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तरन्नुम मुझसे कितनी अलग है
भाग - 2

रात को मैंने खाना नहीं बनाया क्योंकि मुझे भूख नहीं थी और राहुल रात को खाते ही नहीं थे। हम दोनों टी.वी. देखने लगे। अचानक मैं बच्चों की तरह जिद्द करके कहने लगी-"मुझे तो आपके साथ पेप्सी पीनी है।"
"इतनी सर्दी में पेप्सी कोई पीता भी है? वैसे भी पेप्सी कोई अच्छी चीज नहीं है। इससे अच्छा तो एक-एक कप कॉफी बना लाओ", राहुल ने कहा।
"उँह! अभी तो आप कह रहे थे कि आप मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं, तो क्या मेरे साथ बैठकर पेप्सी नहीं पी सकते? एक दिन में कौन-सी आपकी सेहत बिगड़ जाएगी?" मैंने थोड़ा-सा रूठते हुए कहा।
"अच्छा बाबा! ले आओ। लगता है कि तुम मुझे जुकाम करवाकर ही दम लोगी", उन्होने हँसते हुए कहा।

मैं दौड़ी-दौड़ी रसोई में गई। उस रात मैंने राहुल से बहुत कुछ पाना था और उनको बहुत कुछ देना था। परन्तु यह सब तभी हो सकता था जब वे अपने बारे में बहुत कुछ भुला देते। यही सोचकर मैंने उनके गिलास में पेप्सी डालकर उसमे एक नशे की गोली मिला दी। उनके पास जाने से पहले मैंने वो नाईटी पहनी जो हमारी शादी से पहले मेरी छोटी ननद ने बडे ही चाव से मेरे लिए खरीदी थी। मैंने स्वयं को आईने में निहारा। मैं बहुत ही सुन्दर लग रही थी। मैंने अपनी सुन्दरता को पहली बार महसूस किया। यह महसूस करते हुए मैं राहुल के पास चली गई। जब मैंने उनकी तरफ गिलास किया तो उन्होने मेरी तरफ नजर उठाकर देखा। वे कुछ देर तक मेरी तरफ देखते ही रह गए। फिर उन्होने नजरें झुका लीं और पेप्सी पीने लगे। पेप्सी पीने के बाद भी उन्होंने नजरें झुकाए रखीं। मैंने उनका चेहरा अपने हाथों में लिया और उनको आँखों ही आँखों में सम्मोहित कर लिया। उसके बाद तो वही हुआ जो मैं चाहती थी और हम दोनों सदा के लिए एक हो गए। हम पर अलौकिक आनन्द की वर्षा हो रही थी और हम दोनों उस वर्षा में भीग रहे थे। उस रात मुझे पूरी तरह आभास हो गया कि राहुल किसी भी तरह से 'विकलांग` नहीं हैं।

सुबह मेरी आँख खुली तो मैंने खुद को राहुल के सीने पर सिर रखकर सोते हुए पाया। मैं उठी, कपड़े पहने और वो सारा सामान वापस अपनी जगह रख दिया जो मैंने स्कूल में रहने के लिए बांधा था। उसके बाद राहुल के सिर में बडे ही प्यार से हाथ फेरते हुए उनको जगाया। उनको जागते ही रात की सारी बात याद आ गई। वे रोने लग गए। वे एक ही बात बार-बार कह रहे थे-"मैं तुमको दिया हुआ वचन निभा नहीं पाया। मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है।" यह सब मुझसे देखा नहीं गया। मेरा भी दिल भर आया। परन्तु मैंने हिम्मत करके राहुल का सिर अपनी गोद में टिका लिया, उनके आँसूं पोंछे और कहा-"आपने कोई अन्याय नहीं किया बल्कि आपसे प्यार की चाहत रखने वाले को प्यार देकर न्याय किया है। मैं खुद को सौभाग्यशाली समझती हूँ कि मैंने एक ऐसे पुरुष से प्यार किया है जो मुझे निस्वार्थ प्यार करता है। मैंने एक ऐसे पुरुष से प्यार किया है जिसने अपने पुरुषार्थ से ही सब-कुछ प्राप्त किया है। मैंने एक ऐसे पुरुष से प्यार किया है जिसने कभी समाज से कुछ नहीं छीना जबकि समाज ने कदम-कदम पर बाधा खड़ा की। मैं इस समाज का अंग नहीं बनना चाहती।" यह कहकर मैंने तलाक के कागज फाड़ दिए और राहुल को अपनी बाँहों में भर लिया। कुछ देर बाद मुझे ध्यान आया कि राहुल को ऑफिस भी जाना था। मैंने उनके सिर में हाथ फेरते हुए कहा-"काश! आज छुट्टी होती तो मैं आपको ऐसे ही गले से लगाए रखती। लेकिन जनाब, आज तो ऑफिस जाना ही होगा। फिर कभी...। चलिए जल्दी-सी तैयार हो जाइये, मैं खाना बनाने जा रही हूँ।"
मैं खाना बनाकर कमरे में गई तो वे कपड़े पहन रहे थे। एक बार तो मैं उनकी मदद करने को हुई परन्तु यह सोचकर रुक गई कि कहीं यह मदद उन्हें अंदर से हीन न बना दे। अब तो मेरे जीवन का एक ही उद्देश्य बन गया कि उनकी उस सोच में कभी कोई बदलाव न आए जिस सोच के कारण उन्होने खुद को किसी से कम नहीं समझा।

खाना खाने के बाद राहुल ने मुझे आवाज दी। मैं आ गई तो उन्होने मेरी बाँह पकड़कर मुझे अपनी तरफ खींच लिया और मेरे गालों को चूम लिया। वे तो उसके बाद ऑफिस चले गए परन्तु मैं फूल की डाली-सी झूमती रह गई। कुछ देर इसी तरह प्यार के खुमार में डूबी रही। अचानक दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो मम्मी-पापा थे। मैंने सिर पर आँचल किया और उनके चरण स्पर्श किए। इस पर मम्मी-पापा हैरान रह गए क्योंकि शादी के बाद पहली बार मैंने एक बहु की तरह उन्हें सम्मान दिया था। अंदर आते ही मम्मी ने पूछा-"तुम अभी तक स्कूल में ज्वॉइन करने क्यों नहीं गई? कहीं हमारा इंतजार तो नहीं कर रही थी? अरे यहाँ का ध्यान रखने के लिए नौकर था। तुम्हें तो आज वहाँ स्कूल में अपना कमरा ठीक करवाकर सामान रखना था। अच्छी पागल लड़की है! चलो अब जल्दी-सी तैयार हो जाओ। मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। तुम्हारा सारा सामान ठीक ढंग से रखवा दूँगी।"
"मम्मी, मैं कहीं नहीं जाऊँगी। मैं राहुल से प्यार करने लगी हूँ। मुझसे अब और कुछ न पूछिए, बस मुझे आपकी ममता से अलग मत कीजिए....।" यह कहने के बाद मेरा दिल भर आया और मैं रोने लगी। मम्मी ने मुझे गले से लगा लिया और बडे ही प्यार से मेरे गालों को चूमकर इतना ही कहा-"जैसी तुम्हारी मर्जी।" मुझे मेरी वही माँ मिल गई थी जिसे मैंने बचपन में खो दिया था। इस बीच पापा थोड़े चिंतित-से लग रहे थे। जब मम्मी दूसरे कमरे में गई तो पापा ने मुझसे पूछा कि कहीं राहुल ने रुकने के लिए मजबूर तो नहीं किया। यह पूछने पर मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा परन्तु फिर मुझे अहसास हुआ कि पापा के उस सवाल में उनका मेरे लिए प्यारा-सा वात्सल्य था। मैंने पापा से कहा-"क्या आपको ऐसा लगता है कि वो किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचा सकते हैं?" पापा कुछ नहीं बोले। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और चल दिए।

उस दिन घर में चारों तरफ खुशी ही खुशी छा गई। जब मम्मी ने मेरी दोनों ननदों को फोन करके सब बताया तो दोनों ननदें खुशी से चहक उठीं। छोटी ननद तो उसी दिन शाम को आ गई क्योंकि वह राहुल की सबसे लाडली थी। आते ही मुझे गले से लगा लिया और कहने लगी-"आज मैं आपके लिए कुछ भी नहीं लाई बल्कि अपनी नई भाभी से बहुत सारे गिफ्ट ले जाऊँगी।" कहते हुए उसकी आँखें भर आईं।
"तो फिर चलो अभी बाजार चलते हैं। मैं तुम्हारे भैया को फोन करके ऑफिस से जल्दी आने के लिए कह देती हूँ", मैंने उसके आँसूं पोंछते हुए कहा। उसके बाद मैंने उन्हें बुला लिया। इस प्रकार अधिकार से उनको बुलाना मुझे बहुत अच्छा लगा। राहुल के साथ मैं पहली बार बाजार गई थी। मैं उनके साथ रहकर खरीददारी करना चाहती थी परन्तु वे हम दोनों को बाजार में छोड़कर कहीं चले गए। जब हम घर वापस आए तो पता चला कि वे हम दोनों के लिए साड़ी खरीदने गए थे। छोटी ननद खुशी से उछल पड़ी और मैं मन ही मन में शरमा गई।

कहते हैं कि जब कोई नारी माँ बनती है तो उसका पुनर्जन्म होता है। मैंने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया जब तरन्नुम मेरे गर्भ में आई। गर्भ में एक नए अस्तित्व का स्पर्श कितना सुखदायी होता है यह बताना मुश्किल है। और जब मैंने घर में सभी को बताया तो सभी की आँखों में खुशी के आँसूं छलक पड़े, पापा की भी। राहुल तो मुझसे गले लगकर रोने ही लग गए। बडी मुश्किल से चुप कराया मैंने उन्हें। परन्तु उनको चुप कराते-कराते मेरे गालों पर भी आँसूं लुड़क आए। मैंने राहुल का हाथ थामा और कहा-"आपने मुझे नई जिंदगी दी है, मैंने आपको नई जिंदगी दी है और भगवान ने हम दोनों को नई जिंदगी दी है। अब हमें इस नई जिंदगी को वात्सल्य और ममता से सजाना है।"

पता नहीं कैसे राहुल को यह विश्वास था कि हमारी संतान तरन्नुम ही होनी थी। जिस दिन मैंने उन्हें उनके पापा बनने के बारे में बताया उसी दिन उन्होंने कहा-"हमारे घर में छोटी-सी, प्यारी-सी मासूम गुडिया आएगी और मैं उसका नाम 'तरन्नुम` रखूँगा।" उसी दिन से राहुल की जिंदगी बदल गई। अब तो रोजाना वे ऑफिस से आते हुए तरन्नुम के लिए कपड़े खिलौने आदि ले आते थे। जब तरन्नुम ने जन्म लिया उस समय तक तो तरन्नुम के कपड़ों व खिलौनों की दो-तीन अलमारी भर गई थी। मम्मी उन्हें बार-बार कहती कि अभी से इतना सामान का क्या करोगे, परन्तु वे कहाँ मानने वाले थे। अब तो वे टी.वी. पर बच्चों की कार्टून फिल्में भी देखने लगे थे। कभी-कभी मुझे लगता था कि जैसे उनका बचपन लौट आया हो। जब मैं डॉक्टर से चेकअप कराने जाती तो राहुल को जरूर साथ ले जाती क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि इन पलों को जीने में उनकी कोई भी विवशता बाधा बने। वे डॉक्टर से बार-बार पूछते-"कोई घबराने वाली बात तो नहीं है ना? कितने दिन और हैं तरन्नुम के आने में?" मुझे उनकी घबराहट और उतावलापन देखकर हँसी आ जाती थी। सचमुच जीवन के ये पल अनमोल होते हैं और जो इन पलों को भरपूर जीता है वह बहुत भाग्यशाली होता है।

आखिर वह दिन आ गया जब नन्ही तरन्नुम हम सब के सामने थी। पापा ने हस्पताल में सबको मिठाई बाँटी। पापा को पहली बार इतना खुश देखा था मैंने। राहुल ने जब तरन्नुम को पहली बार देखा तो उनका मन तरन्नुम को छूने को हुआ परन्तु उन्हें डर लग रहा था। इस पर मैंने उनका हाथ पकड़ा और तरन्नुम के सिर पर रखा। अब उनका हाथ तरन्नुम के सिर पर था, आँखें बंद थीं और बंद आँखों से आँसूं बह रहे थे। ये आँसूं नहीं थे बल्कि भावनाओं की नदी थी और हस्पताल के उस कमरे में उस नदी में हम सभी बह रहे थे।

दो-तीन दिन बाद मुझे हस्पताल से छुट्टी मिल गई। तरन्नुम के आने की खुशी में पापा ने पार्टी दी। उसी पार्टी में मैंने समाज का वह रूप देखा जिसे राहुल बहुत पहले ही देख चुके थे। उस समय जो भी राहुल और मुझे मम्मी-पापा बनने की बधाई देने आते उनमें से ज्यादातर बस एक ही बात कहते-"भई राहुल बधाई हो, तुम पापा बन गए। तुमने तो कमाल कर दिया।" उन सब की बातों में एक घृणित उपहास था। मुझे उस समय बहुत गुस्सा आ गया। मैं उन सबको कुछ कहने ही वाली थी परन्तु राहुल ने इशारा करके मुझे चुप करा दिया। उस पार्टी में राहुल के कुछ कवि मित्र और अन्य साहित्यकार भी आए हुए थे। उन सबने तरन्नुम को बडे ही प्यार से आर्शीवाद दिया और हमें शुभकामनाएँ दीं। मैं उनको देखकर यह सोचने लगी कि सचमुच कवियों और साहित्यकारों का हृदय बहुत विशाल होता है। न कोई पुर्वाग्रह न कोई घृणा। उनके हृदय में तो भावनाएँ ही होती हैं। रात को सोने से पहले मुझे कुछ उदास देखकर राहुल ने मेरी उदासी का कारण पूछा तो मैंने कहा-"जब कुछ लोग आपका मजाक उड़ा रहे थे तो मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा था और आपने भी मुझे उस समय कुछ भी बोलने नहीं दिया।"
"संचिता, तुम कुछ कहकर लोगों को बोलने से तो रोक सकती हो लेकिन कुछ सोचने से नहीं रोक सकती। तुमने तो आज ही इस स्थिति का सामना किया है, मैं तो जन्म से ही इस स्थिति का सामना कर रहा हूँ। आज भी मैं जब बाजार या किसी और जगह जाता हूँ तो मुझे लोग बहुत ही अजीब निगाहों से देखते हैं। पहले-पहले तो बहुत दुख होता था लेकिन अब नहीं। समाज में अधिकतर मुझे विकलांग ही सोचेंगे। उनके इस दृष्टिकोण के कारण हम अपने आत्मविश्वास में कमी क्यों आने दें? क्यों हम जीवन के सौन्दर्य को महसूस करने से चूकें? अब देखो, तरन्नुम तुम्हारे स्तनों से दूध पी रही है, क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम ममता के इस सौन्दर्य को महसूस करने से चूक गई", चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान लाते हुए राहुल ने समझाया। मुझे भी अहसास हुआ कि मैं सचमुच जीवन के इस सौन्दर्य से बिना ही बात विमुख हो गई थी।

तरन्नुम के आने से राहुल की तो जिंदगी ही बदल गई। ऑफिस जाने से पहले और ऑफिस से आने के बाद वे बस तरन्नुम के ही साथ खेलते रहते थे। ऑफिस से भी दो-तीन बार फोन करके तरन्नुम के बारे में पूछते रहते थे। छुट्टी के दिन वे एक पल के लिए भी तरन्नुम को अपनी नजरों से ओझल नहीं होने देते थे। मैं जब तरन्नुम को नहलाने ले जाती थी तो राहुल भी अपनी व्हील-चेयर को धीरे-धीरे चलाते हुए मेरे साथ-साथ हो लेते, बडे ही ध्यान से देखते रहते और जब मैं तरन्नुम को नहलाकर उसको तौलिये में लपेटकर राहुल की गोद में लिटा देती तो उनकी खुशी की कोई सीमा नहीं रहती।

जैसे-जैसे तरन्नुम बडी होती गई, वह राहुल की उतनी ही लाडली बनती गई। जब वह अपने पापा को शाम को कार से उतरते हुए देखती तो उनको व्हील-चेयर में बिठाने से पहले ही उनकी गोदी में आने के लिए वह उतावली हो उठती। राहुल तो कई बार तरन्नुम को गोदी में लिए हुए कपड़े भी बदलना भूल जाते थे। जब तरन्नुम ने चलना शुरू किया तो वह खुद ही राहुल के पास दौड़ी-दौड़ी चली जाती थी। जब राहुल तरन्नुम के साथ खेलते थे तो उनमें और एक बच्चे में फर्क करना बहुत मुश्किल हो जाता था। सचमुच राहुल को तरन्नुम के रूप में एक खिलौना मिल गया।

चार-पाँच साल बाद तरन्नुम स्कूल जाने लगी थी। मैंने तरन्नुम की पढ़ाई की सारी जिम्मेदारी राहुल को सौंप दी। राहुल ने भी अपनी इस जिम्मेदारी को बहुत अच्छी तरह निभाया। दो-तीन सालों में ही तरन्नुम पढ़ाई के प्रति इतनी गम्भीर हो गई कि मैं कभी-कभी हैरान रह जाती। परन्तु राहुल के साथ खेलते समय उसका बचपन लौट आता। कई बार तो खेलते समय दोनों की लड़ाई हो जाती और आपस में बच्चों की तरह रूठ जाते। फिर राहुल चुपचाप अचानक तरन्नुम को गुदगुदी करने लगते तो तरन्नुम खिलखिला उठती और अपने पापा के गालों को चूम लेती। रूठने-मनाने का यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा।

हमारा घर वायुसेना के स्टेशन के पास है। घर के ऊपर से लड़ाकु विमान जाते रहते हैं। तरन्नुम को बहुत अच्छे लगते थे ये लड़ाकु विमान। जब से उसने चलना सीखा तभी से वह इन्हें देखने के लिए बाहर आँगन में दौड़ी चली आती थी और आँखों से ओझल होने तक इन्हें देखती रहती थी। इस तरह सात-आठ सालों तक इन विमानों को देखते रहने से तरन्नुम के मन में इन लड़ाकु विमानों का पायलट बनने की इच्छा जाग उठी। जब राहुल को तरन्नुम ने इस बारे में बताया तो उन्होंने स्वयं को बहुत ही गौरवान्वित महसूस किया। उन्होंने तरन्नुम को गले से लगाते हुए कहा-"मेरी प्यारी बिटिया मैं तुम्हें फाइटर पायलट जरूर बनाऊँगा।" मैं तरन्नुम के फाइटर पायलट बनने के फैसले से एक बार तो घबरा ही गई थी। क्या करूँ माँ हूँ ना। परन्तु तरन्नुम की खुशी में ही मेरी खुशी थी। और फिर मुझे राहुल पर भी पूरा विश्वास था। इसीलिए मैंने अपनी मौन सहमति दे दी।

तरन्नुम ने अपने सपने को साकार करने करने के लिए दिन-रात मेहनत करनी शुरू कर दी। तरन्नुम इस मेहनत में राहुल ने उसका ऐसे ही साथ दिया जैसे उन्होंने मेरा साथ दिया था बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा। अपने पापा की इस लगन को देखकर तरन्नुम और भी ज्यादा उत्साह से भर जाती। जब कभी तरन्नुम थक जाती तो अपने पापा की गोद में सिर रखकर आँख बंद कर लेती और उसकी सारी थकान दूर हो जाती थी।

आखिरकार तरन्नुम की मेहनत सफल हुई। उसका एन.डी.ए. में चयन हो गया। उस दिन तरन्नुम ने बहुत तेज आवाज में गाने चलाए और अपने पापा के गले में बाँहें डालकर पलंग पर बैठी-बैठी अपने पापा के साथ झूमने लगी। थोड़ी देर बाद मैं भी वहाँ आ गई। हम तीनों ने खुशी के इन पलों को भरपूर जीया। अब तो तरन्नुम को चार साल के लिए हम से दूर जाना पड़ा। तरन्नुम के जाने के बाद घर सूना हो गया। राहुल और मैं एक-दूसरे को इस सूनेपन से बचाने की कोशिश कर रहे थे। फिर भी कभी-कभी तरन्नुम की यादें हमारी आँसूं ला देती थीं। अब तो हमें उस दिन का इंंंतजार था जब हमारी तरन्नुम वायुसेना के जाँबाज फाइटर पायलट के रूप में हमारे सामने होगी।

वह दिन भी आ गया जिसका हम बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। तरन्नुम को वायुसेना में कमीशन मिल गया। दीक्षान्त परेड़ में वायुसेना की तरफ से हमें भी बुलाया गया। जिस दिन हमें सूचित किया गया उसी दिन शाम को राहुल मुझे बाजार ले गए। उन्होंने मुझे अच्छी-सी साड़ी दिलवाई और अपने लिए भी जीन्स की पेन्ट खरीदी। रात को हम चल पड़े क्योंकि अगले दिन दीक्षान्त परेड़ थी। हम वहाँ पहुँचे तो दीक्षान्त परेड़ शुरू होने वाली थी इसीलिए तरन्नुम हमें दूर से ही दिखाई दी। दीक्षान्त परेड़ शुरू होने लगी। जब नए अधिकारियों का समुह मुख्य अतिथि को सलामी देता हुआ हमारे आगे से गुजरा तो उनमें हमारी तरन्नुम को देखकर हमें अभूतपूर्व प्रसन्नता हुई।

जिनके माता-पिता वहाँ आए हुए थे उन सबको परेड़ के बाद अतिथि-गृह में ठहराया गया। मैं और राहुल एक कमरे में बैठे तरन्नुम का इंतजार कर रहे थे। कुछ देर बाद तरन्नुम आ गई। आते ही उसने सैनिक की तरह अपने पापा को सलामी दी और उनकी गोद में अपना सिर रख लिया। राहुल और मेरी आँखों में खुशी के आँसूं आ गए। कुछ देर तक उसने अपने पापा की गोद में ऐसे ही सिर रखे रखा। हम दोनों उसके सिर को प्यार से सहला रहे थे। तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने दरवाजा खोला तो सामने एक सैन्य अधिकारी व्हील-चेयर पर था। उसने मुझे देखते ही मेरे चरण स्पर्श किए और व्हील-चेयर को चलाता हुआ अंदर आ गया। उसने अंदर आते ही राहुल के भी चरण स्पर्श किए। तरन्नुम उसे देखते ही एकदम से सकपका गई। सैन्य परम्परा के अनुसार तरन्नुम ने सैल्यूट किया क्योंकि वह उससे वरिष्ठ था। तरन्नुम ने हमको उसका परिचय देते हुए बताया कि वे सेना के हस्पताल में डॉक्टर हैं और जम्मु-कश्मीर में सैन्य-शिविर के बाहर एक बच्चे को मुठभेड़ की चपेट से बचाने में उनकी पीठ में गोली लग गई जिससे उनके पैर खराब हो गए। मैं और राहुल उससे बहुत प्रभावित हुए। बातों ही बातों में उसने हमें बताया कि वह और तरन्नुम शादी करना चाहते हैं। यह सुनकर राहुल कुछ बोलते उससे पहले ही मैं बोल पड़ी-"तरन्नुम की खुशी में ही हमारी खुशी है। हम जल्दी ही तुम्हारे मम्मी-पापा से बात करके तुम दोनों की शादी तय कर देंगे।" यह सुनकर राहुल हल्केे-से मुस्करा दिए।

मैं अतीत की यादों में खोई हुई थी। तभी तरन्नुम का फोन आया और मैं अतीत से वर्तमान में आ गई। तरन्नुम अपने पापा से बातें कर रही थी और मैं सोच रही थी कि तरन्नुम मुझसे कितनी अलग है।

भाग - 1

कुलदीप सिंह ढाका 'भारत`
फरवरी 1, 2007

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