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अदभुत् नरेन्द्र

एक दिन गली में हंगामा मच गया उस राह से जाने वाले सभी राहगीर भयभीत हो उठे थे अचानक आई आपात-स्थिति में कई लडक़े अपना संतुलन खो बैठते हैंलेकिन नरेन्द्र का साहस और प्रसंगावधान कुछ और ही था

एक घोडा गाडी क़ो तूफानी रफ्तार से खींचे चला जा रहा था और उस घोडा-गाडी में बैठी महिला की जान खतरे में थी स्वाभाविक था कि उस समय वह असहाय और भयभीत थी दर्शको की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए युवा नरेन्द्र ने स्थिति को भांपा और बिजली की रफ्तार से घोडा गाडी क़ी ओर लपक पडा घोडे क़ो पकड क़र उसे रोकने में उसने बडी बहादुरी से सफलता हासिल की जो लोग इस दृष्य को देख रहे थे उन्होने नरेन्द्र के साहस, योग्यता और समयसूचकता की बडी सराहना की यह नरेन्द्र और कोई नहीं स्वामी विवेकानंद थे

बचपन

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में श्री विश्वनाथ दत्त के परिवार में हुआ था बचपन में परिवार के सदस्य उन्हे प्यार से बिले पुकारतेसन्यास धारण के पूर्व उनका नाम नरेन्द्र था और भविष्य में वे स्वामी विवेकानन्द के रूप में प्रसिध्द हुएइनके पिता अग्रणी वकीलों में से एक थे और  माता भुवनेश्वरीदेवी एक सात्विक महिला थीं बचपन से ही उन्होंने नरेन को रामायण और महाभारत के अनेक प्रेरक प्रसंगो से परिचित कराया था इससे उनके अन्तकरण में सद्गुणों एवं सद्विचारों का बीज वपन हुआ जिसके चलते आगे उनके महान चरित्र का निर्माण हुआ शुरू से ही वे अति कुशाग्र बुध्दि के थे चपलता खुशमिजाजी और स्वाभिमान से उनकी प्रतिभा और व्यक्तित्व में और भी निखार आ गया था

बचपन से ही नरेन्द्र में जरूरतमंदों को सहायता करने की प्रवृत्ति पनपी थी वे भिखारियों और घुमक्कड साधुओं को नये कपडे, ख़ाने की चींजें आदि अति सहजता से बाँट देते नरेन्द्र की उमर इस समय केवल चार वर्ष की थी उनकी दानशीलता को देख जहां एक ओर लोग चकित रह जाते तो वहीं परिवार के सदस्य परेशान रहते कमरे में बन्द कर देने के बावजूद वे दान करने से बाज नहीं आते खिडक़ी से धोती, कपडा साधू भिखारियों के लिये फेंक देते

स्वामी विवेकानन्द एक अद्भुत बालक थे ध्यान में मग्न हो जाना उनकी और एक विशेषता माननी होगी कई बार अकेले ही या फिर मित्रों के साथ वे ध्यान का अभ्यास करते ऐसे ही एक दिन बालक नरेन्द्र अपने कुछ एक मित्रों के साथ ध्यान करने बैठे थे तभी न जाने कहां से एक साँप रेंगता हुआ वहां पहुंचा अन्य मित्रगण घबराकर इधर उधर भाग गये क्योकि उनका मन ध्यान में तो था नहीं लेकिन नरेन्द ना तो हिले न ही डुले बस धीरगंभीर मुद्रा में अपने आप में खोये इस बालक को न साँप का अहसास था ना ही बाहरी दुनिया की सुध

उन्हे डर शब्द मानो मालुम ही नहीं था जहां जाने में सामान्य बच्चे भय का अनुभव करते वहीं नरेन्द्र बेहिचक चल पडता भूत प्रेत से ना तो उन्हे डर लगता ना ही उसमें उनका विश्वास ही था उसी प्रकार वे जातपात या ऊंच नीच को भी नहीं मानते थे

डॉ सी एस शाह
 जुलाई 6, 2000 

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