लगभग ठोस होकर,
उस कीट पर गिरते
हैं।
आर्किडों में सचमुच
मत्रमुग्ध करने की क्षमता है और विविधता है - रंग की,
रूप की,
आकार की,
सुगंध की और
परागण की।
गंतोक से
14
कि मी पर
बहुत ही विशाल राष्ट्रीय ऑर्किडेरियम है।
इसमें लगभग
300
जातियों के
आर्किड हैं और कुछ उष्णकटिबंधीय ऑर्किडों के लिए उष्ण गृह भी हैं।
यद्यपि हम लोग
दिसंबरांत में घूमने गए थे,
तब भी कुछ
ऑर्किडों ने हिम्मत करके शीत पर अपनी रंगीन छटा बिखेर ही दी थी,
किन्तु बहुत से
ऑर्किड उष्ण गृह में तो बाहर की शीत से बेखबर होकर होली मना रहे थे।
यूरोप में जो
ऑर्किड पहले बहुत लोक प्रिय हुआ था उसका नाम
'वनीला'
है (आइसक्रीम की
याद तो नहीं आ रही है आपको
?)
और ऐसा केवल उसकी हल्की
मधुर तथा निराली सुगंध के कारण हुआ था।
सेमतांग के
पहाडों
पर चाय के बागान बहुत
हैं।
वहां से सूर्यास्त का
दृश्य भी बहुत ही मनोरम होता है।
इसलिए हम लोगों
ने वहां सूर्यास्त का अनिवर्चनीय आनंद लिया।
चाय का पौधा कोई
30
सेंटीमीटर
ऊंचा
होता है और यह बहुत ही
पास-पास नाली के रूप में लगाया जाता है।
दूर से देखने पर
ऐसा लगता है जैसे खेत में हरी कालीन बिछी हों।
उस समय इसमें भी
फूल नहीं लगे थे।
सिक्किम की चाय
भी हम लोगों ने खूब पी,
इसमें जो महक और
जायका आया वह भी निराला और आहलादकारी था।
चाय की खेती
सिक्किम में कुछ ही वर्षों से शुरू हुई है और ऐसा लगता है कि सिक्किम के
उत्साही लोग चाय की खेती बहुत बढाना चाहते हैं।
रूमटेक गुंपा,
पेमयांची के बाद
सिक्किम का सबसे प्रसिध्द गुंपा है।
यद्यपि सिक्किम
में बौध्द धर्म की निंगमा शाखा सर्वाधिक प्रचलित है,
कर्मा शाखा भी
काफी प्रचलित है और रूमटेक इसी शाखा का प्रधान गुंपा है।
यह गंतोक से
30
किलोमीटर की दूरी पर,
एक छोटी सी पहाडी
क़ो पृष्ठभूमि में लेकर बनाया गया है।
इस गुंपा में
लामाओं का शिक्षण बडे पैमाने पर होता है।
और हम लोग जब
देखने गए तब 20
से
5
वर्ष की उम्र तक के
शिक्षार्थी लामा जमीन पर पंक्तिबध्द बैठकर धर्मग्रथों के श्लोकों को
कंठस्थ कर रहे थे और एक वृध्द लामा एक कुर्सी पर बैठे हुए चुपचाप देख रहे
थे।
विशेष बात यह थी कि
रूमटेक गुंपा के विशाल प्रांगण में ये शिक्षाथीं लामा कहीं भी बैठे हुए
थे और अधिकतर दीवार के बहुत पास उसकी तरफ मुंह करके बैठे थे।
उस वातावरण में
बडे लामा को कुछ बोलना नहीं पड रहा था,
एक छूट भी थी
किन्तु अनुशासन जैसे स्वेच्छा से सब तरफ छाया था जिसके लिए मात्र उनकी
उपस्थिति यथेष्ठ थी।
समाज में इतना
अनुशासन होना चाहिए कि पुलिस भी बस इसी तरह चुप देखती रहे।
इतने में दूसरी
मंजिल पर दो लामा बहुत लंबी (लगभग
2
मीटर) तुरही समान,
किन्तु आकार में
बिल्कुल सीधे,
वाद्यों को
फूँक
कर बजाने लगे।
वह संध्याकाल का
समय था और लगा कि वे संध्याकाल की पूजा का आह्वान कर रहे थे।
उनकी गंभीर और
भारी आवाज आकर्षित तो कर रही थी,
किन्तु लाउड
स्पीकरों समान विघ्न नहीं डाल रही थी।
उसके बाद दो
लामाओं ने एक शहनाई सरीखे वाद्य पर मधुर स्वरों में संगीत निकालना शुरू
किया।
ढलते सूरज की किरणें
उनकी तुरही,
शहनाई,
और उनके घुटे हुए
सिरों पर आकर्षक आभा दे रही थीं।
लगता था जैसे थके
हुए सूरज की थकान डूब रही है और शांति वातावरण में बढती जा रही है।
मैंने अक्सर देखा
है कि शाम का ही एक ऐसा वक्त होता है जब कुछ अजीब लगता है।
कुछ सूनासूनापन,
कुछ खालीपना लगता
है कि कुछ नई विचारणा चाहिए,
कुछ
ऊंची
चीज करना चाहिए,
कुछ निराला काम
करना चाहिए।
संभवतः इसीलिए संध्या
समय भी पूजा करने का विशेष विधान है,
वरन एक,
प्रकार के ध्यान
और पूजन का नाम ही 'संध्या'
है।
इस तरह के कार्य
- कर्मकाण्ड
(रिचुअल) - व्यस्त दिन और उनींदी रात्रि के बीच एक मनोहर पुल बनाते हैं,
खेल भी यह काम
कुशलता पूर्वक निभाते हैं।
यदि खेल भी न हों
तब सिनेमा,
दूरदर्शन या शराब भी
साधारण जन के लिये,
शायद कुछ अधिक ही
सुविधाजनक पुल बनाते हैं।
हम लोग ऊपर की
मंजिल से उतर कर नीचे आये तो देखा कि नीचे गुंपा के बरामदे में कुछ लामा
लोग गोलाकार में घूम रहे थे।
थोडी देर में समझ
में आ गया कि ये सब लामा धीरे-धीरे चक्कर लगाते हुए नृत्य कर रहे थे।
इनके नृत्य
विलंबित लय में थे और ऐसा अतींद्रय आनंद आ रहा था कि जैसे अच्छे
शास्त्रीय गायन में आलाप सुनने में आता है।
कुछ देर के लिये
तो हम लोग स्तब्ध देखते रहे।
बरामदे की तीन
दीवारों पर बुध्द और पद्मसंभव आदि के सुंदर और आकर्षक चित्र बने हुए थे।
सारे गुंपा के
भीतर चाहे कपडे हों या दीवार आदि,
वे मुख्यतः एक ही
परिवार के रंग में नजर आ रहे थे।
ये सब रंग सूर्य
तथा अग्नि से निकले हुए तेजस्वी लाल और पीले रंग के मिश्रण से बने थे।
केसरिया रंग ही
लामाओं का सबसे प्रिय रंग है और इसके भिन्न-भिन्न रूप,
किसी में ललामी
ज्यादा है तो किसी मे स्वर्णिम रंग,
अपनी छटा बिखेर
रहे थे।
इन रंगों में सूर्य का
सा त्याग और अग्नि का सा तेज झलकता है और हमारे मनोभावों को यह उसी रूप
में प्रभावित कर सकता है।
सिक्किम के
पश्चिम में पैमयांची नाम का एक छोटा सा
गाँव,
जो पश्चिमी जिले
की राजधानी गेजिंग से लगभग
15
किलोमीटर दूरी पर है,
और इसके बाद कहीं
भी आगे जाना हो तो आधुनिक यात्रिक वाहनों को छोडक़र पैदल ही जाना पडता है
- गेजिंग का अर्थ होता है राजधानी और गंतोक के पहले गेजिंग सिक्किम की
राजधानी थी - पैमयांची लगभग
2600
मीटर की
ऊंचाई
पर स्थित बहुत ही सुंदर
गुंपा गाँव
है।
बौध्द धर्म की
निंगमा शाखा का यह सबसे बडा गुम्पा है।
उसे लाल टोपी
वाले लामाओं का गुंपा भी कहते हैं,
क्योंकि इसके सब
लामा लाल रंग की टोपी पहनते हैं।
पेमयांची के
इतिहास से सिक्किम के आधुनिक इतिहास का प्रारम्भ होता है।
सन्
1642
में युकसैम नामक
गाँव
(पेमयांची
से लगभग
25
किमी उत्तर में)
में तीन प्रसिध्द लामा मिले।
आठवीं शती में
तिब्बत मे बौध्दधर्म की पुनर्स्थापना करने वाले महागुरु पद्मसंभव की
भविष्यवाणी के अनुसार,
तीनों लामाओं ने
सिक्किम में महागुरु पद्मसंभव द्वारा छिपाए गए सुरक्षित धर्मग्रंथों को
खोजकर बौध्द धर्म का पुनर्स्थापन किया।
युकसैम का अर्थ
होता है - तीन लामा।
पैमयांची गुंपा
का स्थल जिसने भी चुना,
वह अवश्य ही न
केवल प्रकृति प्रेमी होगा,
वरन प्रकृति को
ईश्वर की प्रिय संरचना मानता होगा क्योंकि यहां जो प्राकृतिक दृश्य दिखाई
देते हैं,
वे न केवल बहुत ही
मनोहारी हैं वरन हमारे मन को नोन तेल लकडी क़ी अपेक्षा बहुत
ऊंचा
उठा देते हैं।
इस गुंपा के
अम्दर संगथोपाल्बो नाम की उत्कृष्ट कलाकृति इसकी पहली मंजिल में स्थापित
है,
जो जीव की सात अवस्थाओं
का वर्णन कलात्मक ढंग से करती है।
वह विशाल कलाकृति
एक ही लामा द्वारा लकडी पर की गई जटिल संरचना वाली कलाकृति है,
जिसको बनाने में
उस लामा को 5
वर्ष लगे थे।
इसमें साधारण
मानव और बोधिसत्व की स्थिति से लेकर बुध्द और शंकर तक की स्थिति का वर्णन
है।
कक्ष के भीतर दीवारों पर
बहुत ही सुंदर चित्र हैं जो भारतीय वाम तंत्र शाखा से बहुत अधिक प्रभावित
जान पडते हैं।
बुध्द धर्म की यह
शाखा जो सिक्किम में निंगमा नाम से बहुत ही प्रचलित है,
बौध्द धर्म और
भारतीय तंत्र योग का बहुत ही विलक्षण मिश्रण है।
जोंगु
क्षेत्र में तीस्ताा के
तट पर घूमते समय एक पहचाना सा पौधा दिखा।रामबाण
या गमारपाठ (aloe)
जैसे सर्पाकार मोटे दल
वाले हरे पत्ते - छत्ते के रूप में या गुलाब के फूल की पंखुडियों जैसे
आकार में (किन्तु अन्य सब में नितान्त भिन्न) - शुष्क जलवायु के लिये
उपयुक्त पौधे दिख रहे थे।
उनके केन्द्र में
से एक ऊंचा
ऊर्ध्वाधर डम्ठल जिसपर
एक धवल पुष्प! आकर्षक! जो पता लगा डोंडा या बडी ऌलायची के पौधे थे।
शायद आपको यह
जानकर आश्चर्य हो कि संसार का सबसे अधिक बडी ऌलायची का उत्पादक प्रदेश
सिक्किम है। यहाँलगभग
2 हजार टन
इलायची प्रति-वर्ष पैदा की जाती है जोकि विश्व की उपज का लगभग 50
प्रतिशत है।
ग्वाटेमाला,
भूटान, अरुणाचल और
नागालैंड अन्य स्थान हैं
जहां
यह इलायची पैदा हाती है।
यह इलायची सत्कार
और मिठाइयों के काम में आने वाली छोटी इलायची नहीं हैं,
वरन, मसाले के काम में आने
वाली बडी ऌलायची है, जिसे डोंडा भी कहते हैं।
बडी ऌलायची के अलावा अदरक और हल्दी भी सिक्किम में
खूब पैदा की जाती है।
मुझे लगा कि इन
तीनों में संभवतः कोई संबंध हो।
पता लगाने पर
मालूम हुआ कि ये तीनों उपज 'जिजीबरेशी'
परिवार की सदस्य हैं।
सिक्किम में
नारंगियों के सुंदर और समृध्द बगीचे भी बहुत हैं।
सिक्किम में
घूमते समय,
लोगों से मिलते समय वहां की समृध्दि देखकर सुखद आश्चर्य होता है।
उत्तरी पहाडी
प्रदोश गढवाल,
कुमायूं, तथा 1962
के पूर्व का हिमांचल प्रदेश गरीबी में ग्रस्त दिखते
हैं।
क्या ये तीन नकद - उपज
सिक्किम की समृध्दि के महत्त्वपूर्ण संसाधन हैं!
गंतोक स्थित तिब्बत शास्त्र संस्थान को भी देखने गए।
यह,
संभवतया विश्व में बौध्द धर्म के ग्रन्थों तथा अन्य
उपादानों का सर्वाधिक मूल्यवान संग्रहालय है।
सिक्किम के लोग बहुत ही मितभाषी है,
और जब भी बातचीत शुरू की मैंने उन्हें विनम्र स्नेही
और खुला पाया।
सिक्किम में बहुत
फोटो लिये और सिक्किम लोगों ने बडे ख़ुशी-खुशी फोटो उतरवाए।
सिक्किम में
लडक़ियां और महिलाएं बहुत ही स्मार्ट होती हैं,
खुलकर बातें करती हैं।
कई लडक़ियों ने
पूछने पर बडे ग़र्व से बतलाया कि वे प्रेम विवाह में विश्वास करती हैं और
इसे काफी मात्रा में सामाजिक मान्यता प्राप्त है।
सिक्किम में
मुख्यतया दो धर्मावलंबी हैं
: हिंदू 65
प्रतिशत तथा बौध्द 27
प्रतिशत।
चूंकि हिंदू और
बौध्द धर्म दोनों ही उदार प्रवृत्ति के हैं इसलिए इनमें बडे सौहार्दपूर्ण
संबंध हैं।
शांत प्रकृति,
लोगों का सौम्य स्वभाव,
सहजता, आपसी सद्भाव,
फूलों भरी सौंदर्य_सुषमा
सिक्किम के जन-जीवन के प्रतीक हैं।
सिक्किम के प्रथम धर्मराज
फुटसांग
न म्ग्याल ने आधुनिक
सिक्किम राज्य की नींव डालते समय (1642)
'लो-मेन-त्सुमत्सुम' का
नारा बुलन्द किया था जिसका अर्थ है लेप्चा,
भूटिया और नेपाली एक है।
पश्चिम बंगाल में
(दार्जलिंग क्षेत्र विशेषकर) गुरखाओं ने आतंक फैलाया था और
जहां
तहाँ
विनाश की लीला
खेल रहे थे,
वहीं सिक्किम में (यहाँतक
कि सीमा पर स्थित रंगपो में भी) पूर्ण शांति विराजमान थी।
यही शांतिप्रिय
लोग आधुनिक सिक्किम के
पाँचवे
खजाने हैं।
–
विश्वमोहन तिवारी,
पूर्व एयर वाईस मार्शल
मार्च 14, 2003
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