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किशोर बनाम किशोर साहित्यः समझ की रूपरेखा साहित्य दृष्टि से पैदा होता है।किसी भी चीज क़ो देखना भर दृष्टि नहीं है।पूरी प्रक्रिया की तपिश का फल होती है यह।हमारे पास क्या था इस जमीन पर हमारे पास क्या हैइसका चिंतन करते हुए आगे निकल जाने से यह पैदा होती है।तभी यह भविष्योन्मुख भी होती है।भारतीय मनस् या भारतीय समाज में स्थापित मूल्यों का अतिक्रमण करने या उसको विस्तृत करने की सोच का अभाव रहा है और इसलिए उस दृष्टि का भी अभाव दिखता है जो अंततः दर्शन बन जाती है।यदि अपवाद को छोड दें तो यह अनायास ही नहीं है कि दार्शनिक साहित्यकार हमारे पास नहीं हैं।मेरी इन बातों से असहमत हुआ जा सकता है पर जीवन की जिन अवस्थाओं को हम जानते आ रहे हैं और जीते आ रहे हैं उनसे आगे भी कुछ न देख पाने का कुछ तो कारण रहा होगा लृ कि बचपनज़वानी और बुढापा के अलावा भी जीवन की कुछ अवस्थाएं होती हैं यह हम आज तक नहीं सोच पाए इसका तो कुछ कारण अवश्य रहा होगा।किशोर चित्त आज तक उपेक्षित रहा यह अकारण नहीं है। अधिकतर पश्चिम के मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था पर काफीक़ुछ प्रकाश डाला है; इसकी बनावट व बुनावट पर विचारविमर्श किया है और अनेकानेक सम्बन्धित तथ्यों की व्याख्या की है।यह कार्य पिछली सदी में अंकुरित हुआ और इस सदी में पुष्पितपल्लवित।इस व्याख्या की समझ से जो दृष्टि पैदा हुई उसी से पश्चिम का किशोर साहित्य पैदा हुआ।प्रारम्भिक दौर में लुईजा एलकॉट और एलएममॉण्टगोमरी जैसे विचारकों ने गम्भीर रूप से किशोर साहित्य का सृजन किया।इस अवस्था को एक नई पहचान ही नहीं, एक नई दिशा भी मिली।जेनीफर आर्मस्ट्रांग से लेकर समकालीन बहुचर्चित जूडी ब्लूम तक का सराहनीय योगदान इस अवस्था को मिलता रहा।इतना ही नहीं ''नैन्सी ड्रू'', ''हार्डी ब्वॉयज'', ''एन ऑफ ग़्रीन गैबल्स'' आदि का अभूतपूर्व प्रभाव किशोर मन को सुखद रूप से आन्दोलित करता रहा।साथ ही स्कोलैस्टिक जैसी प्रकाशन संस्थाओं ने ''यंग एडल्ट्स'' के लिर विभिन्न लेखकों की पुस्तकें बहुतायत में छापीं।इस तमाम परिदृश्य में मेरे खयाल से सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य उन लोगों ने किया जिन्होंने अपने पात्रों को सीधे किशोर के रूप में प्रस्तुत नहीं किया और विभिन्न शृंखलाओं के माध्यम से बाल पात्र को ही धीरेधीरे किशोर पात्र बनने का अवसर दिया।मनोवैज्ञानिक तल पर यह बात ज्यादा सटीक व उचित लगती है।यदि हम पश्चिमी किशोर साहित्य के और गहरे में जाएं तो और भी अनेक विचारकों/साहित्यकारों को देखासमझा जा सकता है।यहां यह भी ध्यातव्य है कि सबने गम्भीरतापूर्वक और सतर्कतापूर्वक इस अवस्था के लिए लेखन कार्य किया हो ऐसा सोचना भ्रमात्मक है।अनेक लोगों ने ऐसी सामग्री परोसी कि किशोर दिशानिर्देशित होने से अधिक दिग्भ्रमित ही हो जाए।पर खास यह है कि इस अवस्था के लिए सोचा जा रहा है, उसे महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है, उसे पहचान दी जा रही है। पर हम, माननेवाले लोग हैं जाननेवाले नहीं।परम्पराओं की व्याख्या हमें सुहाती है।नयी/मौलिक बातों पर हमारा ध्यान कम जाता है।बालसाहित्य भी हमारे यहां लगभग नयी चीज है।यह साहित्य और इसके सृजनकर्ता आज भी निम्न स्तर के सर्जक माने जाते हैं(जैसे आर्ट्स की अपेक्षा क्राफ्ट्स निम्न स्तर का माना जाता है।इससे बडी बेवकूफी और क्या हो सकती है?)जबकि हमारे यहां यह जीवन की एक मान्य अवस्था रही है।फिर किशोर साहित्य और उसके सृजनकर्ता की क्या बात की जाए जबकि किशोरावस्था को जीवन की एक अवस्था भी हम आज तक नहीं मान पाए हैं। मेरे खयाल से किशोरावस्था जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण,तरल,कठिन,संकटकालीन और निर्णायक अवस्था होती है।इस अवस्था में प्राकृतिक रूप से शारीरिक,मानसिक एवं भावनात्मक परिवर्तन होते हैं जो उसके सम्बन्ध,सोच और जीवन की दिशा व गति को तय करते हैं। यह एक विद्रोहात्मक अवस्था होती है जो हर चीज क़ो यूं ही स्वीकार कर लेना यथोचित नहीं समझती।वह अनुभव के तल पर परख को महत्त्व देती है।इसलिए अक्सर किसी बात पर वयस्कों द्वारा मना किये जाने पर या तो किशोरमन उसकी मनाही को मानता नहीं या किसी परिस्थितिवश यदि तत्काल मान भी ले तो वह गांठ की तरह उसके मन में बैठ जाती है जिसका खुलासा होने पर ही वह चैन की सांस लेता है और यह खुलासा विभिन्न तरीकों द्वारा हुआ करता है।तर्कहीन बातों का एक किशोर के लिए कोई महत्त्व नहीं होता।हम जो कुछ भी सकारात्मक या नकारात्मक उसके सामने परोसें वह उसे स्वीकार कर लेने वाला नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का किशोर हम वयस्कों के बीते किशोरत्व से भिन्न किशोरत्व रखता है(मैं बेसिक इन्सटिंक्ट्स की बात नहीं कर रहा हूं बल्कि जिस रूप में निर्मित होकर वह किशोर हुआ है उस अर्थ में)।अतः उसका अध्ययन आवश्यक है।हम केवल अपने अनुभवों के आधार पर ही आज के किशोर की सम्यक् व्याख्या नहीं कर सकते। यह बात तब और भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब हम किशोरों के लिए कुछ सृजन की बात करते हैं।साहित्य किशोरों को प्रभावित करने की पूरी क्षमता रखता है यदि वह किशोरमन को छू ले।किशोरों के लिए भी साहित्य होना चाहिए, यदि इस हेतु किशोर साहित्य लिखा गया तो शायद किशोर उसे छूए भी नहीं पर किशोर के लिए समर्पित साहित्य । 2 किशोर से बच नहीं सकता। साहित्यकार का अपना आग्रह होता है जो अक्सर वह पाठकों पर थोपना चाहता है। यह प्रवृत्ति आजकल प्रमुख होती जा रही है।इसलिए भी पाठक व पाठकीयता का अकाल नजर आ रहा है (मेरी इस बात से असहमत हुआ जा सकता है)।किशोरमन किसी भी आग्रह के विरोध में खडा होता है।मेरे खयाल से आग्रहहीन साहित्य ही किशोर के लिए असली साहित्य हो सकता है।बाल साहित्य तब सफल होता है जब वह बालकों के मन को गुदगुदाए न कि उसे उपदेश दे।वयस्कों(विशेषकर साहित्यकारों) में उपदेशपरक वृत्ति प्रधान होती है।बालकों की तरह ही किशोरों का संसार भी अभी बेवकूफी भरे उपदेशों के कचरे से भरने के लिए नहीं होता।अतः सावधानीपूर्वक यदि किशोरों के मनस्तल व भावतल को छुआ गया तो वे शब्दउपकरण उनके प्रिय हो सकते हैं।मैं यह नहीं कहता कि किशोर साहित्य में केवल किशोरों के मन लायक(?)ही बातें हों पर इस सत्य को हमें स्वीकार करना चाहिए कि जो शब्द उनके मन को गुदगुदा न पायें वे उनके लिए अर्थहीन हैं चाहे वे अन्य परिप्रेक्ष्य में कितने ही सार्थक हों। पठन के क्षेत्र में रुचि एक सर्वमान्य सत्य है।प्रथमतः तो साहित्यकार को यह प्रयत्न करना होगा कि वे कुछ ऐसा लिखें कि किशोरों की रुचि उसमें जागृत हो।एक बार यह हो जाए तब तार्किक रूप से दिशाप्रदायी बातें हो सकती हैं। किशोरों के लिए विचारपूर्ण साहित्य नहीं वरन् विचारविमर्शपूर्ण साहित्य की आवश्यकता है।किशोरमन स्वाभाविक रूप से चुनौती को स्वीकार करने वाला मन होता है।साहित्यिक पात्र यदि उम्र में,विभिन्न परिस्थितियों में,मानसिक अवस्थाओं में व सोचविचार में किशोरमन के करीब है तो वह निश्चय ही अपना लिया जाने वाला है। किशोर साहित्य कसौटीनुमा या निर्णयपूर्ण साहित्य नहीं होना चाहिए बल्कि अच्छाबुरा,सफलताअसफलता,सुन्दरअसुन्दर आदिआदि अवधारणाओं की व्याख्या या विमर्श करते हुए आगे बढने वाला साहित्य होना चाहिए।वर्तमान की चौखट पर वह आशापूरित व भविष्योन्मुखी हो तो बेहतर। वयस्कों की नजर में किशोर कब,किस तरह की और कितनी बडी ग़लती कर रहा है यह किशोर नहीं जान रहा होता है और फिर, कभी उसे यह सुनना पडता है कि जाओ अभी तुम बच्चे होखेलो आदि तो कभी यह कि इस तरह क्यों कर रहे हो,अब तुम बच्चे नहीं रहे आदि।ये स्थितियां किशोर के लिए सबसे अधिक तनावपूर्ण और उलझाने वाली होती हैं।वह लगभग किंकर्तव्यविमूढसा होता है।अपनी स्थिति को तय कर पाने में वह स्वयं को अक्षम अनुभव करता है।यदि साहित्यिक पात्र इन स्थितियों व इन मनोभावों में जी रहा हो तो वह किशोरों द्वारा ग्राह्य होगा ही।साथ ही, किशोर साहित्य में वयस्क पात्र की 3 भूमिका को भी ध्यान में रखना आवश्यक होगा।सामाजिक रूप से वयस्कों के महत्त्व को देखते हुए किशोर कहींनकहीं उनकी आभामण्डल से प्रभावित भी होते हैं। सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में।अतः वयस्कों की उपस्थिति किशोरों के संसार में हमेशा उसे जज करने के लिए ही नहीं होनी चाहिए बल्कि उसे कम्फर्ट देने के लिए भी होनी चाहिए। अंततः, हमें याद रखना चाहिए कि सूचनाओं और तथ्यों की बमवर्षा हो रही है चारों तरफ।उसका अपना आकर्षण है।किशोर भी उससे अछूता नहीं है।अपने हर तरह के गेट अप और प्रभाव में साहित्य को अधिक आकर्षक होना पडेग़ा।मैं यह नहीं कहता कि यह एक प्रतियोगिता का विषय है पर वर्तमान समय में ''दृश्य श्रव्य माध्यम'' के प्रभावी हो जाने से ''पठनमाध्यम'' के आसपास एक प्रश्नचिह्न अवश्य मंडरा रहा है।अतः किशोर को हमें समझना पडेग़ा, किशोरप्रवृत्ति को समझना पडेग़ा और आत्यन्तिक रूप से हमें विभिन्न माध्यमों के ऊपर अपने सृजनमाध्यम और उसकी सार्थकता/सार्थक उपयोगिता को तदर्थ परिप्रेक्ष्य में समझना पडेग़ा।
राजर्षि अरुण |
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