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अन्तर्वेदना एक समय की बात है राजा रणतूर्य कीर्तिनगर के राजा थे। शासन का कामकाज सुचारू रूप से चल रहा था। सारी प्रजा ऐसा राजा पाकर धन्य धन्य हो गयी थी। किसी को किसी प्रकार की शिकायत नहीं थी। न्ग्गर सेठ श्रीधर राजा के घनिष्ठ मित्र थे। मित्रता भी ऐसी कि दोनों जगने के बाद जो मिलते तो रात सोने के समय ही अलग होते थे। एक दूसरे के बिना दोनों को चैन नहीं था। सेठ का बडा बेटा बहुत ही होनहार था। उसने सारा कारोबार सम्भाल लिया था। सेठ जी के पास अब अपने मित्र के लिये पूरा समय था। राजा भी सेठ श्रीधर को अपना पूर्ण सहयोगी मानते थे। यहाँ तक कि राज काज के कामों में भी सेठ का सलाह मशविरा लिया करते थे। अगर एक दिन किसी कारणवश नहीं मिल पाते तो दोनों ही एक दूसरे को खोजने निकल पडते। कई बार तो ऐसे अवसरों पर दोनों एक दूसरे को खोजने में रास्ते में ही मिल जाते। फिर दोनों खुब हँसते। राज्य में इस दोस्ती की चर्चा सर्वत्र थी। समय गुजरता रहा। राजा और सेठ श्रीधर दोनों ही उम्र के तीसरे पडाव पर थे। मिलने मिलाने का सिलसिला उसी प्रकार चल रहा था। गर्मी का मौसम जाने को था और आकाश में बादल के पहाडों का तैरना शुरू हो गया था। ऐसे ही एक सुहावने मौसम में सेठ राज दरबार में पधारे। प्रत्येक दिन की भांति आज भी वे राजा के बगल में विराजमान हो गए। पर आश्चर्य, राजा ने उनकी तरफ देखा तो जरूर मगर कुछ बोले नहीं। श्रीधर भी चुपचाप बैठे रहे। राजदरबार चलता रहा। शाम हो गयी। सारे दरबारी अपने अपने घरों को चल पडे। महाराज की चुप्पी सेठ श्रीधर के लिए असह्य थी। वे भी चलने को हुए तभी राजा ने कहा ''कहां चल दिए। चलो कहीं चलकर बैठते हैं।'' सेठ जी रूक गये। फिर दोनों घूमने निकल पडे। पर दोनों ही रोज की तरह सहज नहीं हो पा रहे थे। थोडी बहुत बातें हुयीं। पर एक चुभन सी दोनों को ही टीस रही थी जो अव्यक्त होते हुए भी स्पष्ट था। इसी तरह रात हो गयी। दोनों ही सोने के लिये अपने अपने घरों को चल दिए। सुबह हुयी। रोज की तरह राजा और सेठ मिलते पर अब पहले वाली बात नहीं रही। दोनों मिलते जरूर परंतु पहले जैसी आत्मीयता वाली बात अब न रही। दोनों ही इस बदलाव से दुखी थे। जब अलग होते तो एक दूसरे से मिलने की इच्छा होती पर मिलने पर एक अव्यक्त दूरी दीवार बनकर पहले से ही खडी मिलती। आग दोनों तरफ लगी थी कि आखिर बात क्या है। पास रहकर भी यह दूरी असह्य हो रही थी। सेठ तो कुछ ठीक भी थे पर राजा को अचानक न जाने क्या हो गया कि श्रीधर का चेहरा देखते ही बेचैनी सी महसूस होने लगती। उनकी इच्छा होती कि इसे फौरन देशनिकाला की आज्ञा दे दूं। फिर सोचते कि आखिर सजा किस बात की। पर इस मनः अन्तर्वेदना की पीडा असह्य होती जा रही थी। घुटन सीमाएं लांघने को बेताब थी। एक दिन राजा ने सोचा क्यों न श्रीधर से इस बारे में बात की जाय। उस दिन जैसे ही सेठ श्रीधर राजदरबार पहुंचे राजा उन्हें अपने शयनकक्ष में ले गए। फिर अपनी पूरी पीडा कह सुनायी। श्रीधर ने भी स्वीकार किया कि वह भी इस बदलाव से काफी दुखी है। इसका निदान क्या है। यह जानने के लिए दोनों ही मित्र राजगुरू के पास पहुंचे। राजगुरू दोनों की समस्या सुनकर गंभीर हो गए। कुछ क्षण पश्चात उन्होंने कहा - मानव के अन्तर्मन में अच्छी व बुरी दो तरह की भावनाएं सदैव तरंगित होती रहती हैं और जब दो मनुष्य आपस में अच्छी भावना से करीब आते हैं तो भावनात्मक सबंधों के मिश्रण से प्रेम की एक अनवरत बहने वाली सरिता का प्रस्फुटन होता है। समाज इस अदृश्य सरिता को प्रेम कहता है। चूंकि भावनाओं के अपने शब्द नहीं होते अतः इसे व्यक्त होने के लिए भाषा का सहारा लेना पडता है। कई बार गलत भावनाओं को मनुष्य द्वारा भाषा का परिधान न दे पाने के वजह से वे जान बूझकर नंगी दबा दी जाती हैं। मनुष्य इन्हें दबा तो देता है पर इन दमित कुंठाओं का रस प्रेम सरिता में घुलकर बहना शुरू हो जाता है। और यह अदृश्य रस पावन सरिता को भी कुंठित कर आप लोगों जैसी स्थिति उत्पन्न करता है। अतः आप लोगों के इस प्रेम में ऐसी ही दमित दुर्भावना समाविष्ट हो गयी है जिस कारण आपके इस प्रगाढ प्रेम में भी अन्तर्वेदना अंकुरित हो जाती है। अब आप दोनों ही अपने अपने मन में अपने घुटन का कारण ढूंढो। अगर न ढूंढ सके तो इसका निदान असंभव है।
राजा और
सेठ दोनों ही सोचने लगे। '' हे राजगुरू ! सारा कुसूर मेरा है। मैं कर्म से व्यापारी हूं। मेरे लडक़े ने पिछले वर्ष ही चंदन की लकडी सस्ते दामों पर खरीद कर पूरा गोदाम भर लिया ताकि समय आने पर ऊंचे दाम पर बेच कर ज्यादा मुनाफा कमा सके। उसमें मेरी बहुत ही पूंजी लगी है। पर दुर्भाग्यवश मौसम के अनुकूल न होने के वजह से बाहर के व्यापारी यहां नहीं आ पाए और पूरा का पूरा लकडी ग़ोदामों में पडा रह गया। अब तो उसमें दीमक भी लग गए हैं। मेरी सारी पूंजी नष्ट होने के कगार पर है। एक दिन मैं सोच रहा था कि दूसरे राज्य के व्यापारी तो अब बारिश में आएंगे नहीं। ऐसी हालत में इस पूंजी के बचने का एक ही उपाय है कि अगर राजा की मृत्यु हो जाए तो उनके जलाने के लिए सारा चंदन का लकडी बिक जाएगा और हमारी पूंजी बच जाएगी। अगर पूंजी ही नहीं बचेगी तो भीख मांगने के सिवा दूसरा चारा न रहेगा। हे संत! यही दुर्भावना मेरे मन में घर कर गयी थी। सेठ इतना कहकर राजा से लिपटकर रोने लगे। राजा के आंखों से भी आंसू आ गए। दोनों मित्र गले लगकर खूब रोए। राजगुरू ने कहा। अब जब दुर्भावना खुलकर सामने आ गयी तो वह दुर्भावना नहीं रही। अब तुम दोनों के बीच का मैल धुल चुका है। राजा ने कहा , हे मित्र ! पहले ही यह बात बता देते तो हम दोनों को इतना कष्ट तो नहीं सहना पडता। लो मैं तुम्हारी समस्या का समाधान किए देता हूं। उन्होंने मंत्री को बुलवाकर एक चंदन का महल तैयार करवाने का हुक्म दिया। इस प्रकार सेठ की पूंजी और उन दोनों की मित्रता दीर्घायु हो गयी। ''संसार के प्रत्येक मनुष्य में दुर्भावनाएं जन्म लेती हैं, पर बुध्दिमान मनुष्य उसका खुलासा कर सबको सुखी बना देते हैं। साथ ही दुर्भावनाएं चाहे मन के किसी भी कोने में जन्म लें। अव्यक्त रखने पर भी अन्तर्सम्बंधों में दरार डाल ही देती हैं। अतः हर चैतन्य प्राणी को इसके प्रति सचेत रहना चाहिए। ये विकास पथ के अवरोधक हैं।'' |
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