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आगे जाओ
योगासन
का हमें जरूर लाभ होता है।
कईयों को अपना वजन, ब्लड प्रेशर और चरबी के बीच उचित समन्वय साधने के लिये
योगासनों की जरूरत नजर आती है।
लेकिन उसी के साथ एक सवाल भी मन में उठता है कि शरीर और मन का स्वस्थ संतुलन
साधना, क्या बस इतना ही योगाभ्यास का महत्व है? क्या योग शब्द की व्याख्या
इतनी सीमित है?
यह बात केवल योगाभ्यास के साधकों के संदर्भ में ही नहीं कही गयी बल्कि
ईश्वरप्रणित भिन्न भिन्न पध्दतियों का अभ्यास करने वाले अन्य साधकों के बारे
में भी यह बात उतनी ही महत्वपूर्ण है।आप
स्वाध्याय करते
होंगे
या आसाराम बापू के भक्त
होंगे,
आपमें से कईयों को रामकृष्ण-विवेकानंद भावधारा पसंद होगी या फिर अन्य कोई
पध्दती।
अनेक मार्गों द्वारा ईश्वराभिमुख होने के प्रयत्न में जुटे हर व्यक्ति को ''
आगे जाना '' आवश्यक होता है।
जनमानस का उत्कर्ष कैसा हो इस ओर उपनिषद गीता और श्रुति का आधार लेने वाले
अनेक संत हमेशा नजर रखते है और तदनुसार उनका जीवन तथा उपदेश कोई एक ही सीमित
चौखट में नहीं बंधे होते हैं।
कोई ईश्वर को कृष्ण तो अन्य राम शिव ज़गदंबा आदि व्यक्तिगत प्रेम और आदर के
भावानुसार बुलाते हैं तो और कुछ मुठठीभर लोग उसी सत्य को आत्मा ब््राम्ह
एकमेवाद्वितीय सच्चिदानंद कहते है।
मुख्य मुद्दा यह है कि साधक का कोई एक पायदान को सत्य मानकर रुक जाना ठीक
नहीं होता।
बल्कि आगे, और आगे, जाने का सतत प्रयत्न करते रहना ही क्या आवश्यक और लाभदायक
साबित नहीं होगा? कारण! आगे बढने के प्रयास में ही उस सत्य का स्वरूप
अधिकाधिक सुस्पष्ट और आनंददायी होता जाता है।
इस संबंध में श्री रामकृष्ण परमहंस एक कहानी सुनाया करते थे।
एक
गांव में एक
लकडहारा रहा करता था।वह
हर रोज जंगल में जाकर लकडी काटता और उसे बाजार में बेच देता।
किन्तु कुछ समय से उसकी आमदनी घटती चली जा रही थी क्योंकि स्पर्धा और
जंगलकटाई की वजह से उसके धंधे में लगातार कमी आने लगी थी।
ऐसी परिस्थिति में उसकी एक संन्यासी से भेंट हुई।
लकडहारे ने संन्यासी से विनम्र बिनती की और बोला ''महाराज कृपा करें।मेरी
समस्या का कोई उपाय बताइये।''
इसपर उस सन्यासी ने लकडहारे को कहा ''आगे जा।''
उस सन्यासी के आदेश पर या तो कहें,
शब्दों
पर विश्वास रख आगे की ओर निकल चला।
तब कुछ समय पश्चात सुदूर उसे चंदन का वन मिला।
वहां की चंदन
की लकडी बेच-बेच कर लकडहारा अच्छा-खासा धनी हो गया।
ऐसे सुख के दिनों में एक दिन लकडहारे के मन में विचार आया कि ''सन्यासी ने तो
मुझे आगे जा कहा था।
लेकिन मैं तो मात्र चंदन के वन में ही घिर कर रह गया
हूं।
मुझे तो और आगे जाना चाहिये।''
यह विचार करते-करते वह और आगे निकल गया तो इसमें क्या आश्चर्य की बात है! आगे
उसे एक सोने की खदान दिखाई दी।
सोना पाकर लकडहारा और अधिक धनवान हो गया।
उसके कुछ दिन के पश्चात लकडहारा और आगे चल पडा।
अब तो हीरे और माणिक-पाचू और मोती उसके कदम चूम रहे थे।
उसका जीवन बहुत सुखी और समृध्द हो गया।
किंतु लकडहारा फिर सोचने लगा ''उस सन्यासी को इतना कुछ पता होने के बावजूद वह
क्यों भला इन हीरे माणिक का उपभोग नहीं करता।''
इस प्रश्न का समाधानकारक उत्तर लकडहारे को नहीं मिला।
तब वह फिर उस सन्यासी के पास गया और जाकर बोला ''महाराज आप ने मुझे आगे जाने
को कहा और धनसमृध्दी का पता दिया लेकिन आप भला इन सब सुखकारक समृध्दि का लाभ
क्यों नहीं उठाते? इसपर संन्यासी ने सहज किन्तु अत्यंत सटीक उत्तर दिया।
वह बोले ''भाई तेरा कहना उचित है, लेकिन और आगे जाने से ऐसी बहुत ही खास
उपलब्धि हाथ लगती है जिसकी तुलना में ये हीरे और माणिक केवल मिट्टी और कंकर
के बराबर महसूस होते हैं।
मैं उसी खास चीज की तलाश में प्रवृत्त
हूं।''
सन्यासी के इस साधारण मगर गहरे अर्थ वाले कथन से लकडहारे के मन में भी
विवेक-विचार जागृत हुआ।
उसने सन्यासी को गुरू मानकर उसका शिष्यत्व स्वीकार लिया और वह साधक बन गया।
सबसे मूल्यवान चीज का नाम ही तो है ईश्वरलाभ
।
और हरेक के हृदय में बसे उस ईश्वर का दर्शन कैसे होगा, इस के लिये लकडहारा अब
बेतहाशा कोशिश में लग गया।
साधक योग और वस्तुलाभ
इन सब का सुन्दर मार्गनिर्देश इस छोटीसी कहानी में देखने को मिलता है।
डॉ सी एस
शाह
ज़नवरी 15‚
2001
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