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oये
कुछ लोग! कुछ सम्बन्ध!
उसने बहुत बाद में बताया था
मुझे कि वह लगातार 3
महीनों से मुझे हर शनिवार चैकअप के लिये आते जाते देखा
करता था।
गर्भभार से क्लान्त
मैं, नन्ही
अन्विता को ले अस्पताल जाया करती थी।
एक दो बार उसने
सहायता भी की थी बस में बच्ची को चढाने में।
उसने यह भी बाद में
बताया था कि वह उसी अवस्था में मुझसे आकर्षित हो बैठा था।
''
मुझे आप बहुत अकेली लगा करती
थीं। लगता था कि कौन है इसका इडियट पति जो चैकअप के लिये अस्पताल तक साथ
नहीं आता। मुझे लगा था कि कोई क्रूर सा आदमी होगा,
जिसके चंगुल से आपको
निकाल लाऊंगा।''
उसने अंतरंग होने के
बाद बताया कि ''मैं
दोनों बच्चों को साथ रख कर आपके साथ घर बसाने की कल्पना करने लगा था।''
मैं हंसी थी आंखें बन्द
करके, खुश थी
कि अब भी किसी के दिवास्वप्नों में जगह मिलती है मुझे।
वह भी दोनों बच्चों
के साथ।
''
वीरेन्द्र,
वह अंग्रेजी पिक्चर
मैं ने भी स्टार मूवीज पर देखी है। पहली बात न तो मेरे पति कोई विलेन हैं,
न मैं त्रस्त। आय एम
हैप्पीली मैरिड! तब वे थे ही नहीं,
नये प्रोजेक्ट के लिये
गये हुए थे। नहीं तो उनसे ज्यादा चिन्ता मेरी कौन कर सकता है
''
और उसका मुंह उतर जाता।
बेटे के जन्म के बहुत दिनों
बाद बल्कि दो एक सालों बाद जब उसने मुझे फिर बसस्टॉप पर पाया तो वह बदहवास
सा मेरी ओर बढा था, ''
अरे! आपकी कोई खबर नहीं मिली थी उस दुर्घटना के बाद।''
पहले तो मैं ने पहचाना नहीं,
बाल लम्बे बढा लिये थे उसने, मैच्योर सा लगा था।
'' वो आप बस में चढते में फिसल गयीं थीं न...
अस्पताल जाते वक्त।
''
|
ये कुछ
लोग! कुछ सम्बन्ध चुपचाप आपकी जिन्दगी में आकर दाखिल हो जाते हैं,
वैसे ही एक दिन चले जाते हैं अपने लौटते पैरों के निशान
मन के ताजा गीले सीमेन्ट पर हमेशा के लिये बना कर।
व पंख
टूटी तितली या घायल चिरौटे की तरह आ बैठते हैं मन के आंगन में चुपचाप अपनी
पीडा सहते..
आपकी
पीडा से साधारणीकृत होते।
आप
सम्वेदनशील हो तो सहेज लेते हो उन्हें।
क्या
उन्हें सहेजने के लिये समाज की अनुमति जरूरी होती है?
उनका निभाव तो मन के धागों का होता है,
उससे किसी का क्या लेना देना?
पर फिर भी वो सम्बन्ध बदनामी का जहर पीते मन के कोने
में उगे रहते हैं अपने झरते पत्तों के साथ।
तिरस्कार सहते हैं,
कम बोलते हैं।
आपके
साथ रहते हैं,
प्रत्यक्ष जीवन के समानान्तर तमाम अप्रत्यक्ष आपत्तियों
के बावजूद वे प्रेम करते हैं आपसे।
एक
सम्वेदना भरी दृष्टि और सहानुभूति भरे स्पर्श की भूख होती है उन्हें। |
मैं भी कितनी कृतघ्न हूँ, उसीने अस्पताल
भेज कर मेरे दिये फोन नम्बर पर फोन किया था, सारे इनके स्टाफ के जूनियर्स,
कलीग्स, सीनियर्स चले आये थे। बाद में ये भी आ गये थे। सीजेरियन हुआ और मैं
ने कार्तिकेय को जन्म दिया। अरे! उस बात को तो डेढ साल बीत गया। मैं ने इसे
धन्यवाद तक नहीं कहा।
'' ओह उस वक्त आप न
होते तो...
शुक्रिया।
मैं दरअसल चली गई
थी कुछ महीनों इनके पास।
फिर बच्चे।''
'' मैं रोज अस्पताल आता था,
बाहर से खबर लेकर चला जाता था।फिर
आप गायब ही हो गईं।''
'' सो नाइस ऑफ यू अं
।''
'' वीरेन्द्र।
यही नाम है मेरा।
मैं सी टायप
में रहता हूँ।''
'' थैंक्स वीरेन्द्र।''
'' बच्चे कैसे हैं।
बडे हो गये होंगे।''
'' हां तभी तो, मैं ने
युनिवर्सिटी में एम फिल जॉइन कर लिया है।''
'' यह अच्छा किया आपने।''
लोग घूर रहे थे एक सीनीयर इंजीनियर की पत्नी,
एक मामूली टैक्नीशियन के जवान बेटे से बात कर रही है।
आखिर कितना बडा है
यह कॉपर टाउन 'खेतडी?
बात बनते देर लगती है क्या?
बस में रोज जाना होता,तीस
किलोमीटर पिलानी।
अन्विता को स्कूल
के लिये भेज कार्तिकेय को आया के पास छोड फ़िर बसअब बस घर पर ही लेने आने
लगी थी मुझे।
मेरी उदासीनता देख वह
मुझसे कम ही बोलता पर आंखें उसकी बोलतीं,
खोजतीं थी और मैं खीज जाती थी।
मेरा बिनबात का
हितैषी यह जाने कहां से चला आया है।
एक बार युनिवर्सिटी
लाईब्रेरी में मिला।
'' यहाँ
कैसे?''
'' एम्पलॉयमेन्ट न्यूज क़े पिछले पेपर देखने आया था।
अपने ही कॉपर
प्लान्ट में कुछ टैक्नीशियन्स की
वैकेन्सी है।
पापा ने जिद की तो
आ गया देखने।''
उदासीन सा खाली आंखों से ताकने लगा।
'' तुम क्या बनना चाहते हो?''
मेरे अनायास प्रश्न पर अचकचा गया।
'' कम से कम टैक्नीशियन्स नहीं बनना चाहता।
उससे तो यह
प्राईवेट फर्म की र्क्लकी ठीक है।
ये दिन रात की
शिफ्ट डयूटी,
जी तोड मेहनत के बाद पापा को ही क्या मिल गया।''
'' क्या क्वालीफिकेशन है वीरेन्द्र तुम्हारी?''
'' एम ए इकॉनोमिक्स में किया है।
छोडिये नाआपका एम
फिल कैसा चल रहा है?
कभी इस कैम्पस में हमारी धाक थी मैं आपको क्या कह कर
बुलाऊं? मिसिज माथुर?''
'' वैसे मेरा नाम रमा है।''
'' अच्छा रमा जी, चलिये आपको
चाय पिलाता
हूँ। पास में एक
थडी है उस पर बढिया चाय मिलती है।''
वहाँ
कई लडक़े
'' वीरेन बना!
'' कह कर कई दादा टायप लडक़े जमा हो गये थे।
मुझे अजीब लगा।
उसने मेरा परिचय
करवा कर उनसे कहा कि कभी मुझे कैम्पस में परेशानी न हो।
मन ही मन मुस्कुरा
दी थी मैं।
मैं ने पहली बार ध्यान से देखा।
जीन्स - ढीले शर्ट
के साथ हरी कढाई वाली राजस्थानी जूतियां,
हल्के भूरे घने बाल, हल्के
रंग की ही आंखें, ताम्बई हो आया गोरा रंग,
भरे से होंठ वाला यह राजपूत लडक़ा औरों से बहुत अलग है।
एक रविवार की सुबह अविनाश के पास मिलने आने वालों की
लम्बी कतार लगी थी।
ज्यादातर कैम्पस के
ही टैक्नीशियन्स और परमानेन्ट लेबर्स थे जो नये प्रोजेक्ट में होने वाले
एम्प्लॉयमेन्ट के सिलसिले में अविनाश के पास अपने लडक़ों की सिफारिश लेकर
आये थे।
मैं ने खिडक़ी से उसकी झलक
भी देखी।
वह तनाव में अपने पिता के
साथ सर झुकाये खडा था।
मैं जानबूझ कर लॉन
में आ गयी ताकि वह आश्वस्त हो सके कि मैं अविनाश को उसकी सिफारिश कर सकती
हूँ।
शायद उसे पता नहीं था वह
मेरे घर आया है।
मुझे देख कर चौंका
फिर झटके से पिता को अकेला छोड क़र चला गया।
मैं और उसके पिता
दोनों अवाक् रह गये मैं अन्दर चली आई।
''अजीब अहमक है।''
दूसरे दिन वह फिर बस में मिला पर चुप रहा,
मेरे साथ ही उतर गया युनिवर्सिटी गेट पर।
कुछ कदम चल कर आगे
बढा और एक अमलताश के पेड क़े नीचे खडा हो गया और अनायास शुरु हो गया,
'' आपसे दोस्ती का फायदा उठाना मेरे उसूलों में नहीं है।
छि: आप क्या सोचतीं
कि मैं इसलिये आपसे सम्पर्क बढा रहा था।
मुझे तो पता भी
नहीं था आपने वहाँ
शिफ्ट कर लिया है,
और सर का प्रमोशन इस इम्पोटर्ेन्ट पोस्ट पर हुआ है।''
'' वीरेन्द्र इतनी कैफियत की जरूरत नहीं है।
पर मुझे खुशी होती
अगर मैं कुछ कर पाती तुम्हारे लिये।''
'' बस इतना ही बहुत है, कि
आपने सोचा और कहा
।''
कह कर मानो उसका गुबार खत्म हो गया था।
मुझे अच्छा नहीं
लगा कि जरा से अहम के पीछे वह एक भला सा अवसर खो रहा है।
पर वह जिद्दी निकला।
फार्म ही नहीं भरा।
अविनाश के पास सचमुच वक्त ही नहीं था,
नये प्लान्ट के प्रोजेक्ट को लेकर।
मेरे कॉलेज के काम
वीरेन्द्र के ही जिम्मे हो गये जिन्हें वह बाखुशी करता।
थीसिस टायप करवाना,
टायपिस्टों के चक्कर काटना मेरे बस की बात नहीं थी।
इन्हीं सिलसिलों के
बीच मैं ने वीरेन्द्र के विद्रोही स्वभाव को जाना।
ऊपर से अर्न्तमुखी
सा दिखने वाला सौम्य वीरेन्द्र वहुत विद्रोही था,
पिता के नजरिये से एक आम युवा की तरह नाराज घर का बडा
बेटा था।
पढने में औसत।
बहुत कुछ कर गुजरने
की चाह घर की परिस्थितियों में उलझ कर रह गई थी।
एम ए करने के बाद
पिता के तानों के चलते उसने एक प्रायवेट फर्म जॉईन कर ली थी र्क्लक के तौर
पर और एनआईआईटी से इवनिंग कम्प्यूटर कोर्स कर रहा था।
वहाँउसके साथ की
लडक़ियां उसे चढाती थीं, ''
वीरेन्द्र यू आर टीपिकल मॉडल स्टफ! यू लुक अलाईक
मिलिन्द सोमन।''
उस अगस्त की हल्की धूप वाली दोपहर में वीरेन्द्र ने
लाईब्रेरी के अहाते में मुझसे ये सारी बातें की थीं।
उस दिन वही बोलता
रहा था।
उसके बाद कॉपर टाउन की बस
के लम्बे दो घन्टे के इन्तजार में हम पिलानी के साइंटिफिक म्यूजियम में चले
आये थे।
अजीबो गरीब यंत्रों पर तरह
तरह के खेल खेले,
चढे उतरे।
उन कुछ पलों में
मैं अपनी उम्र की कितनी सीढियां उतर आई थी।
उस गूंजते हुए बडे
हॉल में वीरेन्द्र मेरी दोस्ती की हदें छू गया था।
हालांकि हम में से
कोई कुछ नहीं कह रहा था।
पर न जाने कौन से
सम्वेदन संचरित हो रहे थे कि मैं अपने ही उनमुक्त व्यवहार पर बार बार ठिठक
कर भी, स्वयं
को रोक नहीं पा रही थी।
भूल गई थी कि कोई
देखेगा तो क्या कहेगा,
स्वयं यह वीरेन्द्र क्या सोचेगा?
उन दो घण्टों में जो मैं थी
उसे मैं घर आकर भी नहीं पहचान सकी।
मानो समय से पहले
वयस्क हो जाने से छूट गया मेरा वही बचपन था या बिन मां की बेटी के ब्याह की
जल्दी में बी ए करते ही ब्याह देने की पिता की जिद के आगे झुकी अल्हडता थी।
कुछ था जो अनजाना
सा छूट गया था।
जो अचानक वीरेन्द्र ने उठा
कर पूछा था, ''यह
आपका तो नहीं रमा जी? यहां गिरा पडा था।''
पर यह भी सच था कि घर पर भी मैं बार बार वीरेन्द्र के
ही बारे में सोच रही थी।
बच्चे बार बार मेरा
ध्यान आकर्षित करते और मैं फिर सोचने लगती,
'' आखिर है क्या यह लडक़ा?
चाहता क्या है अपनी जिन्दगी से? ''
अगले कई दिन मैं सहज रही,
वीरेन्द्र की सोच उपेक्षित रही।
वह मेरे काम यूं ही
करवाता रहा।
किसी किसी दिन जब पिता से
झगड क़र आता तो सारा आक्रोश मेरे सामने उतरता।
मेंरी थीसिस की
फाईनल टायपिंग वह अपने ही कम्प्यूटर इंस्टीटयूट से करवा रहा था,
सो एक बार क्लासेज क़ैन्सल होने पर मैं अपने चैप्टर्स
लेकर वहीं पहुंच गई।
मुझे नहीं पता कौनसी प्रेरणा थी या लम्बा खाली
वक्त था,
चाहती तो यह समय लाईब्रेरी में बिता लेती।
पर अकेला पन जो न
करवा ले वह कम है।
उस पर सालों बाद
मिली कॉलेज की आजादी और वीरेन्द्र बस पहुंच गई।
वह चौंका था।
'' रमा जी, यह जगह आपके लिये
अनुकूल नहीं , अपने खेतडी क़े कुछ और लडक़े
लडक़ियां भी
यहाँ कोर्स कर रहे
हैं।
चलिये
यहाँ
से चलते हैं।
वरना बिन बात बतंगड
हो जायेगा।
मेरा कुछ नहीं है आप।''
उस दोपहर में ठण्ड की खुनक थी धूप भली लग रही थी,
वही साइंस म्यूजियम का हॉल।
आज यंत्रों को छेडा
भी नहीं मैं ने,
सीढियां चढ उपर वाले हॉल में जा बैठे,
विशाल खिडक़ियों की चौखट में।
दोनों असमंजस में
थे, क्या बात
करते? कुछ असामान्य जन्म ले रहा था मन की नन्हीं
नन्हीं खिडक़ियोंके नीचे।शायद
वीरेन्द्र के लिये भी यह स्थिति कठिन थी।
जब तक वह मेरा
हितैषी था तब तक ठीक था,
अब ये नया मोड लेती सी संभावना उसे उलझा रही थी।
एकतरफा था तो ठीक
था, ये दूसरी
तरफ की खुलती झिरी
'' ह्न तो क्या सोचा वीरेन्द्र?
जिन्दगी का?''
'' पता है रमा जी, कल सोच
रहा था, इतना कहते हैं दोस्त तो चला ही जाऊं
बॉम्बे, कोशिश में क्या हर्ज है?
मुझे लगता नहीं है कि मैं क्लर्की या टैक्नीशियन बनने
के लिये बना
हूँ। मेरा
टेम्परामेन्ट ही अलग है।''
'' वीरेन्द्र! मुझे तो समझ ही नहीं आता तुम्हारा
टेम्परामेन्ट, तुम बहुत उलझते हो।''
'' आप शायद ठीक समझ रही हैं,
पर मेरे भविष्य के प्लान्स को पापा ने कभी सर्पोट नहीं किया।
वो बडा कुछ सोच
नहीं पाते।
हम जवानों के बेवकूफी भरे
चोंचले मान बहस करने लगते हैं।
थोडे पैसे जमा कर
लूं फिर बॉम्बे जाऊंगा।पहले
कुछ छोटी मोटी जॉब करुंगा फिर मॉडलिंग के लिये कोशिश करुंगा।''
'' दैट्स नाईस।''
फिर एक लम्बी चुप्पी धूप के
टुकडोंं
से खेलती रही।
मैं ठोढी घुटनों पर टिकाये
उन प्रतिबिम्बों को देखती रही।
'' आप बहुत सुन्दर हैं।''
अन्दर का ठहरा पानी, लहर लहर
हो गया था।
'' पर आप जब तब जब पहले मिली थीं ना आय मीन
व्हेन यू वर प्रेगनेन्ट दैट टाईम यू वर मोर अट्रेक्टिव
।''
'' ऐसा क्या? '' मैं हंसी।
वह खुला।
'' तब से आपको आज मैं रिलेट नहीं कर पाता।
तब की आपकी उस छवि
से मुझे अलग किस्म का अटैचमेन्ट था।''
'' क्यों भई? ''
'' तब आप अकेली थीं और सच कहूं तो मैं न जाने क्यों
आपकी सुरक्षा में तत्पर आपका पीछा किया करता था।''
'' किसलिये?''
'' सच कहूँ?''
'' हाँ
''
'' बुरा तो नहीं मानेंगी? ''
'' ना।''
'' मुझे लगता आपका पति कोई गैरजिम्मेदार आदमी है।
आपको अकेला छोडा है
इस हालत में मैं कल्पनाएं करता कि उस दुष्ट और क्रूर व्यक्ति से आपको छुडा
लाऊं और।''
'' मेरी वो कल्पनाएं आपके उसी रूप से जुडीं
और
खत्म हो गईं।''
मैं आंखें मूंद कर उसकी फंतासियों पर हंसी थी।
'' ये सब मुझे पता नहीं था।
'' पता होता तो?''
'' तो।
तब भी ऐसे ही हंसी
आती।''
'' रमा जी, वह मेरा पहला
काल्पनिक आकर्षण था।
आप उस पर कैसे हंस
सकती हैं?''
उस दिन पहली बार वीरेन्द्र ने अंग्रेजी फ़िल्मों व
अंग्रेजी साहित्य और पढी हुई ढेर सारी विश्व साहित्य की पुस्तकों तथा विश्व
की आर्थिक नीतियों की चर्चा की तो मैं उसके इस छिपे अध्ययनशील व्यक्तित्व
को जान हतप्रभ रह गई।
सच ही यह लडक़ा
क्लर्की या टैक्नीशियन बनने के लिये नहीं बना है।
''
व्हाय डोन्ट यू प्रीपेयर फोर
आई ए एस! ''
'' ओह! माय गॉड। नहीं
रमा जी मुझसे उस किस्म की पढाई नहीं होगी। आय एम नॉट एकेमेडिशियन।''
'' मॉडलिंग एक अजीब सा
कैरियर नहीं है?
एक उथलापन नहीं होता वहाँ?
''
'' होता हैऔर अभी
कौनसी मैं ने वह दुनिया देख ली है?
बस मैं यहाँ से भाग
जाना चाहता हूँ। किसी भी बहाने इस घर से।''
'' स्वयं को जिन्दगी
के किसी खूबसूरत पहलू से जोडाे वीरेन्द्र,
इतना भी बुरा नहीं यह
शहर।''
'' क्या बात करती हैं
आप भी। आप सारी दुनिया घूम आने,
दिल्ली जे एन यू में
पढने के बाद,
शादी के बाद अब मजे से कह
सकती हैं इतना भी बुरा नहीं यह शहर। मैं ने तो बस गांव देखे हैं अपने
ननिहाल के और ये खेतडी,
पिलानी,
झुंझनु ज्यादा से
ज्यादा जयपुर बीकानेर देखा है। बहुत पहले बचपन में आगरा गया था ताजमहल
देखने। सारी दुनिया बस किताबों में देखी। वो तो मम्मी जी की जिद से पापा ने
पिलानी के अच्छे स्कूल में पढा दिया तो सोच डेवलप हुई नहीं तो टैक्नीशयन कब
का बन जाता और गांव जाकर एक बच्ची सी बींदणी ले आता,
घर बसाता। जैसा कि
मेरा छोटा भाई कर चुका है।''
'' वीरेऽ जाने कहां
कहां से तो यहां बच्चे पढने आते हैं
''
'' मेरी बात खत्म नहीं
हुई और हाँ क्या यह मध्यमवर्गीय शहर विकास नहीं रोकता?
आप ही को देख लो।
माथुर सर से शादी नहीं करती तो कहीं प्रोफेसर होतीं,
होतीं नाऽ जे एन यू के
हाई फाई माहौल में अब ज्यादा से ज्यादा आप यहां के किसी कॉनवेन्ट में और
इन्जीनियर्स की वाईव्स की तरह टीचर बन सकती हो।''
'' माय गॉड
वीरेन्द्रअब कितना बोलतेबहस करते हो। पहले पहले कितने चुप से इन्ट्रोवर्ट
से थे। लो कान्फीडेन्ट।''
'' अब आप मेरी दोस्त
हैं।''
'' इस गलतफहमी में मत
रहनाऽऽ। दोस्ती के क्या मायने तुम बहुत छोटे हो। ए! सच कहो तुम्हारे छोटे
भाई की तुमसे पहले शादी हो गई?
और सच में बच्ची सी
बींदणी''
आज मैं ही उसे बोलने और उसके
बारे में और जानने के लिये उकसा रही थी।
'' और क्या?
बी ए में तीन बार फेल
होने के बाद पापा के कहने पर वह परमानेन्ट लेबर बना फिर टैक्नीशियन का
कोर्स किया जब वह बीस साल का था तब ही उसका रिश्ता आया एक तेरह साल की लडक़ी
का और शादी करदी। अभी कल परसों उसका गौना हुआ है। वह लाल गठरी सी घर में
नाक सुडक़ती घूमती है और सुबह सुबह मेरे पैर छूने आती है तो मैं डांट कर भगा
देता हूँ।''
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