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कृति स्वयं की रचना का मौलिक प्रश्न मानव को सदा से आकर्षित करता आया है, '' आखिर हम सब आये कहां से हैं, किसने रचा होगा हमें या जीवन कैसे आरंभ हुआ होगा! '' मानव के बनाये लगभग सभी धर्मों और संस्कृतियों में मानवोत्पत्ति की अलग तरह की कोई न कोई कहानी अवश्य होती ही है, और ऐसा होना इसी एक सहज मानवीय उत्सुकता भरी प्रक्रिया का परिणाम है। हम अपनी उत्पत्ति का स्त्रोत लगभग उसी आवश्यकता के साथ जानना चाहते हैं जिस आवश्यकता के तहत हम खाते और सांस लेते हैं। हम बचपन से ही इस प्रश्न के साथ बडे होते हैं और बडे होने के साथ साथ हम अपनी समझ को परिपक्व बना लेते हैं और इसी प्रश्न का उत्तर और बेहतर सुलझे तरीके से खोजने लगते हैं। माना कि आज खगोलवैज्ञानिक, ब्रह्माण्डशास्त्री, पुरातात्विक, मानवशास्त्रीय, आनुवांशिकी के वैज्ञानिक और अन्य क्षेत्रों के शोधकर्ता और विशेषज्ञ इस प्रश्न का उत्तर हमें कई बार विभिन्न खोजों के जरिये दे सकेने में सफल हुए हैं किन्तु पौराणिक शास्त्रों ने हमें इस प्रश्न का उत्तर बहुत पहले ही दे दिया है। दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि आधुनिक लोग आज पौराणिक बातों के महत्व को एक दार्शनिक और ज्यादा सरल अर्थ और संदेश की तरह लेने की जगह महज एक परीकथा मान कर नकार देते हैं। या फिर कुछ लोग पौराणिक शास्त्र को इतिहास या विज्ञान मान लेने की मूर्खता कर बैठते हैं। जबकि पौराणिक शास्त्र इतिहास और विज्ञान की तुलना में सत्य को अधिक प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है। जैसे कि कोई महान कलाकृति सौन्दर्य व सत्य को एक फोटोग्राफ से ज्यादा प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करे या किसी समाचार की तुलना में कोई कविता या उपन्यास सत्य को बेहतर तरीके से सामने लाये। पैराणिक संदेशों को ग्रहण करने की सार्थकता, संदेशों के सही और सहज ग्राह्य अर्थों को लोगों तक पहुंचाने के सही और सभ्रान्त तरीकों में निहित है। पुराणों के सन्देशों का शब्दश: साहित्यिक अनुवाद या उन्हें समझने में हुई चूक ही वह एक कमी है जो लोगों को मूर्खतापूर्ण कट्टरधार्मिकता में बांध कर रख देती है। सृष्टि की रचना से सम्बंधित पौराणिक शास्त्र आवश्यक रूप से उस महान रचनाकार के अस्तित्व से सम्बंधित होते हैं। हमारे धर्मग्रन्थों के लेखकों ने ईश्वर की परिभाषा एक ऐसे प्रतीक के रूप में की है जिसे जानना या परिभाषित करना हमारे बस में नहीं। उन्होंने अपने गूढ अर्थों में यह समझाया कि जिस तरह बालक अपने माता-पिता का नाम नहीं लेता वैसे ही हमें ईश्वर का नाम हमें नहीं लेना वह बस ईश्वर है। ईश्वर का कोई दैहिक अस्तित्व नहीं, हम उन्हें भाषा के सहारे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हैं अत: उन्हें केवल हम प्रतीकों और बिम्बों के जरिये इस सृष्टि के रचनाकार के रूप में जान सकते हैं। पौराणिक शास्त्र हमें यही तो समझाते हैं। जब पौराणिक शास्त्रों में प्रयुक्त बिम्ब और प्रतीक हमें सत्य की ओर उंगली उठा कर दिखाते हैं, तो क्या हम उंगली की ओर ही देखते रह जायें या उस ओर देखें जहां की ओर उंगली संकेत कर रही है? यही सही समझ का अन्तर है। जब हम रेस्टोरेन्ट में जाते हैं तो क्या मेनुकार्ड ही खा लेते हैं? पौराणिक शास्त्र को समझने और उसके लाभों को प्राप्त करने के लिये हमें उन्हें काव्यमय समझ के साथ पढना सीखना होगा। इस परिपक्व साहित्यिक दृष्टिकोण के साथ सृष्टि की रचना का पुराण शास्त्र और विज्ञान और इतिहास में विरोधाभास नहीं होगा बल्कि दोनों एक दूसरे के पूरक नजर आएंगे। हिन्दू धर्म के एक पौराणिक संस्करण में सृष्टि की रचना की कहानी एक मिथक लगती है जब हम उसे सतही दृष्टि से पढते हैं किन्तु जब हम उसके गूढ अर्थों में उतरते हैं तो वह वैज्ञानिक धारणाओं के साथ चलती है। यह इस प्रकार है ( बृहद अरण्यका उपनिषद से ): सृष्टि के आरंभ में बस एक आत्मा थी ( पुरुष), सर्वकालिक और सर्वव्यापी, मात्र एक कोई दूसरा नहीं। इस धरती पर कोई दूसरा अस्तित्व में न था, कोई ऊंच नीच नहीं, यहां/वहां, दुष्टभला, र्वेहम, नर मादा आदि कुछ नहीं। आत्मा अपने आप में सम्पूर्ण और एकात्म थी। जब आत्मा ने देखा वह सम्पूर्ण सृष्टि में अकेली है तो वह डर गयी और उसे तब अनुभूती हुई कि डरने की तो कोई वजह ही नहीं जबकि वह सम्पूर्ण सृष्टि में अकेली है पर अब वह उदास थी अपने अकेलेपन से। तब उसने एक और अस्तित्व की रचना करने का विचार किया, ताकि र्स्त्रीपुरुष बनें और युगल का निर्माण हो। दो भिन्न अस्तित्वों का निर्माण हो। आत्मा ने अपने प्राणों में से एक का और निर्माण किया। ये दोनों अलग हुए किन्तु ये अब भी अपने प्राणों से ये अब भी एक हैं। जब ये मिलते हैं पति पत्नि के रूप में या देवता और देवी की तरह तो ये याद रखते हैं कि इनकी आत्मा अब भी एक है। यही वजह है कि कामसूत्र से हमें यह सन्देश मिलता है कि हम अपने सहयात्री के बिना अधूरे हैं। हमारा जो आधा अलग हुआ हिस्सा है वही हमें पूर्ण बनाता है। इसी तरह जब पुरुष और शक्ति का समागम हुआ और सृष्टि का जन्म हुआ। यही पौराणिक वृहद सत्य है। इस कहानी को इस तरह भी कहा गया कि मां शक्ति ने जब गाय का रूप धारण किया और शिव ने बैल का और उनके संभोग से गाय की प्रजाति का जन्म हुआ। वे घोडा, बकरी, पक्षी, चींटी आदि बने और विभिन्न प्रजातियों का आरंभ हुआ। इस प्रकार पृथ्वी पर जीवन आरंभ हुआ। इस प्रकार एक आत्मा में से जीवन आरंभ हुआ इस प्रकार इस सृष्टि के सभी जीवों में इस आत्मा का अंश आज भी है, जैसे कि सेब का एक टुकडा सेब से कट कर भी सेब रहता है। अत: वह प्रत्येक आत्मा कहती है, '' मैं ने इस सृष्टि में जन्म लिया है और मैं ने ही इस सृष्टि का निर्माण किया है।'' ईश्वर हरेक के अन्दर स्थित है। सर्वव्यापी है। अपनी रचना से वह अलग नहीं। उसकी सभी कृतियां उस प्रथम आत्मा का ही हिस्सा हैं। जब हमने मानव के रूप में जन्म लिया और चेतन हुए हम भूल गये उस कि हम आत्मा के स्त्रोत से जुडे हुए हैं। हालांकि अब भी उस एकात्मकता को अपने मानवीय सम्बंधों में हम खोज सकते हैं, पति-पत्नी के बीच, माता-पिता और बच्चे के बीच, भाई और बहन के बीच, मित्रों के बीच, दो पडाैसियों इत्यादि इत्यादि के सम्बंधों के बीच। ये मानवीय बंधन ही हमें अपन स्व के सत्य से परिचित कराते हैं, कि हम एक हैं, एक ही ज्योति से छिटके स्फुलिंग। विज्ञान हमें बताता है कि सारे तत्वों की रचना एक पल से भी अत्यन्त सूक्ष्म समय के अन्दर हुई जब सृष्टि की रचना की वह महान घटना घटी। उसी एक पल के सूक्ष्मतम हिस्से में उस तत्व की भी रचना हुई जिससे मानव शरीर बना। इस तरह हम जब सृष्टि बनी तब भी हम उपस्थित रहे थे। हम सभी जीवों का एक ही जैविक स्त्रोत रहा है चाहे वह विज्ञान कहे या पौराणिक शास्त्र यह एक सनातन सत्य है कि हम किसी एक अस्तित्व से उपजे हैं, उस एक के असंख्यों अंशों में से एक। मानव अस्तित्व के बारे में मानव के प्रथम दैविक और अलौकिक माता और पिता की रचना की पुराण गाथाएं सारे धर्मों और धार्मिक ग्रन्थों में लगभग एक सी ही है कि एक में से ही दूसरे का जन्म हुआ, (केवल बाईबिल पर आधारित धार्मिक मान्यताओं को छोड क़र कि आदम और हव्वा मानव थे और और बुध्द धर्म के अनुयायी तो सृष्टि की रचना के प्रश्न में उलझते ही नहीं)। ईश्तर और तम्मुज यूरेज में, फोनेशिया के एश्टार्टे और मेलकार्ट, मिश्र के आईसिस और ओरिसिस, ग्रीक के जिया और यूरेनस, भारतीय हिन्दु धर्म के शिवा और पार्वती या शक्ति, यकिमा मदर अर्थ और ग्रेट चीफ , ओसेज मान्यता में, चन्द्रमा माता है और सूर्य पिता। अब तक प्राप्त चिरप्राचीन मानवीय कलाकृतियों में भी धरती माँ की मूर्तियां ही हैं जो यह इंगित करती हैं कि यह मिथक हमारे पूर्वजों में भी मान्य था, शायद तबसे जबसे मानव ने अपने अस्तित्व के बारे में पहली बार प्रश्न किया होगा। हमें अब यह समझ ही लेना चाहिये कि हमारे पूर्वजों को ज्ञान था कि सूर्य, चन्द्रमा और धरती अविदित रहस्यों के प्रतीक हैं, वे कोरे मूर्तिपूजक नहीं थे जैसा कि कुछ धार्मिक असहिष्णु समुदाय के लोग कहते आए हैं। उनके अनुसार कोई भी विद्वान व्यक्ति सूर्य की पूजा ईश्वर के रूप में नहीं करता। हालांकि पल पल क्षय होता और पुर्ननिर्मित होता सूर्य एक ईश्वर और एक आत्मा का शाश्वत प्रतीक है, जैसे कि सूर्य हर दिन डूबता है और अगले दिन फिर उदित होता है, पुराने वर्ष के बीतने पर नया वर्ष आरंभ होता है, पौधे मरते हैं और अपने बीजों से नये पौधे को जन्म देते हैं, सितारे भी मरते हैं और उनसे नये सितारों का जन्म होता है उसी तरह हमारा वास्तविक स्वरूप भी बार बार मर कर जन्म लेता है। यही शाश्वत सत्य है। ईसाई और जूडास मान्यताओं के विपरीत जो कि सृष्टि के आरंभ और विनाश का एक निश्चित समय मानते हैं हिन्दू धर्म में यह सिखाया जाता है कि रचनात्मकता किसी एक क्षण में निहित नहीं वरन् यह तो बारम्बार होने वाली और अनन्त तक चलने वाली प्रक्रिया है, जैसे कि ब्रह्माण्ड अनन्त है और ऐसे अनन्त ब्रह्माण्ड सृष्टि में विद्यमान हैं। वैसे भी हब्बल दूरबीन से पता चला है कि ब्रह्माण्ड का निरन्तर विस्तार हो रहा है और वैज्ञानिक अचम्भे में हैं कि क्या ये विस्तार का सिलसिला विपरीत दिशा में जाएगा और ढह जाएगा या इसी प्रकार बढते हुए एक दिन शून्य में विलीन हो जाएगा? दोनों ही स्थितियों में पौराणिक दृष्टिकोण रखने वाले लोग ही अंतिम परिणिति का अनुमान लगा सकते हैं। यदि यह ब्रह्माण्ड ढह जाता है तो फिर से एक दिन सृष्टि की रचना होगी और अगर यह विस्तार को पाता है तो रचना से पूर्व की स्थिति कॉस्मिक स्थिति में पुन: पहुंच जाएगा। ब्रह्माण्ड भी ईश्वर औ आत्मा की तरह है जो पुन: पुन: जन्म लेता है और पुन: पुन: मरता है। जैसा कि जिनॉस्टिक ने कहा था - '' यह जानने के लिये कि हम कहां जा रहे हैं , हमें पहले यह जानना होगा कि हम कहां से आए हैं।'' हम एक स्त्रोत से उत्पन्न हुए हैं और हमारा एक ही गंतव्य है, उसी एकात्म स्त्रोत की ओर लौटने के लिये ही हमें बार बार जन्म लेना होता है।
मूलकथा - मिशेल |
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