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जीत की
बिब्बी जोर-जोर से चीखे जा रही थी।
''अरी!
ओ जीतो जल्दी आ, देख
सरदार
जी को
खांसी
लगी है।भीतर
से मुलठ्ठी-मिसरी ले आ।अरी!
पानी का गिलास भी लेती आइयो।नासपिट्टी
सारा दिन खेल में लगी रहे है।''
मैं
अपने कमरे में बैठी पढ रही थी।जीत
की बिब्बी की कर्कश पुकार ने मेरा ध्यान भंग कर दिया।अपनी
खिडक़ी से
झांककर
मैंने
उनके घर की ओर देखा।अपने
घर के बाहर कुर्सी पर बैठे अपने पति की पीठ को बिब्बी जोर-जोर से मल रही थी
कि जीत सारा सामान ले कर आ
पहुंची
थी।सरदारजी
अपने कोयले के गोदाम से कोयले की धूल-मिट्टी गले में चढाकर लौटे थे,
तभी
खांस
रहे थे।सरदारजी
की अधपकी दाढी व सिर के बाल सफेद देखकर उनके पकी उम्र का अंदाजा होता था।वहीं
उनकी बीवी के सारे बाल काले-स्याह व रंग भी काला था।उनकी
बडी बेटी जीत बारह -तेरह साल की व छोटी वंत उससे दो साल छोटी थी।बिब्बी
जम्पर और पेटीकोट पहनकर सारा दिन मोहल्ले में बेधडक़ घूमती थी।उसके
छोटे देवर का दो कमरों का घर था,सुना
था वही उन्हें अपने साथ रहने को लाया था।घर
के बाहर सीढियों पर बैठकर बिब्बी घर का सारा काम वहीं करती और आने -जाने
वालों से बतियाती रहती थी।उधर
सारा दिन रौनक ही लगी रहती थी।
मेन
सडक़ से भीतर की ओर जो गली मुडती थी,
उसमें एक ओर हमारा घर एक सिरे से आरम्भ होकर चौरस्ते के
कुंए
तक
उसका दूसरा सिरा था।
कुंए
के
तीनों ओर तीन रास्ते और थे।हमारे
घर की बालकनी पूरी गली में थी।सामने
खाली मैदान था।मैदान
के बाईं ओर पहला घर खडग़सिंग का,
दूसरा
जीत का,अगला
चाहरदिवारी वाला आहाता,खाली मैदान था।उसके
आगे बैंक वाले भैय्या का और आखिरी घर फुल्ली का था।मैदान
के दाहिनी ओर
कुंए
से
दूसरी गली थी।वहां
सामने
राव साहब रहते थे।उनका
एक बेटा हैदराबाद में था,
यह खाली मैदान उसी की जमीन थी।साथ
वाले घर में राठीजी और उनके ऊपर दुबेजी की विधवा व जवान बेटा रहते थे।शुक्लाजी
के घर ने मैदान का पिछला हिस्सा घेरा हुआ था।कुलमिलाकर
मोहल्ले में सभी प्यार मोहब्बत से रहते थे।
खडग़सिंग के घर दो वर्ष बीतते थे कि बच्चा हो जाता था।उन
दिनों जीत की बिब्बी उनका खूब ध्यान रखती थी।नहीं
तो आपस में दोनों लड पडतीं थीं।शुरू-शुरू
में तो मोहल्ले के लोग समझाने या बीच बचाव करने जाते थे,किन्तु
धीरे-धीरे सभी ने जाना छोड दिया।अब
सब को आदत हो गई थी।जीत
की बिब्बी कभी खडग़सिंग को दूर के रिश्ते का देवर बताती थी,तो
कभी दुश्मन बना लेती थी।उसकी
वही जाने ,पर
उनकी गाली -गलौज का शोर पढने नहीं देता था।जब
गालियों की बौछार शुरू होती,
तो हम
लोग अपनी खिडक़ियों के पाट कसकर बंद कर देते थे।कहीं
उन गालियों की गंदगी हवा में मिलकर हमारे घर में प्रवेश न कर जाए।असमंजस
में डूबे,
सब यह
सोचते थे कि इन्हें प्यार से रहते -रहते अचानक घर को अखाडा बनाने की क्यों
सूझती है।जीत
के बाबा और खडग़सिंग केशधारी सरदार थे,लेकिन
जो छोटा भाई इन्हें यहां
लाया
था और जिसके घर में जीत का परिवार रहता था,वो
केशधारी नहीं था।जीत
और वन्त कौर उसे प्रेम चाचा कहकर बुलाती थीं।मोहल्ले
के सारे बच्चों का भी वो प्रेम चाचा था।वो
किसी से भी बात नहीं करता था।सुबह
आठ बजे वो अपनी साईकिल चलाकर गन-फैक्टरी में काम करने करीब दस मील दूर जाता
था।
सांझ
ढले
शराब का पौव्वा लेकर घर लौटता था।जीत
बच्चों को शान से बताती थी,
''
मेरे बाबा और चाचा रात को इकठ्ठे बैठकर शराब पीते हैं,फिर
बिब्बी की दो-चार
गालियां
और
डांट
सुनकर
ही सोते हैं।''
यही
दिनचर्या थी उसकी।हां,इतवार
के दिन वो अपनी साईकिल को धोता और दुल्हन की तरह चमकाता था।वो
भी घर के बाहर सीढियों के पास अपनी मैदान से सटी गली में।
हमारा
बचपन इसी मैदान से जुडा है
।इस
मैदान में मोहल्ले के सारे बच्चे खेलते थे।
बैड-मिन्टन,
फुटबाल, छुआ-छुअल्ली,
पिट्टू, स्टापू,रस्सी-कूदना
से लेकर नदी-पहाड
और आँख-मिचौली
तक।हमने
एक बार
गुड्डा-गुडिया
का ब्याह भी यहीं रचाया था।मेरा
गुड्डा
और
फुल्ली की गुडिया।उसने
ईंटों के चूल्हे में आग जलाकर भात और आलू -बैंगन की रसेदार भाजी बनाकर
बारात का स्वागत किया था।सारे
मोहल्ले को न्यौता भेजा गया था।सब
बडों
ने
बच्चों का मन रखने को खाया भी और उस जमाने में अठन्नी -रूपया शगुन भी दिया
।सारा
हिसाब फुल्ली के भाई लल्लू के पास था।अगले
सात दिनों तक खूब मौज -मस्ती की थी सब बच्चों ने मिलकर।बैठक
लगती थी
कुंए
की जगत
पर।सिंधी
की दूकान से
टाफियां
लाकर
सब में बराबर
बांटी
जाती
थीं।
बेईमान
लल्लू! कुछ पहले से अपनी जेब में छिपा लेता था,बाद
में सब को चिढा-चिढाकर खाता था।जिससे
फुल्ली को बहुत शर्मिन्दगी लगती थी।फुल्ली
मेरी पक्की सहेली थी।छुटटी
के दिन कभी-कभार मैं जानबूझकर खाने के समय उनके घर जाती तो उसकी अम्मा मुझे
भी थाली में खाना परोस देती थी
।
वहीं
नीचे जमीन पर बैठकर मैं भी हाथ से खाने बैठ जाती,
तो वे एहसान मानकर कहतीं,''अरे-रे
बिटिया!हम गरीबन के घर मींज लेती हो! कित्ता नीका लागे है।''उस
थाली को याद करके,आज भी मेरे
मुंह
का
स्वाद बढिया हो जाता है
।
फुल्ली
की बडी बहन थी सीला दिदिया-जो चार पास करके घर बैठी थी।फुल्ली
सुबह दस बजे की गई पुत्री-पाठशाला से शाम
पांच
बजे
लौटती थी।मैं
अंग्रजी-स्कूल से तीन बजे आकर जल्दी होम-र्वक निपटाकर उसकी बाट जोहती थी।फुल्ली
के आने पर फिर स्टापू और पिठ्ठू खेला जाता था।सीला
दिदिया मुझे जब भी बुलाती,मैं
बिदक जाती क्या भाग ही जाती थी।वो
मुझे फूटी
आँख
नहीं
भाती थी।न
होता तो शुतुरर्मुग की तरह अपनी
आँखें
मींच
लेती थी मैं।मेरे
चेहरे पर घृणा के भाव आए बिना नहीं रहते थे,जिसका
कारण मैं किसी को बता नहीं पाती थी।
सन्
1955
के आसपास की बात है।जिस
घर मे अब जीत की बिब्बी शोर मचा रही थी,
उस घर में एक जवान जोडी रहने को आई थी।मर्द
गोरा चिट्टा गबरू जवान था,उसकी
घरवाली प्रकाशो बेहद ही सुन्दर,सुलझी हुई किसी
ऊंचे
घराने
से संबंधित जान पडती थी।वो
यदाकदा ही घर से बाहर निकलती थी।अपने
घर की खिडक़ी से वो जब भी बाहर
झांकती
,किसी
की भी नजर अपने तक
पहुंचने
से
पहले ही वो खिडक़ी की ओट में गुम हो जाती थी।मोहल्ले
के सभी बडे-बूढे व बच्चे उसकी एक झलक पाने को ललायित रहते थे।तब
मैं चौथी कक्षा में पढती थी।अपने
घर की बाल्कनी से मेरी दृष्टि भी बार-बार उसी ओर अटक जाती थी।वो
दोनो प्रत्येक शनिवार की रात नौ बजे सिनेमा का आखिरी शो देखने रिक्शे में
जाते थे।प्रकाशो
आधे
घूंघट
में
होती थी।मैं
नौ से पहले ही
कुंए
की जगत
पर जाकर बैठ जाती थी,और
मन की मुराद पा ही लेती थी।मेरे
मन की चाहत की भनक उसे हो गई थी,तभी
तो क्या देखती
हूं
एक
दिन-मैं बाल्कनी पर खडी थी,
उधर ही
मुंह
करके।वो
हाथ के इशारे से मुझे बुला रही थी।मैंने
अपने आसपास देखा,
वहां
और कोई
नहीं था।समझ
गई मैं कि यह इशारा मेरे लिए था।मेरी
तो
बांछे
खिल
गईं।मैं
निकल पडी अपनी मंजिल की ओर
. . . .
. . . . .
उसके
घर के बाहर
पहुंच
कर
मैंने बंद दरवाजे पर धीमे से दस्तक दी।जब
तक दरवाजा खुलता
,मुझे
लगामैं अलीबाबा की गुफा के द्वार पर खडी
हूं।दरवाजे
के खुलते ही जैसे अलीबाबा की
आँखें
हीरे-
जवाहरात देखकर फटी की फटी रह गईं थीं,ऐसा
ही कुछ हाल मेरा भी होने वाला है।''खुल
जा सिम-सिम,खुल जा सिम -सिम''
के बोल मेरे दिमाग में झनझना रहे थे।दरवाजा
खुलने में देर होने पर मैंने कुंडी जोर से खटकाई,तो
भीतर से किसी ने थोडे से पाट खोले और मेरी कलाई पकडक़र मुझे भीतर खींच लिया
व दरवाजे को फिर उडक़ा दिया।
गोरी-गोरी कलाइयों पर हरे
कांच
की
ढेरों चूडियां,
बदन पर
हरी छींट की कमीज
,सफेद
सलवार और लेस लगी सफेद चुन्नी सिर पर ओढे हुए -माथे पर बडी सी सिंदूर की
बिंदी---कुल मिलाकर वो फिल्मों की हीरोईन मीनाकुमारी जैसी सौन्दर्य की
प्रतिमा लगी।माथे
पर गिरती लेस चेहरे का नूर बाखूबी बढा रही थी।बहुत
सलीके से मुझे कुर्सी पर अपने सामने बैठाकर वो पूछने लगी-''बेबी
बुलाते हैं न तुमको?
मैंने
उसकी
पहुंचने
में
देखते हुए ''हां''
में सिर हिला दिया।
''यह
ड्रेस फूलोंवाली बहुत सुन्दर है
,किसने
बनाई झालर लगाकर?''
''दिल्ली
से हम तीनों बहनों की बनकर आई हैं''-मैंने
धीरे से जवाब दिया।
''आओ
मैं तुम्हारी चोटियां गूंथ दूं?-मेरे
खुले बालों को देखकर वो बोली।
''आज
नहीं,
फिर कभी''--मैंने
जवाब दिया।
इसी
तरह प्यारी-प्यारी
,मीठी
-मीठी बातों में लगे हम दोनो में दोस्ती हो गई।एक
- दूसरे का साथ दोनो को ही भला लगा।उसने
मुझे खाने को बिस्कुट दिए व मुझसे दोबारा आने का पक्का वादा लिया।खुशी
के मारे मेरे
पांव
जमीन
पर नहीं पड रहे थे।मैं
उडती हुई अपने घर
पहुंची
और
कमरे में आईने के सामने खडे हो कर
यूं
अपने
को देखा मानो कोई मोर्चा जीत कर लौटी
हूं।
धीरे-धीरे प्रकाशो के घर जाने का मुझे नशा सा हो गया था।मुझे
जब भी मौका मिलता,मैं
उसका सुन्दर रूप निहारने व उससे बतियाने अधिकार - पूर्वक उसके घर चली जाती
थी।
छोटी
बहन को मैंने शान से यह राज बताया तो उसने
माँ
को
चुगली लगा दी।माँ
ने
करारी
डांट
लगा दी
, ''तुम
बच्चों के साथ खेलो, उस ब्याही औरत के घर जाने
का तुम्हारा कोई काम नहीं क्या मालूम वो क्या सिखा दे,खबरदार
जो वहां
गई!''अब
माँ
को
कैसे बताऊं कि वो कितनी भली व फिल्मों की हीरोईन जैसी है।अब
तो मैं छिप-छिप कर जाने के मौके ढूंढती,
जिससे मेरी बहन न देख ले।एक
दिन मैं ज्योंही
पहुंची,
तो देखती
हूं
कि वो
रोए जा रही है।मैं
कश्मकश में थी कि उसे कैसे दिलासा दूं,
तभी मेरे चेहरे के भावों को पढक़र वो बोली कि तुम चिंतित
न होवो मुझे अपने पीहर की याद सता रही है, तभी
रो रही थी।उसने
बताया, ''सन्
1947 की बात है।विभाजन
के समय मैं तो अपने पति के पास हिन्दुस्तान में थी।उस
समय इंसान दरिंदा बना हुआ था।औरतों
को रावलपिंडी से निकालना मुमकिन नहीं था।
माँ,
बहन व भाभियों की इज्ज़त न लुट जाए,इसलिए
पिता जी ने सारे परिवार को घर में बंद करके ,
बाहर मिट्टी का तेल छिडक़कर आग लगा दी थी।वही
सब याद करके रो रही थी।''यह
सुनकर मेरा दिल भी दहल उठा था।मैं
छोटी थी,पर
उसका दर्द समझती थी।तभी
वो अपने दिल के दुखडे मुझसे
सांझा
करती
थी।हम
दोनों
सहेलियां
बन गईं
थीं,उम्र
से बेखबर . . . . . . . . .
परीक्षा के दिन करीब थे,हमें
माँ
पढाती
थी,इससे
उधर विशेष जाना नहीं हो पाता था।तत्पश्चात्
ग्रीष्मकालीन छुट्टियां
थीं।हम
दो माह के लिए दिल्ली जा रहे थे
,
अपने ननिहाल।माँ
से
बताकर मैं सब सहेलियों से विदा लेने चली।सर्वप्रथम
प्रकाशो के घर
पहुंची।वहां
भीतर
जाते ही देखती
हूं
कि
फुल्ली की सीला दिदिया आसन जमाए बैठी है।उसे
वहां
देखकर
मुझे कुछ अटपटा सा लगा।प्रकाशो
के सम्मुख वो फूहड ज़ान पडती थी।खैर,
मैंने प्रकाशो को दिल्ली जाने का बताया तो उसने प्यार
से मुझे गले लगाया और कहा, ''सदा खुश रहो''।मैं
जाने के जोश में चिडिया की भांति फुदकती वहां
से
भागी।जब
तक मैं सबसे मिलकर वापिस लौटी तो क्या देखती
हूं---प्रकाशो
के घर के पाट खोलकर एक जवान लडक़ा बाहर निकला और गली के अंधेरे में गुम हो
गया।अगले
ही पल सीला दिदिया भी झट से बाहर निकली और साथ वाले आहाते में घुस गई।मैं
वहीं कुछ कबाड व बोरियों के पीछे से आ रही थी,
जिससे वे दोनों ही मुझे देख नहीं पाए थे।मैं
शिशोपंज में डूबी अपनी सीढियां
चढ ग़ई।घर
पहुंचते
ही ध्यान बंट गया,व
अगली सुबह हम दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे।
दो
महीने मौज-मस्ती करके जब हम वापिस घर
पहुंचे,तो
मैं प्रकाशो से मिलने को उतावली हो उठी।मौका
ढूंढने लगी।दोपहर
को जब सब सो गए तो मैं उसके दरवाजे पर एक सुन्दर सी टोकरी उपहार देने
पहुंची।दस्तक
दी,
आशा के
विपरीत दरवाजा नहीं खुला।कुंडी
खटकाई,धीरे
से द्वार के आधे पाट खुले और मैं अधिकार-पूर्वक भीतर
पहुंच
गई।अति
उत्साहित जैसे ही मैंने बोलने को
मुंह
खोला
कि मेरी दृष्टि वहीं ठहर गई।हतप्रभ
सी ,
मेरा
मुंह
खुला
का खुला रह गया।प्रकाशो
का
मुंह
सूजा
हुआ था।आँखें
बाहर
निकली हुई थीं।नाक
व गालों पर खरोंचों के निशान थे।सौंदर्य
की प्रतिमा खंडित जान पडती थी।मेरा
मन हाहाकार कर उठा--रूलाई रोके नहीं रूक रही थी।प्रकाशो
को पहचानना कठिन जान पडता था।मेरे
कुछ कहने से पूर्व ही उसने रोते हुए
,जोर
की हिचकियां
लेते
हुए भींचकर मुझे अपने सीने से लिपटा लिया।बोली,
''कहां
चली गई
थी तूं बेबी?
मैं तो बरबाद हो गई।मेरी
सारी तपस्या मिट्टी में मिल गई।मैं
भरी दुनिया में अकेली हो गई।''
प्रकाशो का अपार स्नेह,अपनत्व
व अनुराग पाकर मैं अविभूत हो उठी।मुझे
लगा कि वास्तव में उसे छोडक़र जाना मेरी भूल थी।उसके
कोई औलाद नहीं थी,न
ही कोई भाई-बहन,शायद वो ऐसे ही किसी प्यार से
मुझे
बांधती
थी।अहम्
था कि वो मुझे अपना मानती थी।अपना
दुख-दर्द मुझ से
बांटतीथी।जो
भी रिश्ता वो मानती होगी,उस
रिश्ते का कोई नाम नहीं था।वो
दिल का सच्चा रिश्ता था।आज
भी मैं उसे किसी नाम की सीमा में
बांध कर
उसकी
पवित्रता व गहराई को नाप नहीं
पाऊंगी!
इतना जानती
हूं।
उसके
स्नेहालिंगन के पाश से बाहर निकलकर,
मैंने
पलकें उठाकर उससे ढेरों सवाल पूछ डाले।अपने
सिर की कसम दकर उसने मुझसे पक्का वादा लिया कि कभी भी किसी को यह बात पता न
चले ,
क्योंकि जो कुछ वो मुझे बताने जा रही थी वो किसी लडक़ी
की इज्जत से संबंधित है।--मालूम
हुआ,फुल्ली
की सीला दिदिया का किसी लडक़े से कुछ महीनों से इश्क चल रहा था।पहले
वो और सीला प्रकाशो के घर चिठ्ठी ले और दे जाते थे।प्रकाशो
उन दोनों प्रेमियों की मदद करके अपने को पुण्य का अधिकारी मानती थी।धीरे-धीरे
उन दोनों प्रेमियों ने अनुनय-विनय करके प्रकाशो के घर पर ही मिलने की आज्ञा
ले ली थी।वो
भीतर वाले कमरे में मिलते थे,और
प्रकाशो के पति के घर लौटने के पूर्व ही चले जाते थे।भला
प्रकाशो को इसमें क्या एतराज था,
सो उनका इश्क परवान चढता रहा।दोनो
की गाडी पटरी पर दौड रही थी,
कि अचानक एक दिन प्रकाशो के पति को पेट-दर्द उठा और वो
फैक्टरी से छुट्टी लेकर
सांझ
होते
ही घर लौट आया।सीला
का प्रेमी अभी आकर बैठा ही था
,कि
कुंडी खटकाने पर दरवाजा खुलते ही सीला के बदले प्रकाशो के पति भीतर आ गए।आते
ही आव देखा न ताव,
जूतों से मार-मार कर उस लडक़े की उन्होंने इतनी बुरी गत
बनाई कि वो किसी तरह जान बचाकर वहां
से
भागा।उन्हीं
जूतों से प्रकाशो को बेतहाशा पीटा,साथ
ही गालियों की बौछार बरसाई।
उसे उस
बेवफाई की सजा दी,
जो उसने नहीं की थी।
बाहर
सारा मोहल्ला इकठ्ठा हो गया था।तरह-तरह
की बातें हुईं,उन
सब में सीला भी थी।लेकिन
वो क्या कहती?
जितने
मुंह
उतनी
बातें,
किन्तु असलियत का पता न तब किसी को था न ही कभी बाद में
हुआ
उस दिन
से जुल्म सहने का सिलसिला जो आरम्भ हुआ,तो
अपनी चरम सीमा लांघकर
ही समाप्त हुआ।प्रकाशो
ने जीवन के आनेवाले पल मर-मर कर जीये थे।उस
दिन से प्रकाशो का पति शराब पीने लग गया।काम
से घर आकर वो पूरा पौव्वा शराब का पीता फिर नशे में उसे
गालियां
देता
और मारने लग जाता था।खाने
केर् बत्तन उस पर फेंक देता,जिससे
उसके चेहरे पर कट गया था।प्रकाशो
ने सारे जुल्म सहे,
पर अपना
मुंह
नहीं
खोला।अपना
वादा निभाया,वो
बता नहीं सकी कि वो निर्दोष है।उसका
पति उसे बेहद चाहता था,उसकी
बेवफाई
पर वो
तडप उठा था।अपनी
बाल्कनी पर खडे होकर सुनने से उसके बंद दरवाजे से सब आवाजें मुझे सुनाई
देती थीं।मैं
चैन से सो नहीं पाती थी
,आधी-आधी
रात तक उसके ख्यालों में खोई रहती थी।न
जाने फिर कब नींद की आगोश में जाकर मैं चैन पाती थी।एक
दिन मैं उससे मिलने के मोह को रोक नहीं पाई,बहुत
हिम्मत जुटाकर वहां
जा
पहुंची।
देखती
क्या
हूं--प्रकाशो
के माथे पर पट्टी बंधी
है,
चेहरे पर जख्म हो गए हैं।सारा
समय रोते रहने से
पहुंचने
के
नीचे काले गठ्ठे बन गए हैं।वो
पहचान में नहीं आ रही थी।हां
अलबत्ता,
सिंदूर की बडी बिन्दी वहीं थी,
अपनी लाली बिखेरती हुई।जैसे
सारा मोर्चा उसीने संभाल
रखा हो।उसने
गिला करते हुए पूछा-
''बेबी!
तुमने भी आना छोड दिया, क्यों?''
मैं जवाब देने के बदले उससे लिपट के रो पडी।क्या
कहती उससे कि मुझसे तुम्हारी दशा नहीं देखी जाती,
तभी मैं तुमसे दूर तुम्हारे लिए तडपती रहती
हूं।हम
दोनों एक -दूसरे से लिपटी कुछ देर यूं ही रोती रहीं।अचानक
उससे छूटकर मैं बाहर भागी
,सीधे
जाकर अपनी
माँ
को कहा
कि वो मेरे साथ चले और उसे देखे।मेरी
माँ
ने
मेरी तडप व चेहरे के भाव पढे तो वे उसी क्षण मेरे साथ हो लीं।माँ
को
देखते ही जैसे उसके सब्र का
बांध
ही टूट
गया।प्रकाशो
उनसे लिपटकर बिलख उठी।उनकी
गोद में सिर रखकर वो जी भरकर रोई
,मानो
बरसों की तडप चैन पा रही हो।माँ
और मैं
भी उसके दुख के साझीदार बन गए थे,
अविरल अश्रुधाराएं
बहाते
हुए।माँ
ने उसे
प्यार किया व दिलासा दी।मुझे
अपनी
माँ
पर
गर्व हुआ,एक
दुखी आत्मा का दर्द बांटा
था
उन्होने।मेरी
साथी पर स्नेह उडेला था।
अगली
सुबह इतवार था।हमारा
सारा परिवार इतवार को आर्य-समाज हवन करने जाता था।हम
सब ग्यारह -बारह बजे जब हवन करके घर वापिस आए तो प्रकाशो के घर के बाहर भीड
व शोर -शराबा सुनकर हम सब भी वहीं चले गए।प्रकाशो
का पति जोर-जोर से चीख रहा था।वो
भीतर से बंद दरवाजे को खोलने का प्रयत्न कर रहा था।पुराने
जमाने का मोटा दरवाजा व लोहे की मोटी सांकल--
न वो खुल रहा था,
न ही टूट रहा था।तभी
बैंकवाले भैया अपने घर से एक मोटा बांस
उठा
लाए।तीन-चार
लोगों ने अपना पूरा जोर लगाकर बांस
को
खिडक़ी पर जोर से मारा।जोर
लगने से दोनो पाट भीतर की ओर खुले।वहां
से जो
नजारा दिखा वो आज भी मेरे मनो- मस्तिष्क पर वैसा ही अंकित है।खिडक़ी
में लगी लोहे
की
सीखों के बीच से--- पंखे से बंधी
सफेद
चुन्नी ,
जिसके दूसरे सिरे से प्रकाशो की
बंधी
गर्दन
,बाईं
ओर लटका हुआ सिर व
आँखें
बाहर
को निकली हुई दिख रही थीं।यह
दृश्य देखते ही मैं पूरा जोर लगाकर चीखी और वहीं गिरकर बेहोश हो गई।
पिताजी
उठाकर मुझे घर ले आए।
दो
दिनों तक
मैं
बुखार से तपती रही व बेहोशी में बडबडाती रही।प्रकाशो
की आकस्मिक और अस्वभाविक मृत्यु का सदमा मुझे गहरा असर कर गया था।अपने
गर्भ में राज छिपाए चली गई थी --आत्म
-गर्भिता!
उसका
पति उसे बेहद चाहता था,रो-रोकर
उसने अपने बाल नोच डाले थे।वो
टूट गया था।उसके
टूटने का कारण था,पत्नि
की बेवफार्ऌ--जो एक भ्रम मात्र था।तभी
तो सीला दिदिया को देखते ही मुझे उसका
मुंह
नोचने
का मन करता था।अब
मैं कभी भी फुल्ली के घर खाने नहीं जाती थी।प्रकाशो
के घर ताला लग गया था।
एक दिन
स्कूल से लौटने पर
माँ
ने
बताया कि प्रकाशो का पति अपने बडे भाई- भाभी व बच्चों को लेकर लौट आया है।जीत
की बिब्बी ही तो उसकी भाभी थी।और
प्रकाशो का पति था-सब बच्चों का
'प्रेम
चाचा'!
उस घर
का दरवाजा सारा दिन खुला रहता था
।वहां
ऐसा अब
कुछ भी नहीं था जो ध्यान आकर्षित करे।वक्त
अपनी तेज रफ्तार से दौड रहा था।खडग्सिंग
की चार बेटियां
हो गई
थीं।सुना
कि सीला दिदिया की शादी की बात भी कहीं चल रही थी।मैं
अब दसवीं कक्षा में थी।एक
रात करीब नौ बजे बाहर शोर सुनकर हम सब बाल्कनी में निकल आए।खडग्सिंग
की
बेटियां
थाली
पर कडछुली मार-मार कर शोर मचा रहीं थीं,व
घूम-घूमकर नाच रहीं थीं।मालूम
हुआ खडग्सिंग के बेटा हुआ है।मोहल्ले
के सभी लोग जाकर उन्हें बधाई देने लगे।पलक
झपकते ही बाल - मंडली भी वहां
एकत्र
हो गई।तय
हुआ कि बडे लोगों को
मुंह
मीठा
करने दो ,
हम लोग
आँख
-मिचौली खेलते हैं।प्रेम-
चाचा अपनी सीढी क़े कोने में गुमसुम बैठा ख्यालों में गुम था।प्रकाशो
की मृत्यु के बाद उसे किसी ने हंसते-बोलते
नहीं देखा था।जब
भी उसे देखती मुझे लगता,
मैं
हूं
न उसके
गम की साथी!फिर भी उस चुप्पी का दंश मुझे भीतर तक चुभ जाता।
उधर
सारी बाल-मंडली छिपने के लिए मोहल्ले में फैल गई
।वन्त
कौर
आँखें
मीचकर
वहीं कोयले की बोरियों के ढेर पर बीस तक जोर -जोर से गिन रही थी।जब
तक वो ढूंढने जाती
,
मैं भागी-भागी राठीजी के घर के बगल की सीढियों से ऊपर
चढती चली गई।अंधेरे
में हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था।वहां
खुसपुस
की आवाजें आ रही थीं।चन्द्र
की कुछ अनछुई किरणें उस घोर तम
अंधेरे
को
चीरकर शायद स्वंय ही मैली होने आई थीं।तभी
तो उनके मध्दम प्रकाश में मैंने कलुषित सीला दिदिया और दुबे आंटी के बेटे
कमल को निर्वस्त्र एक -दूसरे के आलिंगन -पाश में बंधे
रति-क्रीडा में मग्न देखा।यह
देखते ही मैं उल्टे
पांव
गिरते
-पडते नीचे की ओर भागी।चुपचाप
जाकर बाल-मंडली में मिल गई।मेरी
छोटी बहन पकडी ग़ई थी,
अब
उसकी पारी थी।
सीला
दिदिया का इतना घिनौना रूप देखकर मुझे उल्टी आ रही थी।खेल
बीच में ही छोडक़र मैं घर को भागी।प्रकाशो
का त्याग मुझे निरर्थक लगा।कितनी
गहन ,गंभीर
और आत्मसम्मान से परिपूर्ण थी प्रकाशो।इस
निर्लज्ज की लाज को बचाने के लिए उसने प्रेम चाचा के प्यार व अपनी जान की
बलि दे दी थी।उजड
ग़या था प्रेम चाचा का नीड।ज़िस
भाभी को वो अपना घर बसाने को लाया था,
वो उसे रोटी खिलाकर राजी नहीं थी।वो
कई बार उसे
गालियां
देकर
घर से बाहर निकाल देती थी।उसी
के घर का दरवाजा उसी के लिए बंद कर देती थी।
एक दिन
प्रेम चाचा को मिरगी का दौरा पडा,
झाडने -फूंकने
वाले को बुलाया गया।उसने
उल्टी कराई,
जिसमें बालों का गुच्छा निकला।सारे
मोहल्ले में कानाफूसी हुई कि हो न हो ये जीत की बिब्बी ने कोई काला जादू
किया है।
खैर,तब
वो ठीक हो गया।अगले
दिन वो फिर गली में गिरा हुआ था।जीत
के बाबा ने जब उसे पकड क़र उठाना चाहा
,तो
वो वहीं निढाल सा पडा रहा।तभी
सुना कि वो कहीं से जहरीली शराब पी आया था व अपने दर्द समेटे मृत्यु की गोद
में चैन पा गया था।जीत
की बिब्बी दहाडे मार-मार कर उसकी लाश पर मगरमच्छ के आंसू
रो रही
थी,और
विलाप कर रही थी ,''अरे-रे ! तू चला गया न अपनी
प्रकासो के पास।अपना
घर हमारे हवाले कर गया,
क्या इसीलिए लाया था हमें यहां?''उसके
नकली रूदन को सब समझ रहे थे।लेकिन
प्रेम के लिए सब दुखी थे।पर
आज मुझे बहुत राहत महसूस हो रही थी।मेरी
पहुंचने
से चैन
के आंसू बह निकले।शायद
उस आत्मगर्भिता के लिए मेरी यही श्रध्दाञ्जलि थी।
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वीना विज |
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