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'
आज बिरज
में होरी रे रसिया की सामूहिक उठान पर अधेड ज़या माई का ध्यान खिंच गया। वह
कोठरी में बैठी एक पुरानी गुदडी क़ी उधडी सींवन ठीक कर रही थी। अभी पूरा
कहां गया है जाडा
कि लगे लोग फागुन - रसिया गाने! सच पूछो तो जया माई का
जाडा बडी मुश्किल से बीता था,
फटी गुदडी और दो कुतरे हुए कम्बलों में भी जाडा हड्डियों में जम जाता था।
ऐसा जाडा पहले कभी ना पडा कि एक साथ तीन कुठरियां खाली हो गयीं। पर फिर भी
बडे - बडे घरों,
विशाल मंदिरों के अहातों के पीछे,
गली के अन्तिम मोड पर ठिठकी सी खडी उजाड तुलसीबाडी की इस धुंएं से काली,
अंधेरी बिना खिडक़ी वाली सात कुठरियों में भी जाने कब और कैसे फागुन आने का
अहसास भर गया था,
मौसम बदलने की खुनकी हवा के साथ चुपके से सेंध मार कर घुस आई थी।
जाडे
क़े साथ जो मृत्युगन्ध कुठरियों में जा बसी थी फागुन की हवा से कुछ हल्की
होने लगी थी।
जया
माई के दिल में हूक सी उठी।
जया
माई की खास सहेली कमला जिज्जी,
अपनी जर्जर देह छोड ग़ईं अब फिर किसी कोठरी से उनका चिर
परिचित ठहाका अब नहीं सुनाई देगा।
अस्सी
की उमर में भी अश्लील भद्दे द्विअर्थी मजाक उनसे नहीं छूटे थे
।
''
क्योंरी
जया नहीं दिया न,
कम्बल उस सेठ ने। कैसे देता तुझ बुङ्ढी को
?
सामने ही
छाती खोल कर दूध पिलाती जवान भिखारिनों को फिर क्या देता
?''
बस
उन्हीं कमला जिज्जी की गुदडी नल के नीचे डाल धो - सुखा कर सिल कर जया माई
अपने लिये तैयार कर रही थी।
बाकि
सब स्मृति चिन्हों की तरह सहेज लिया।
आखिरकार वही तो उसकी एक मात्र सगी - सम्बन्धी थीं।
कहने
को कोई रिश्ता न था,
पर उनके जाने के बाद जया अकेली हो गयी अनाथ हो गयी।
जया
माई की आंख छलछला गई।
शाम
ढलने लगी थी जया माई ने माचिस टटोल कर ढिबरी जला ली।
कमरा
मटमैले,
फीके, हताशा भरे ऐसे उजास से
भर गया जिसके होने से अंधेरा ज्यादा भला लगता।
कमरा
क्या था एक काल कोठरी।
पर जया
माई का आसरा,
जिन्दगी भर की पूंजी जिसमें उसका छोटा सा संसार बसा था
कोने में अनाज का मटका।
मंदिर
में सेवा के बदले जो अनाज मिलता वही वह उसमें भर देती मक्की,
जौ, बाजरा,
गेहूं, चना सब एक ही में
घालमेल जिसमें कंकरों का अनुपात भी बराबर से था।
चावल
कब से नहीं मिला था सुजान सेठ के जाने के बाद से भात कब चखा उसने?
रूखा बाजरा या मक्का या ज्वार ही हाथ आता कभी तो।
सब
मिला कर वह पिसवा लाती।
दूसरे
कोने में अंगीठी।
कुछ
बरतन।
कपडे
क़े नाम पर दो फटी मटमैली सफेद धोतियां,
अलगनी पर टंगी।
जब से
विधवा हुई इकहरी धोती पहनी बिना ब्लाउज की।
कमला
जिज्जी टोकती थी यह इकहरी धोती ही जंजाल है।
ये
बांध तोड क़र उफनता जोबन कैसे छिपा लेगी री तू इसमें?
एक कुर्ती सिला ले।
तेरे
ऊपर तो यह टकलाभी जंचता है।
कौन
कहेगा तू चालीस की है?
हां
ऐसा तो
कुछ हिसाब लगाया था।
दस बरस
की थी तब शादी हुई,
तेरह पर गौना हुआ।
पन्द्रह लगते लगते विधवा हो गयी।
पांच
साल ससुराल में जस - तस काटे,
आधे पेट , सास की लातें -
ससुर की गालियां खाते और रात को देवर - जेठ की आये दिन का वही घिनौना आग्रह
सुनते - सुनते।
मायके
में कौन धरा था?
मां खुद भाई के आसरे।एक
दिन घनी कलेश के बाद,
हाथ का शाखा - पोला बेच कर,
एक बुढिया विधवा के साथ वह वृन्दावन चली आयी।
यहां
आकर सबसे पहले घनेकमर तक लहराते बाल गोविन्द जी के नाम कर दिये।
तब
कोठरियों की मारा - मारी कम थी तुलसीबाडी एक मारवाडी सेठ ने बनवाई थी।
ब्राह्मणी और उम्र से कम होने के नाते वह सेठ के वृन्दावन आगमन पर खाना
पकाया करती थी सो कोठरी उसके नाम हो गई।
तब
तुलसीबाडी क़ी छटा निराली थी।
आगे
सेठ की कोठी थी,
संगमरमर की जगर - मगर करती पीछे यह अहाता जिसमें सात
कमरे।
जिनमें
भजन गाने वाली पन्द्रह उडिया - बांग्ला - असमिया माईयां रहा करती थीं।
एक
कुठरिया उसे मिल गई।
तुलसी
बाडी क़ा सात्विक वातावरण था।
सारी
बंगाली विधवाएं ब्राह्मणियां थीं।
सेठ के
नाम से भजन किया करती थीं।
उन्हें
सेठ की तरफ से महीने का पच्चीस रूपया और भात - दाल मिलता था।
जया को
पचास।
वहीं
की होकर रह गई जया माई।
वो बात
अलग है कि सुजानमल सेठ के मरते ही कोठी बिक गई,
महीने का पैसा, दाल - भात
बन्द हुआ, कुठरिया खाली करने की नौबत आई लेकिन
भला हो सेठानी का विधवा ब्राह्मणियों के श्राप के डर से धमका उसने बेटे को
मना लिया तुलसी बाडी भजन आश्रम के ट्रस्ट के नाम करने पर।
जया
माई को भजन - वजन गाना नहीं आता था,
न उसे भाता वहां जाकर ऊंघते रहो रैं रैं बेसुरा सा झूठा
- सच्चा भजन गाते रहो वह ठहरी जनम की मजदूरनीउसने गोविन्ददेव जी के मन्दिर
में अनाज साफ करने का काम पकड लिया जिसके बारह आने रोज मिलतेकुछ अनाज मिल
जाता।
ऐसा
क्यों होता है कि कोई हवा में घुली गन्ध,
किसी गीत की स्वरलहरियां,
कोई मौसम तुम्हें पीछे को, कहीं सुदूर अतीत में
लौटाए लिये जाता है।
ये
रसिया गाते हुरियारे,
मंदिरों में सजते गुलालों की,
गेन्दा के फूलों, केसर मिले
टेसू के रंग की गन्धठण्डे - गरम मौसम का अनूठा सा मदहोश करने वाला मौसम
चारों तरफ एक किस्म का उल्लास जया अपने लिये दलिया रांधती हुई सुदूर अतीत
में खो गई।
कच्चा
- पका रांधा हुआ दलिया छपाक से थाली में उलटा कटोरी में रखा सरसों का कच्चा
धांस मारता तेल उंडेला,
लाल साबुत मिर्ची को हाथ से चूरा कर छिडक़ लिया और सडाऽप
सडाऽप करके झट चट कर गयी।
सुबह
से अब खाना नसीब हुआ।
आजकल
उसे कम दीखता है सो अनाज - दाल - मसाले बीनना बन्द हो गया है बडे - बडे
बरतन मांजती है वहपूरी सरदी भर यही किया उखडते दमे के साथ खांसते - खांसते।
हर दम
लगता था अब वह भी जमना जी के हवाले हो जायेगीइन्हीं सरदियों में।
बरतन
मांजने के अलावा अब फटे गले से भजनों में बैठने लगी है।
कमला
जिज्जी की कापी में से गा लेती है एकाध भजन।
जबकि
उसकी उमर की अब भीख मांगा करती हैं मंदिर बाहर कतार की कतार हां और क्या
ब्राह्मणियां भी नीचे जात की भी सब एक ही पंगत में रंग जी के मंदिर के बाहर
बैठ जाती हैं।
उसे तो
अनाज और एक रूपिया मिलता है दिन का उन भिखमंगियों को दो रूपए खाना और साल
में एकाध बार कभी कम्बल भी मिल जाता है।पर
हाथ फैलाना उसकी प्रकृति ही नहीं
।
संतोष
से पानी का एक लोटा गले में उंडेला और फटी खजूर की चटाई पर गुदडी बिछा कर
लेट गयी।
दोनों
कम्बल शरीर पर डाल लिये।
''
माई!
''
''डर
मत माई होली का परसाद''
भुनी गेहूं की बालियां,
चने और भुने नारियल के टुकडे क़े साथ खोये की बरफी। उस दिन भी पाक शाला से
भूखी लौट रही थी वह सोमवार था,
उपवास का दिन। एक झटके में खा गईपरसाद का वह स्वाद आज भी याद है।
पर
सुबह वह फिर बाडी क़े बाहर,
रात ही के भेस में, सुबह -
सुबह भंग चढा केबाहर ही से चिल्लाया वह नहा के तुलसी को जल चढा के निकली
ही थी।
''
जय जय राधे कृष्ण ऐ जया माई बडे ग़ुंसाई ने बुलाया है
पाकशाला के सारे सेवादार वहीं भोजन लेंगे चल तू भी।
''
सारी
माइयां हैरतजदा होकर इकट्ठी हो गयीं।
फिर
एकाध बुढिया हिम्मत करके बोली
- ''
हमें भी ले चलो गुंसाई जी।''
जया
बाहर आ गई,
चन्दन का टीका माथे पे लगा,
तुलसी की नई कण्ठी, धुली धोती पहन।
''
माई''
फिर उस युवा गुंसाई की आवाज ने उसे चौंकाया।
वह
गुनगुना रहा था
''
रंग लियौ मैं आज जोबना तेरे रंग में फगुना ''
उसका
मन कर रहा था कि उससे पूछे उसकी खोज खबर रखने वाला तू है कौन?
वह पूछती या न पूछती वह स्वयं शुरु हो गया, ''
माई, हमसे डरना तो मती।
हम कोई
बदमास नाय हैं।
हम तो
गोस्वामी भी नहीं हैं।
हमारी
मां तुम्हारे जैसी ही एक माई थी।
गरीब
बाल विधवा,
बामणी, बंगालन।
खास
बडे पण्डा जी के साले ने उनसे जबरदस्ती की।
हमें
का पता हमें तो बडे गुसाईं जी ने कही।
हमारी
मां हमें गौसाला के घूरे पे पटक के जमना में कूद गई।
तब से
हमें बडे ग़ुसाईं जी ने गोद पाला।
तुझे
देखा था न लगा ऐसी ही होगी हमारी अम्मा भी।
खपसूरत,
मेहनती।''
कह कर उस बावरे की भंग से कपाल पर चढी
आंखें
भर आईं थी।
उसी पल
उस बावरे से मोह हो गया जया को।
होली
के अगले ही दिन गोवर्धन पूजा के बाद मंदिर के अनाजों से भरे कुठार के बाहर
भरी दुपहरिया में मुख से पसीना पौंछते में उसकी धोती सरक आई थीउसने झट लपेट
ली।
तीन
माइयां अभी साथ ही में गेहूं बिनवा रही थीं पाकशाला का झूठा - बासी भोजन
बटोरने का लालच उन्हें पिछवाडे क़ूडेदान पर ले गया,
घूरे
पर।
बस
उससे यही तो नहीं होता,
न कभी
हुआ।
झूठी
पत्तलें चाटती विधवा ब्राह्मणियां उसे धरा का अभिशाप लगतीं।
ऐसी भी
क्या चटोरी जबान।
आकर
चटखारतीं
- ''
हाय,
क्या,
खस्ता
कचौडियां थीं।''
''
श्रीखण्ड में जाने क्या खुश्बू पडी थी हाऽह देख मुंह क्या महक रहा है।''
वह दाल
- भात से ही संतुष्ट थी पर काश उस दिन चली ही जाती उनके साथ।
उस
झूठन से बच कर यह झूठन !
''
बडी ग़रमी
है ना! माई ! ले इस अंगोछे से पौंछ ले मुंह। तू जब आंचल उठाती है,
छाती से तो देख यहां क्या हो जाता है।''
गन्दा सा इशारा कह कर सहसा प्रसादगृह के पण्डा रामबिलास चौबे प्रकट हो गये,
मंदिर के अनाज के बडे क़ुठार से लगे इस दालान में।
''
करा ली
खूब पूजा अपनी पवित्तरता की?
''
फिर
मिली कमला जिज्जी चैती माई ने भेजा था उसे उसके पास उस हादसे के बाद।
जाने
कैसे बीज दिये उसने,
लाल -
काले,
गरम
दूध से गटका दिये खडे - ख़डे।
अगले
दो तक जो रक्तपात हुआ कि बस अचेत तब भी कमला जिज्जी खुद आई तुलसीबाडी।
ग़ुड क़ा
शीरा खिला खिला कर बचा लिया।
होश
आने पर उसने अपनी एकमात्र पतली सोने की अंगूठी उसके हाथ पे धर दी।
''
ना रे
बाबा,
ये
शोब नहीं। हम ये काम करके कमाना नहीं चाहता। ये सेवा समझो। तुम मंदिर का
पण्डा लोगों का सेवा मुफत करो, हम तुम्हारा करेगा।''
कह
कर आंख दबा कर हंस दी थी।
फिर जब
- जब मिलती कहती
''
तेरी
यह इकहरी धोती ही जंजाल है।
तेरे
ऊपर तो यह टकला भी जंचता है।
कौन
कहेगा तू चालीस से पांच ऊपर है?
सुन री,
जया,
बत्तीस
दांतों के बीच कैसे एक जीभ जैसे सरीर को बचाएगी?
किसी
को फंसा के ब्याह करले।
जैसा
तुम्हारा भगवान जी सौलह सौ साठ गोपियों का पति वैसा ही तुम्हारे मंदिर का
ये पुजारी बाबा सारी बिधवाओं के पति।
याद है
री चैती वो पिछली बाडी क़ा सत्तर साल का हरामी गुंसाई कैसे हमसे कहता था
जुगल कर लोबिना जुगल कैसा भजन?
''
पर बात
बहुत फैल गई थी।
पाकशाला की नौकरी छूट गई।
माईयां
कतरा के निकलती।
पण्डा
जलती आंख से देखते।
कितने
दिन वह दिया बालती रही रंगजी की देहरी पे कि,
'' भगवान सच ही में नाथद्वारा गया हो बेनूमाधव,
भले ना लौट के आये वहीं बस जाये पर जिन्दा रहे।''
जाने
वाले लौटते कहां हैं?
न समय लौटता है, न लोग।
मौसम
लौटते हैं,
उनकी गंध लौटती हैं।
गीत
लौटते हैं और हवा की लहरों पर सवार हो स्मृतियां लौटा लाते हैं।
न जाने
कब जया अम्मा की आंखें मुंद गईं।
सपनों
में भी वही -
केसरिया रंग, फूलों की महक,
गेहूं के भुने बालों की गंध,
रंगजी के मंदिर की गलियों में बहता रंग - गुलाल।
उसकी
सफेद धोती किनार पे चिपका रंग का एक कतरा,
जुगलरत बरगद, एक सांवला -
सलोना बहरूपिये का मोहक रूप! एक आवाज
-
''
ओ
राधा
प्यारी! ''
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