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वैभव के हिंडोले में झूलते - राजराजेश्वर

चिता भस्म के अंगराग और काल सर्प के आभूषणों से विभूषित, श्मशानवासी, अमंगलवेषी भगवान भूतनाथ को भी र्स्वण-रजत का स्पर्श पाकर अपना स्वरूप विस्मृत करते देखना, देवाधिदेव के उपासकों के लिये आनन्ददायी रहा है अघोर शिव के ऐसे दमकते रूप के दर्शन जयपुर के सिटी पैलेस स्थित राजराजेश्वर शिवालय में होते हैं औघड, भूत-पिशाच सेवित भगवान रुद्र को जयपुर के राजमहल में स्वर्र्णरत्नों की आभा से दमकते देखना भक्तों के लिये विचित्र किन्तु सुखकारी अनुभव होता है इस अनूठे कर्म का सार्मथ्य जयपुर राजवंश के एकमात्र शिवभक्त महाराजा रामसिंह में ही था, जिन्होंने अपने अराध्य को राजराजेश्वर बना कर वैभव के हिंडोले में झुला ही दिया धन-वैभव का स्वर्णिम स्पर्श भूतनाथ का भी कायाकल्प कर गया चिता भस्म की जगह केसर-चंदन, बाघाम्बर के स्थान पर रेशमी वस्त्र और सर्पाभूषणों की बजाय दस किलोग्राम से भी अधिक वजन के रत्नजटित स्वर्र्णरजत आभूषणों से देवाधिदेव दमकने लगे शिव के वैभव का प्रभाव माता पार्वती पर भी पडना स्वाभाविक था वे भी अपने कल्याणमय स्वरूप के साथ स्वर्णाभूषणों की चकाचौंध से भक्तों के नेत्र तृप्त करने लगीं ऐसे में सेवक कैसे पीछे रह सकते थे? वीरभद्र और बटुक भैरव भी स्वर्णालंकारों और रेशमी वस्त्रों से सज-धज गए

महाशिवरात्रि पर सिटी पैलेस स्थित राजराजेश्वर शिवालय में शिव परिवार के ऐसे वैभवशाली स्वरूप के दर्शन कर भक्तों के नेत्र तृप्त हो जाते हैं स्वर्णरत्नों से लकदक देवाधिदेव और माता पार्वती के दर्शन, दर्शक की आँखों को पीलीया पीडित सा कर जाते हैं, जिसे सब कुछ पीला ही दिखाई पडता है उस दिन शिव पार्वतीजी सोने के इकत्तीस, सोने पर मोती आदि रत्नों के जडाव वाले सत्ताईस और चाँदी पर सोने की पॉलिश के ग्यारह आभूषण धारण कर अपना राजराजेश्वर नाम सार्थक करते दिखाई देते हैं भोलेनाथ के तिलकनुमा हार, अर्धचन्द्र कुण्डल, मुकुट, चन्द्रमा, कलंगी, पट्टी, चौसर, छत्र आदि के अतिरिक्त चाँदी पर सोने की पॉलिश की चौहत्तर नगोंवाली मुण्डमाला, दुपट्टे, बिल्वपत्र और प्रभामण्डल को प्रदर्शित करने वाला तेजप्रकाश धारण करते हैं दिगंबर शिव आज सर पर फेंटा बाँधने से नहीं चूकते पति की अनुगामिनी बनी पार्वती भी सलमे-सितारे जडे वस्त्रों पर 53 नगों का जडाउ हार, 24 मोतियों के जडाव का स्वर्ण नेकलेस, जडाऊ कलंगी , चन्द्रमा, कुण्डल, नथ, पंचमणिये जैसा बडा हार, फूलझुमके, पौंहची, अर्धचन्द्र, बिल्वपत्र, दुपट्टे, टोपी और नीलोफर धारण कर भक्तों को अपने वैभवशाली स्वरूप के दर्शन देने के लिये तैयार हो जाती हैं

देवाधिदेव के इस अनुपम रूप को देख कर आँखें पथरा जाती हैं इस छवि के सामने उनकी अब तक की गई समस्त स्तुतियां निरर्थक सी प्रतीत होने लगती हैं महान शिवभक्त रावण विरचित  शिव ताण्डव स्तोत्र हो या शिवमहिम्न स्तोत्र, किसी में भी भगवान रूद्र के ऐसे वैभवशाली रूप का उल्लेख नहीं हुआ है आद्य शंकराचार्य विरचित मानस पूजा स्तोत्र में भी शिव की वैभवपूर्ण मानस पूजा ही की गई है। हां, आनन्दलहरी में शंकराचार्य शिव के वैभव को भी स्वीकारते हैं, लेकिन उसका सारा श्रेय पार्वती को दे डालते र्हैं -

वृषो वृध्दो यानं विषमनमाशा निवसनं
श्मशानं क्रीडाभूर्भूजगनिवहो भूषणविधि:

समग्रा सामग्री जगति विदितैवं स्मररिर्पो
र्यदेतस्यैश्वर्यं तव जननि सौभाग्यमहिमा
।।

उनके (शिव) के पास क्या है? बूढा बैल वाहन है, दिशायें ही वस्त्र हैं (वस्त्रहीन रहते हैं), श्मशान निवास है, सांप आभूषण हैं सारी दुनिया जानती है कि उनके पास ले-देकर यही सामान है। हां उनके पास वैभव-ऐश्वर्य भी है, लेकिन वह तो आपके (र्पावती) सौभाग्य के कारण ही है वरना उनके पास क्या रखा है

जयपुर के सिटी पैलेस स्थित पोथीखाना में उपलब्ध जानकारी के अनुसार रक्ताभ काले पत्थर के लगभग आधा फुट लम्बे राजराजेश्वर की प्रतिष्ठा श्रावण शुक्ल तृतीया, संवत् उन्नीस सौ बीस, सोमवार के दिन सुखदायक श्रीयंत्र पर हुई थी-

वर्षे पुष्कर नेत्र नंदकुभिते मासे नभस्युज्वले,
पक्षे वन्हि तिथौ सुधांशु दिवसे कालेभिजिन्मंगले

प्रासादातंर मंदिरे नृपवरै: श्री रामसिंहेश्वरै:
प्रात्यष्ठापि गुरू प्रदर्शित दिशा श्री राजराजेश्वर:
।।

महाराजा रामसिंह के आराध्य शिव के राजराजेश्वर के नामकरण को लेकर भी अनेक मत हैं सृष्टि में परिपूर्ण मानी जाने वाली तन्त्र शास्त्र की महत्वपूर्ण देवी राजराजेश्वरी के नाम पर इन्हें राजराजेश्वर कहा जाने लगा यह भी कहा जाता है कि राजा के ईश्वर होने के कारण ये राजराजेश्वर प्रसिध्द हुए गर्भगृह के सामने दीवार में प्रतिष्ठित पार्वती जी का तीन फुटा विग्रह भी निराला है पार्वती का दुर्गा स्वरूप भले ही दशभुजी हो, लेकिन वे स्वयं द्विभुजी ही चित्रित-निर्मित होती रहीं हैं किन्तु यहां उनका चतुर्भुजी विग्रह है, जिसके बांए हाथों में धनुष और सर्प तथा दाहिने हाथों में अंकुष तथा बाण हैं सप्तधातु की इस प्रतिमा की गढन बहुत आकर्षक है तीखी नासिका, सुन्दर पतले होंठ, विशाल नेत्रों से सज्जित मनोहर मुखमन्डल भक्तों को श्रृध्दावनत कर देते हैं इस विग्रह की प्रतिकृति जयपुर के ताडक़ेश्वर मन्दिर में भी है मन्दिर के पुजारी पं बाबूलाल व्यास चर्तुभुजी रूप के कारण इन्हें अन्नपूर्णा बताते हैं लेकिन सिटी पैलेस में पोथीखान के पूर्व पुस्तकालयाध्यक्ष और तंत्रशास्त्र के मर्मज्ञ पं रामगोपाल पंचोली इन्हें पार्वती मानते हैं उनका कहना है अन्नपूर्णा के शास्त्रों में वर्णित स्वरूप में उनके एक हाथ में अन्नपात्र और दूसरे हाथों से उन्हें अन्न वितरित करते दिखाया है, काशी के अन्नपूर्णा मन्दिर में ऐसा ही स्वरूप है जबकि यहां तीन हाथों में शस्त्र और चौथे में सर्प है ये निर्विवाद रूप से जगज्जननी पार्वती हैं

गर्भगृह के बाहर द्वार के एक ओर गौर भैरव और दूसरी ओर  काल भैरव हैं सामान्य बोलचाल में इन्हें गोरे और काले भैरूं कहा जाता है किन्तु तंत्र शास्त्र में गौरवर्णी बटुक भैरव हैं, जो सदैव बालरूप में रहते हैं और प्रत्येक भौतिक सिध्दि प्रदान करने में सक्षम माने जाते हैं श्याम वर्ण काल भैरव का नाम और उपासना दोनों ही भयोत्पादक, किन्तु सभी सिध्दियां प्रदान करने वाली मानी गई है इन चतुभुजी भैरवों के हाथों में डमरू, त्रिशूल, खप्पर, चंवर हैं त्रिनेत्री भैरवों ने मस्तकों पर मौरयुक्त मुकुट भी धारण किये हुए हैं

जयपुर के राजाओं में रामसिंह ही एकमात्र शैव मतावलंबी थे यह सन्यासी राजा चन्द्रमहल और जनानी डयोढी के बीच अपने आराध्य का मन्दिर बनवा कर, स्वयं इसके पीछे हॉलनुमा कमरे में रहते थे अपना सम्पूर्ण वैभव शिवचरणों में अर्पित कर वे स्वयं सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे राजसी आडम्बरों से दूर वह सेवकों की सहायता के बगैर ही स्नान कर अपने वस्त्र स्वयं धो लेते, कभी पिछले दिन के ही धुले वस्त्र पहन वे राजराजेश्वर की सेवा में उपस्थित हो जाते थे। वहाँ तीन घंटे पूजा, अर्चना, ध्यान के बाद लौट कर भोजन करते उनका निजी पूजास्थल इसी मन्दिर के गर्भग्रह के बा/ई ओर है, जो सामने से दिखाई नहीं देता लकडी क़े कलात्मक सिंहासन पर स्फटिक के पारदर्शी शिवलिंग के दोनों ओर काले पत्थर पर निर्मित विशाल श्रीयंत्र है स्फटिक पर निर्मित एक छोटा श्रीयंत्र बीच में रखा है इनके अतिरिक्त कालेपत्थर के शालिग्राम और शिवलिंग भी वहाँ हैं सिंहासन पर कुल सात यंत्रों में से चार स्फटिक और तीन काले पत्थर के हैं इनकी सेवा पूजा रामसिंह स्वयं करते थे लेकिन अस्वस्थ या जयपुर से बाहर रहने या अशौच के समय इनकी पूजा ताडक़ेश्वर मन्दिर के पुजारी व्यास परिवार के लोग करते थे वर्तमान में भी इसी परिवार के पुजारी बाबूलाल व्यास म्न्दिर के पुजारी हैं

आम जनता के लिये राजराजेश्वर के दर्शन वर्ष में तीन दिन ही खुलते हैं महाशिवरात्रि पर दो दिन और अन्नकूट पर एक दिन आम जनता को दर्शन देने के लिये जब देवाधिदेव सज-संवर कर तैयार होते हैं, तो उनके इस अनुपम स्वरूप के दर्शन कर भक्त दर्शकों की आँखें पथरा सी जाती हैं कडे पहरे में प्रतिदिन पचास हजार से अधिक भक्त अपने आराध्य के दर्शन करते हैं पुजारी बाबूलाल व्यास बताते हैं कि 24-25 वर्ष पहले कडे पहरे के बाद भी यहां चोर घुस आए थे किन्तु शिवकृपा से कोई बडा नुकसान नहीं हुआ चोरी के कुछ घंटों पहले ही सारे आभूषण तोषाखाने में जमा हो गए थे फिर भी चोर शिवलिंग पर धारण कराया कडा, चाँदी के दो लोटे और चाँदी का फव्वारा ले जाने में सफल हो गए उन्होंने पार्वती जी की मूर्ति सोने कै समझ ले जाने का प्रयास किया किन्तु एक मन वजनी होने की वजह से वे इसे ले जाने में असफल रहे चोर मन्दिर के चौक का जाल काट कर अन्दर घुसे थे उन दिनों बाबूलाल जी के पिता केसर लाल व्यास मन्दिर के पुजारी थे और कार्तिक मास के कारण पहली बार पांचदिनों के लिये मन्दिर के द्वार खोले गए थे

बाबूलाल व्यास के अनुसार प्रतिदिन विधिविधान से पूजा-अभिषेक के बाद राजराजेश्वरजी को भोग लगता है भोग में दिन में चावल, दाल, फुलके और खरि तथा रात्रि में पूरी,सब्जी और मूंग की दाल के लड्डू होते हैं इसके लिए महाराजा भवानी सिंह जी के यहां से अब भी सीधा बंधा हुआ है, जिसमें प्रतिदिन ढाई किलो आटे के अतिरिक्त ढाइ-ढाई सौ ग्राम दाल, चावल, बूरा और घी होता है मन्दिर की सेवा-पूजा के लिये प्रधान पुजारी बाबूलाल व्यास के अतिरिक्त छोटे पुजारी सत्यनारायण, टहलुआ रामस्वरूप, रसोईदारिन विमला देवी के साथ मन्दिर के लिए एक सफाई कर्मचारी भी है

गर्भगृह के बाहर दाहिनी ओर लगभग अढाई फुट उंचे अत्यन्त दुर्लभ श्वेतार्क गणपति हैं सफेद आंकडे क़ी जड से निर्मित गणेश का तंत्र शास्त्र में भारी महत्व है दो से छह इन्च के श्वेतार्क गणपति ही दुर्लभ होते हैं, उस पर ये अढाई फुट उंचे हैं इन्हें विभिन्न रंगों से सुन्दर ढम्ग से सजाया गया है द्वार के दोनों ओर दोनों बटुक और काल भैरवों के विग्रह द्वारपाल की तरह खडे हैं यहीं पर शिव के परम तांत्रिक और सर्वोच्च शक्तिशाली शरभावतार का भी विशाल और दुर्लभ चित्र है परिसर में ही भगवान शिव-पार्वती के भव्य और विशाल चित्र लगे हैं महाराज रामसिंह का भी चित्र यहां है लगभग डेढ सौ वर्ष पुराने होने पर भी इन चित्रों के रंगों की चमक फीकी नहीं पडी है रंगों की चमक और कलम की बारीकी के कारण इनका पुरातात्विक महत्व भी है इन्हें लकडी क़े विशाल फ्रेमों में कांच से मंढ क़र सुरक्षित रखा गया है

महाराजा रामसिंह के समय धर्म और संगीत के विख्यात विभाग मोद मंदिर और गुणीजनखाना भी इसी परिसर में स्थित था मोद-मन्दिर के नाम से विख्यात जयपुर की धर्मसभा की प्रतिष्ठा पूरे भारत में थी काशी की धर्मसभा तक इसके निर्णयों को सम्मान देती थी धर्मशास्त्रों के उच्चकोटि के विद्वान के धर्मसंबंधी निर्णय अंतिम माना जाता था, जो संपूर्ण भारत में सम्मान पाता था यह आंबेर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा स्थापित पण्डित सभा का ही परिवर्तित रूप था दक्षिण भारत के पण्डितों द्वारा शिवाजी को राज्याभिषेक के अयोग्य घोषित करने का विवाद धर्मव्यवस्था के लिये मोद मंदिर के सामने लाया गया था भारत के क्षत्रिय मराठों को क्षत्रिय नहीं मानते थे ,तब मोद मंदिर ने यज्ञोपवीत संस्कार के द्वारा शुध्दिकरण के बाद ही शिवाजी को राजाओं की तरह राजतिलक कराने की व्यवस्था कर दी थी परिणामस्वरूप चवालीस वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत संस्कार कराने के बाद ही शिवाजी का राज्याभिषेक संभव हुआ

इसी प्रकार मन्दिर के सामने स्थित  हरा बंगला में भोर की प्रथम किरण से लेकर सायंकाल दीप जलने तक गुणीजनखाना के कलावन्त संगीत, नृत्य और रार्गरागिनियों की अविरल धारा प्रवाहित करते थेप्रात:काल भैरवी के मोहक आलाप से राजराजेश्वर और उनके दास जयपुर महाराजा की निद्रा खुलती थी इसके बाद वे समयानुकूल रार्गरागिनियों और नृत्य की उच्चकोटि प्रस्तुतियों से देवाधिदेव को रिझाया जाता था गुणीजनखाना क प्रत्येक कलावन्त को  हरे बंगले पर संगीर्तहाजिरी देनी होती थी। यहां के गायकों, संगीतकारों ने सम्पूर्ण भारत में धूम मचाई थी। यहां के बंशीधर भट्ट , फूल जी भट्ट, बद्री पखावजी, मौलाबख्श आदि तो संगीत के क्षेत्र में आदर्श बन गए हैं

- आनन्द शर्मा
फरवरी 19, 2001
645
किशोर कुंज, किशनपोल बाजार, जयपुर - 302001
E-mail:  Anandksharma@123india.com 

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