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आत्मगर्भिता

जीत की बिब्बी जोर-जोर से चीखे जा रही थी''अरी! ओ जीतो जल्दी आ, देख सरदार जी को खांसी लगी हैभीतर से मुलठ्ठी-मिसरी ले आअरी! पानी का गिलास भी लेती आइयोनासपिट्टी सारा दिन खेल में लगी रहे है''

मैं अपने कमरे में बैठी पढ रही थीजीत की बिब्बी की कर्कश पुकार ने मेरा ध्यान भंग कर दियाअपनी खिडक़ी से झांककर मैंने उनके घर की ओर देखाअपने घर के बाहर कुर्सी पर बैठे अपने पति की पीठ को बिब्बी जोर-जोर से मल रही थी कि जीत सारा सामान ले कर आ पहुंची थीसरदारजी अपने कोयले के गोदाम से कोयले की धूल-मिट्टी गले में चढाकर लौटे थे, तभी खांस रहे थेसरदारजी की अधपकी दाढी व सिर के बाल सफेद देखकर उनके पकी उम्र का अंदाजा होता थावहीं उनकी बीवी के सारे बाल काले-स्याह व रंग भी काला थाउनकी बडी बेटी जीत बारह -तेरह साल की व छोटी वंत उससे दो साल छोटी थीबिब्बी जम्पर और पेटीकोट पहनकर सारा दिन मोहल्ले में बेधडक़ घूमती थीउसके छोटे देवर का दो कमरों का घर था,सुना था वही उन्हें अपने साथ रहने को लाया थाघर के बाहर सीढियों पर बैठकर बिब्बी घर का सारा काम वहीं करती और आने -जाने वालों से बतियाती रहती थीउधर सारा दिन रौनक ही लगी रहती थी

मेन सडक़ से भीतर की ओर जो गली मुडती थी, उसमें एक ओर हमारा घर एक सिरे से आरम्भ होकर चौरस्ते के कुंए तक उसका दूसरा सिरा था। कुंए के तीनों ओर तीन रास्ते और थेहमारे घर की बालकनी पूरी गली में थीसामने खाली मैदान थामैदान के बाईं ओर पहला घर खडग़सिंग का, दूसरा जीत का,अगला चाहरदिवारी वाला आहाता,खाली मैदान थाउसके आगे बैंक वाले भैय्या का और आखिरी घर फुल्ली का थामैदान के दाहिनी ओर कुंए से दूसरी गली थीहां सामने राव साहब रहते थेउनका एक बेटा हैदराबाद में था, यह खाली मैदान उसी की जमीन थीसाथ वाले घर में राठीजी और उनके ऊपर दुबेजी की विधवा व जवान बेटा रहते थेशुक्लाजी के घर ने मैदान का पिछला हिस्सा घेरा हुआ थाकुलमिलाकर मोहल्ले में सभी प्यार मोहब्बत से रहते थे

खडग़सिंग के घर दो वर्ष बीतते थे कि बच्चा हो जाता थाउन दिनों जीत की बिब्बी उनका खूब ध्यान रखती थीनहीं तो आपस में दोनों लड पडतीं थींशुरू-शुरू में तो मोहल्ले के लोग समझाने या बीच बचाव करने जाते थे,किन्तु धीरे-धीरे सभी ने जाना छोड दियाअब सब को आदत हो गई थीजीत की बिब्बी कभी खडग़सिंग को दूर के रिश्ते का देवर बताती थी,तो कभी दुश्मन बना लेती थीउसकी वही जाने ,पर उनकी गाली -गलौज का शोर पढने नहीं देता थाजब गालियों की बौछार शुरू होती, तो हम लोग अपनी खिडक़ियों के पाट कसकर बंद कर देते थेकहीं उन गालियों की गंदगी हवा में मिलकर हमारे घर में प्रवेश न कर जाएअसमंजस में डूबे, सब यह सोचते थे कि इन्हें प्यार से रहते -रहते अचानक घर को अखाडा बनाने की क्यों सूझती हैजीत के बाबा और खडग़सिंग केशधारी सरदार थे,लेकिन जो छोटा भाई इन्हें यहां लाया था और जिसके घर में जीत का परिवार रहता था,वो केशधारी नहीं थाजीत और वन्त कौर उसे प्रेम चाचा कहकर बुलाती थींमोहल्ले के सारे बच्चों का भी वो प्रेम चाचा थावो किसी से भी बात नहीं करता थासुबह आठ बजे वो अपनी साईकिल चलाकर गन-फैक्टरी में काम करने करीब दस मील दूर जाता था। सांझ ढले शराब का पौव्वा लेकर घर लौटता थाजीत बच्चों को शान से बताती थी, '' मेरे बाबा और चाचा रात को इकठ्ठे बैठकर शराब पीते हैं,फिर बिब्बी की दो-चार गालियां और डांट सुनकर ही सोते हैं'' यही दिनचर्या थी उसकी।हां,इतवार के दिन वो अपनी साईकिल को धोता और दुल्हन की तरह चमकाता थावो भी घर के बाहर सीढियों के पास अपनी मैदान से सटी गली में

हमारा बचपन इसी मैदान से जुडा है इस मैदान में मोहल्ले के सारे बच्चे खेलते थे बैड-मिन्टन, फुटबाल, छुआ-छुअल्ली, पिट्टू, स्टापू,रस्सी-कूदना से लेकर नदी-पहाड और आँख-मिचौली तकहमने एक बार गुड्डा-गुडिया का ब्याह भी यहीं रचाया थामेरा गुड्डा और फुल्ली की गुडियाउसने ईंटों के चूल्हे में आग जलाकर भात और आलू -बैंगन की रसेदार भाजी बनाकर बारात का स्वागत किया थासारे मोहल्ले को न्यौता भेजा गया थासब बडों ने बच्चों का मन रखने को खाया भी और उस जमाने में अठन्नी -रूपया शगुन भी दिया सारा हिसाब फुल्ली के भाई लल्लू के पास थाअगले सात दिनों तक खूब मौज -मस्ती की थी सब बच्चों ने मिलकरबैठक लगती थी कुंए की जगत परसिंधी की दूकान से टाफियां लाकर सब में बराबर बांटी जाती थीं बेईमान लल्लू! कुछ पहले से अपनी जेब में छिपा लेता था,बाद में सब को चिढा-चिढाकर खाता थाजिससे फुल्ली को बहुत शर्मिन्दगी लगती थीफुल्ली मेरी पक्की सहेली थीछुटटी के दिन कभी-कभार मैं जानबूझकर खाने के समय उनके घर जाती तो उसकी अम्मा मुझे भी थाली में खाना परोस देती थी वहीं नीचे जमीन पर बैठकर मैं भी हाथ से खाने बैठ जाती, तो वे एहसान मानकर कहतीं,''अरे-रे बिटिया!हम गरीबन के घर मींज लेती हो! कित्ता नीका लागे है''उस थाली को याद करके,आज भी मेरे मुंह का स्वाद बढिया हो जाता है

फुल्ली की बडी बहन थी सीला दिदिया-जो चार पास करके घर बैठी थीफुल्ली सुबह दस बजे की गई पुत्री-पाठशाला से शाम पांच बजे लौटती थीमैं अंग्रजी-स्कूल से तीन बजे आकर जल्दी होम-र्वक निपटाकर उसकी बाट जोहती थीफुल्ली के आने पर फिर स्टापू और पिठ्ठू खेला जाता थासीला दिदिया मुझे जब भी बुलाती,मैं बिदक जाती क्या भाग ही जाती थीवो मुझे फूटी आँख नहीं भाती थीन होता तो शुतुरर्मुग की तरह अपनी आँखें मींच लेती थी मैंमेरे चेहरे पर घृणा के भाव आए बिना नहीं रहते थे,जिसका कारण मैं किसी को बता नहीं पाती थी

सन् 1955 के आसपास की बात हैजिस घर मे अब जीत की बिब्बी शोर मचा रही थी, उस घर में एक जवान जोडी रहने को आई थीमर्द गोरा चिट्टा गबरू जवान था,उसकी घरवाली प्रकाशो बेहद ही सुन्दर,सुलझी हुई किसी ऊंचे घराने से संबंधित जान पडती थीवो यदाकदा ही घर से बाहर निकलती थीअपने घर की खिडक़ी से वो जब भी बाहर झांकती ,किसी की भी नजर अपने तक पहुंचने से पहले ही वो खिडक़ी की ओट में गुम हो जाती थीमोहल्ले के सभी बडे-बूढे व बच्चे उसकी एक झलक पाने को ललायित रहते थेतब मैं चौथी कक्षा में पढती थीअपने घर की बाल्कनी से मेरी दृष्टि भी बार-बार उसी ओर अटक जाती थीवो दोनो प्रत्येक शनिवार की रात नौ बजे सिनेमा का आखिरी शो देखने रिक्शे में जाते थेप्रकाशो आधे घूंघट में होती थीमैं नौ से पहले ही कुंए की जगत पर जाकर बैठ जाती थी,और मन की मुराद पा ही लेती थीमेरे मन की चाहत की भनक उसे हो गई थी,तभी तो क्या देखती हूं एक दिन-मैं बाल्कनी पर खडी थी, उधर ही मुंह करकेवो हाथ के इशारे से मुझे बुला रही थीमैंने अपने आसपास देखा, हां और कोई नहीं थासमझ गई मैं कि यह इशारा मेरे लिए थामेरी तो बांछे खिल गईंमैं निकल पडी अपनी मंजिल की ओर  . . . .  . . . . .

उसके घर के बाहर पहुंच कर मैंने बंद दरवाजे पर धीमे से दस्तक दीजब तक दरवाजा खुलता ,मुझे लगामैं अलीबाबा की गुफा के द्वार पर खडी हूं।दरवाजे के खुलते ही जैसे अलीबाबा की आँखें हीरे- जवाहरात देखकर फटी की फटी रह गईं थीं,ऐसा ही कुछ हाल मेरा भी होने वाला है''खुल जा सिम-सिम,खुल जा सिम -सिम'' के बोल मेरे दिमाग में झनझना रहे थेदरवाजा खुलने में देर होने पर मैंने कुंडी जोर से खटकाई,तो भीतर से किसी ने थोडे से पाट खोले और मेरी कलाई पकडक़र मुझे भीतर खींच लिया व दरवाजे को फिर उडक़ा दिया

गोरी-गोरी कलाइयों पर हरे कांच की ढेरों चूडियां, बदन पर हरी छींट की कमीज ,सफेद सलवार और लेस लगी सफेद चुन्नी सिर पर ओढे हुए -माथे पर बडी सी सिंदूर की बिंदी---कुल मिलाकर वो फिल्मों की हीरोईन मीनाकुमारी जैसी सौन्दर्य की प्रतिमा लगीमाथे पर गिरती लेस चेहरे का नूर बाखूबी बढा रही थीबहुत सलीके से मुझे कुर्सी पर अपने सामने बैठाकर वो पूछने लगी-''बेबी बुलाते हैं न तुमको?

मैंने उसकी पहुंचने में देखते हुए ''हां'' में सिर हिला दिया

''यह ड्रेस फूलोंवाली बहुत सुन्दर है ,किसने बनाई झालर लगाकर?''

''दिल्ली से हम तीनों बहनों की बनकर आई हैं''-मैंने धीरे से जवाब दिया।

''आओ मैं तुम्हारी चोटियां गूंथ दूं?-मेरे खुले बालों को देखकर वो बोली।

''आज नहीं, फिर कभी''--मैंने जवाब दिया।

इसी तरह प्यारी-प्यारी ,मीठी -मीठी बातों में लगे हम दोनो में दोस्ती हो गईएक - दूसरे का साथ दोनो को ही भला लगाउसने मुझे खाने को बिस्कुट दिए व मुझसे दोबारा आने का पक्का वादा लियाखुशी के मारे मेरे पांव जमीन पर नहीं पड रहे थेमैं उडती हुई अपने घर पहुंची और कमरे में आईने के सामने खडे हो कर यूं अपने को देखा मानो कोई मोर्चा जीत कर लौटी हूं।

धीरे-धीरे प्रकाशो के घर जाने का मुझे नशा सा हो गया थामुझे जब भी मौका मिलता,मैं उसका सुन्दर रूप निहारने व उससे बतियाने अधिकार - पूर्वक उसके घर चली जाती थी छोटी बहन को मैंने शान से यह राज बताया तो उसने माँ को चुगली लगा दी।माँ ने करारी डांट लगा दी , ''तुम बच्चों के साथ खेलो, उस ब्याही औरत के घर जाने का तुम्हारा कोई काम नहीं क्या मालूम वो क्या सिखा दे,खबरदार जो वहां गई!''अब माँ को कैसे बताऊं कि वो कितनी भली व फिल्मों की हीरोईन जैसी हैअब तो मैं छिप-छिप कर जाने के मौके ढूंढती, जिससे मेरी बहन न देख लेएक दिन मैं ज्योंही पहुंची, तो देखती हूं कि वो रोए जा रही हैमैं कश्मकश में थी कि उसे कैसे दिलासा दूं, तभी मेरे चेहरे के भावों को पढक़र वो बोली कि तुम चिंतित न होवो मुझे अपने पीहर की याद सता रही है, तभी रो रही थीउसने बताया, ''सन् 1947 की बात हैविभाजन के समय मैं तो अपने पति के पास हिन्दुस्तान में थीउस समय इंसान दरिंदा बना हुआ थाऔरतों को रावलपिंडी से निकालना मुमकिन नहीं था। माँ, बहन व भाभियों की इज्ज़त न लुट जाए,इसलिए पिता जी ने सारे परिवार को घर में बंद करके , बाहर मिट्टी का तेल छिडक़कर आग लगा दी थीवही सब याद करके रो रही थी''यह सुनकर मेरा दिल भी दहल उठा थामैं छोटी थी,पर उसका दर्द समझती थीतभी वो अपने दिल के दुखडे मुझसे सांझा करती थीहम दोनों सहेलियां बन गईं थीं,उम्र से बेखबर  . . . . . . . . .

परीक्षा के दिन करीब थे,हमें माँ पढाती थी,इससे उधर विशेष जाना नहीं हो पाता थातत्पश्चात् ग्रीष्मकालीन छुट्टियां थींहम दो माह के लिए दिल्ली जा रहे थे , अपने ननिहाल।माँ से बताकर मैं सब सहेलियों से विदा लेने चलीसर्वप्रथम प्रकाशो के घर पहुंची।हां भीतर जाते ही देखती हूं कि फुल्ली की सीला दिदिया आसन जमाए बैठी हैउसे वहां देखकर मुझे कुछ अटपटा सा लगाप्रकाशो के सम्मुख वो फूहड ज़ान पडती थीखैर, मैंने प्रकाशो को दिल्ली जाने का बताया तो उसने प्यार से मुझे गले लगाया और कहा, ''सदा खुश रहो''मैं जाने के जोश में चिडिया की भांति फुदकती वहां से भागीजब तक मैं सबसे मिलकर वापिस लौटी तो क्या देखती हूं---प्रकाशो के घर के पाट खोलकर एक जवान लडक़ा बाहर निकला और गली के अंधेरे में गुम हो गयाअगले ही पल सीला दिदिया भी झट से बाहर निकली और साथ वाले आहाते में घुस गईमैं वहीं कुछ कबाड व बोरियों के पीछे से आ रही थी, जिससे वे दोनों ही मुझे देख नहीं पाए थेमैं शिशोपंज में डूबी अपनी सीढियां चढ ग़ईघर पहुंचते ही ध्यान बंट गया,व अगली सुबह हम दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे

दो महीने मौज-मस्ती करके जब हम वापिस घर पहुंचे,तो मैं प्रकाशो से मिलने को उतावली हो उठीमौका ढूंढने लगीदोपहर को जब सब सो गए तो मैं उसके दरवाजे पर एक सुन्दर सी टोकरी उपहार देने पहुंची।दस्तक दी, आशा के विपरीत दरवाजा नहीं खुलाकुंडी खटकाई,धीरे से द्वार के आधे पाट खुले और मैं अधिकार-पूर्वक भीतर पहुंच गईअति उत्साहित जैसे ही मैंने बोलने को मुंह खोला कि मेरी दृष्टि वहीं ठहर गईहतप्रभ सी , मेरा मुंह खुला का खुला रह गयाप्रकाशो का मुंह सूजा हुआ था।आँखें बाहर निकली हुई थींनाक व गालों पर खरोंचों के निशान थेसौंदर्य की प्रतिमा खंडित जान पडती थीमेरा मन हाहाकार कर उठा--रूलाई रोके नहीं रूक रही थीप्रकाशो को पहचानना कठिन जान पडता थामेरे कुछ कहने से पूर्व ही उसने रोते हुए ,जोर की हिचकियां लेते हुए भींचकर मुझे अपने सीने से लिपटा लियाबोली, ''कहां चली गई थी तूं बेबी? मैं तो बरबाद हो गईमेरी सारी तपस्या मिट्टी में मिल गईमैं भरी दुनिया में अकेली हो गई''

प्रकाशो का अपार स्नेह,अपनत्व व अनुराग पाकर मैं अविभूत हो उठीमुझे लगा कि वास्तव में उसे छोडक़र जाना मेरी भूल थीउसके कोई औलाद नहीं थी,न ही कोई भाई-बहन,शायद वो ऐसे ही किसी प्यार से मुझे बांधती थीअहम् था कि वो मुझे अपना मानती थीअपना दुख-दर्द मुझ से बांटतीथीजो भी रिश्ता वो मानती होगी,उस रिश्ते का कोई नाम नहीं थावो दिल का सच्चा रिश्ता थाआज भी मैं उसे किसी नाम की सीमा में बांध कर उसकी पवित्रता व गहराई को नाप नहीं पाऊंगी! इतना जानती हूं।

उसके स्नेहालिंगन के पाश से बाहर निकलकर, मैंने पलकें उठाकर उससे ढेरों सवाल पूछ डालेअपने सिर की कसम दकर उसने मुझसे पक्का वादा लिया कि कभी भी किसी को यह बात पता न चले , क्योंकि जो कुछ वो मुझे बताने जा रही थी वो किसी लडक़ी की इज्जत से संबंधित है--मालूम हुआ,फुल्ली की सीला दिदिया का किसी लडक़े से कुछ महीनों से इश्क चल रहा थापहले वो और सीला प्रकाशो के घर चिठ्ठी ले और दे जाते थेप्रकाशो उन दोनों प्रेमियों की मदद करके अपने को पुण्य का अधिकारी मानती थीधीरे-धीरे उन दोनों प्रेमियों ने अनुनय-विनय करके प्रकाशो के घर पर ही मिलने की आज्ञा ले ली थीवो भीतर वाले कमरे में मिलते थे,और प्रकाशो के पति के घर लौटने के पूर्व ही चले जाते थेभला प्रकाशो को इसमें क्या एतराज था, सो उनका इश्क परवान चढता रहादोनो की गाडी पटरी पर दौड रही थी, कि अचानक एक दिन प्रकाशो के पति को पेट-दर्द उठा और वो फैक्टरी से छुट्टी लेकर सांझ होते ही घर लौट आयासीला का प्रेमी अभी आकर बैठा ही था ,कि कुंडी खटकाने पर दरवाजा खुलते ही सीला के बदले प्रकाशो के पति भीतर आ गएआते ही आव देखा न ताव, जूतों से मार-मार कर उस लडक़े की उन्होंने इतनी बुरी गत बनाई कि वो किसी तरह जान बचाकर वहां से भागाउन्हीं जूतों से प्रकाशो को बेतहाशा पीटा,साथ ही गालियों की बौछार बरसाई उसे उस बेवफाई की सजा दी, जो उसने नहीं की थी

बाहर सारा मोहल्ला इकठ्ठा हो गया थातरह-तरह की बातें हुईं,उन सब में सीला भी थीलेकिन वो क्या कहती? जितने मुंह उतनी बातें, किन्तु असलियत का पता न तब किसी को था न ही कभी बाद में हुआ

उस दिन से जुल्म सहने का सिलसिला जो आरम्भ हुआ,तो अपनी चरम सीमा लांघकर ही समाप्त हुआप्रकाशो ने जीवन के आनेवाले पल मर-मर कर जीये थेउस दिन से प्रकाशो का पति शराब पीने लग गयाकाम से घर आकर वो पूरा पौव्वा शराब का पीता फिर नशे में उसे गालियां देता और मारने लग जाता थाखाने केर् बत्तन उस पर फेंक देता,जिससे उसके चेहरे पर कट गया थाप्रकाशो ने सारे जुल्म सहे, पर अपना मुंह नहीं खोलाअपना वादा निभाया,वो बता नहीं सकी कि वो निर्दोष हैउसका पति उसे बेहद चाहता था,उसकी बेवफा पर वो तडप उठा थाअपनी बाल्कनी पर खडे होकर सुनने से उसके बंद दरवाजे से सब आवाजें मुझे सुनाई देती थींमैं चैन से सो नहीं पाती थी ,आधी-आधी रात तक उसके ख्यालों में खोई रहती थीन जाने फिर कब नींद की आगोश में जाकर मैं चैन पाती थीएक दिन मैं उससे मिलने के मोह को रोक नहीं पाई,बहुत हिम्मत जुटाकर वहां जा पहुंची।

देखती क्या हूं--प्रकाशो के माथे पर पट्टी बंधी है, चेहरे पर जख्म हो गए हैंसारा समय रोते रहने से पहुंचने के नीचे काले गठ्ठे बन गए हैंवो पहचान में नहीं आ रही थी।हां अलबत्ता, सिंदूर की बडी बिन्दी वहीं थी, अपनी लाली बिखेरती हुईजैसे सारा मोर्चा उसीने संभाल रखा होउसने गिला करते हुए पूछा- ''बेबी! तुमने भी आना छोड दिया, क्यों?'' मैं जवाब देने के बदले उससे लिपट के रो पडीक्या कहती उससे कि मुझसे तुम्हारी दशा नहीं देखी जाती, तभी मैं तुमसे दूर तुम्हारे लिए तडपती रहती हूं।हम दोनों एक -दूसरे से लिपटी कुछ देर यूं ही रोती रहींअचानक उससे छूटकर मैं बाहर भागी ,सीधे जाकर अपनी माँ को कहा कि वो मेरे साथ चले और उसे देखेमेरी माँ ने मेरी तडप व चेहरे के भाव पढे तो वे उसी क्षण मेरे साथ हो लीं।माँ को देखते ही जैसे उसके सब्र का बांध ही टूट गयाप्रकाशो उनसे लिपटकर बिलख उठीउनकी गोद में सिर रखकर वो जी भरकर रोई ,मानो बरसों की तडप चैन पा रही हो।माँ और मैं भी उसके दुख के साझीदार बन गए थे, अविरल अश्रुधाराएं बहाते हुए।माँ ने उसे प्यार किया व दिलासा दीमुझे अपनी माँ पर गर्व हुआ,एक दुखी आत्मा का दर्द बांटा था उन्होनेमेरी साथी पर स्नेह उडेला था

अगली सुबह इतवार थाहमारा सारा परिवार इतवार को आर्य-समाज हवन करने जाता थाहम सब ग्यारह -बारह बजे जब हवन करके घर वापिस आए तो प्रकाशो के घर के बाहर भीड व शोर -शराबा सुनकर हम सब भी वहीं चले गएप्रकाशो का पति जोर-जोर से चीख रहा थावो भीतर से बंद दरवाजे को खोलने का प्रयत्न कर रहा थापुराने जमाने का मोटा दरवाजा व लोहे की मोटी सांकल-- न वो खुल रहा था, न ही टूट रहा थातभी बैंकवाले भैया अपने घर से एक मोटा बांस उठा लाएतीन-चार लोगों ने अपना पूरा जोर लगाकर बांस को खिडक़ी पर जोर से माराजोर लगने से दोनो पाट भीतर की ओर खुलेहां से जो नजारा दिखा वो आज भी मेरे मनो- मस्तिष्क पर वैसा ही अंकित हैखिडक़ी में लगी लोहे

की सीखों के बीच से--- पंखे से बंधी सफेद चुन्नी , जिसके दूसरे सिरे से प्रकाशो की बंधी गर्दन ,बाईं ओर लटका हुआ सिर व आँखें बाहर को निकली हुई दिख रही थींयह दृश्य देखते ही मैं पूरा जोर लगाकर चीखी और वहीं गिरकर बेहोश हो गई पिताजी उठाकर मुझे घर ले आए दो दिनों तक

मैं बुखार से तपती रही व बेहोशी में बडबडाती रहीप्रकाशो की आकस्मिक और अस्वभाविक मृत्यु का सदमा मुझे गहरा असर कर गया थाअपने गर्भ में राज छिपाए चली गई थी --आत्म -गर्भिता!

उसका पति उसे बेहद चाहता था,रो-रोकर उसने अपने बाल नोच डाले थेवो टूट गया थाउसके टूटने का कारण था,पत्नि की बेवफार्ऌ--जो एक भ्रम मात्र थातभी तो सीला दिदिया को देखते ही मुझे उसका मुंह नोचने का मन करता थाअब मैं कभी भी फुल्ली के घर खाने नहीं जाती थीप्रकाशो के घर ताला लग गया था एक दिन स्कूल से लौटने पर माँ ने बताया कि प्रकाशो का पति अपने बडे भाई- भाभी व बच्चों को लेकर लौट आया हैजीत की बिब्बी ही तो उसकी भाभी थीऔर प्रकाशो का पति था-सब बच्चों का 'प्रेम चाचा'!

उस घर का दरवाजा सारा दिन खुला रहता था हां ऐसा अब कुछ भी नहीं था जो ध्यान आकर्षित करेवक्त अपनी तेज रफ्तार से दौड रहा थाखडग्सिंग की चार बेटियां हो गई थींसुना कि सीला दिदिया की शादी की बात भी कहीं चल रही थीमैं अब दसवीं कक्षा में थीएक रात करीब नौ बजे बाहर शोर सुनकर हम सब बाल्कनी में निकल आएखडग्सिंग की बेटियां थाली पर कडछुली मार-मार कर शोर मचा रहीं थीं,व घूम-घूमकर नाच रहीं थींमालूम हुआ खडग्सिंग के बेटा हुआ हैमोहल्ले के सभी लोग जाकर उन्हें बधाई देने लगेपलक झपकते ही बाल - मंडली भी वहां एकत्र हो गईतय हुआ कि बडे लोगों को मुंह मीठा करने दो , हम लोग आँख -मिचौली खेलते हैंप्रेम- चाचा अपनी सीढी क़े कोने में गुमसुम बैठा ख्यालों में गुम थाप्रकाशो की मृत्यु के बाद उसे किसी ने हंसते-बोलते नहीं देखा थाजब भी उसे देखती मुझे लगता, मैं हूं न उसके गम की साथी!फिर भी उस चुप्पी का दंश मुझे भीतर तक चुभ जाता

उधर सारी बाल-मंडली छिपने के लिए मोहल्ले में फैल गई वन्त कौर आँखें मीचकर वहीं कोयले की बोरियों के ढेर पर बीस तक जोर -जोर से गिन रही थीजब तक वो ढूंढने जाती , मैं भागी-भागी राठीजी के घर के बगल की सीढियों से ऊपर चढती चली गईंधेरे में हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा थाहां खुसपुस की आवाजें आ रही थींचन्द्र की कुछ अनछुई किरणें उस घोर तम अंधेरे को चीरकर शायद स्वंय ही मैली होने आई थींतभी तो उनके मध्दम प्रकाश में मैंने कलुषित सीला दिदिया और दुबे आंटी के बेटे कमल को निर्वस्त्र एक -दूसरे के आलिंगन -पाश में बंधे रति-क्रीडा में मग्न देखायह देखते ही मैं उल्टे पांव गिरते -पडते नीचे की ओर भागीचुपचाप जाकर बाल-मंडली में मिल गईमेरी छोटी बहन पकडी ग़ई थी, अब उसकी पारी थी

सीला दिदिया का इतना घिनौना रूप देखकर मुझे उल्टी आ रही थीखेल बीच में ही छोडक़र मैं घर को भागीप्रकाशो का त्याग मुझे निरर्थक लगाकितनी गहन ,गंभीर और आत्मसम्मान से परिपूर्ण थी प्रकाशोइस निर्लज्ज की लाज को बचाने के लिए उसने प्रेम चाचा के प्यार व अपनी जान की बलि दे दी थीउजड ग़या था प्रेम चाचा का नीडज़िस भाभी को वो अपना घर बसाने को लाया था, वो उसे रोटी खिलाकर राजी नहीं थीवो कई बार उसे गालियां देकर घर से बाहर निकाल देती थीउसी के घर का दरवाजा उसी के लिए बंद कर देती थी

एक दिन प्रेम चाचा को मिरगी का दौरा पडा, झाडने -फूंकने वाले को बुलाया गयाउसने उल्टी कराई, जिसमें बालों का गुच्छा निकलासारे मोहल्ले में कानाफूसी हुई कि हो न हो ये जीत की बिब्बी ने कोई काला जादू किया है खैर,तब वो ठीक हो गयाअगले दिन वो फिर गली में गिरा हुआ थाजीत के बाबा ने जब उसे पकड क़र उठाना चाहा ,तो वो वहीं निढाल सा पडा रहातभी सुना कि वो कहीं से जहरीली शराब पी आया था व अपने दर्द समेटे मृत्यु की गोद में चैन पा गया थाजीत की बिब्बी दहाडे मार-मार कर उसकी लाश पर मगरमच्छ के आंसू रो रही थी,और विलाप कर रही थी ,''अरे-रे ! तू चला गया न अपनी प्रकासो के पासअपना घर हमारे हवाले कर गया, क्या इसीलिए लाया था हमें यहां?''उसके नकली रूदन को सब समझ रहे थेलेकिन प्रेम के लिए सब दुखी थेपर आज मुझे बहुत राहत महसूस हो रही थीमेरी पहुंचने से चैन के आंसू बह निकलेशायद उस आत्मगर्भिता के लिए मेरी यही श्रध्दाञ्जलि थी

- वीना विज
15
अप्रेल 2004
 

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