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आखिऱी
सच
मैं तुम्हें समझ नहीं रही या खुद को...
“तुम ईश्वर, खुदा या गॉड नहीं हो सकते समीर और ना ऐसा बनने या जताने की
कोशिश करना...”, शुभा ने पुरी तल्ख़ी से ये शब्द कहे थे, जो समीर को देर तक
बिंधते रहे. उसने ऐसा कहा क्यों ? आखिऱ इतने दिनों से साथ हैं. तो उसने उसे
कितना समझा, कैसे परखा कि...
समीर उसके चेहरे को एकटक देखता रहा, उसने कब चाहा है भगवान बनना ? बल्कि
अच्छा साथी, एक अच्छा आदमी बन सके और बना रहे जिंदगी भर इसकी भरपूर कोशिश
की है... और ऐसा कह भी क्या दिया! शादी की बात की है, स्वाभाविक है कि पाँच
सालों के इस रिश्ते को अब मुक्कमल किया जाय...
समीर जानना चाहता है कि शुभा ने ऐसा कहा क्यों, क्यों वह हमेशा ऐसी बातें
किया करती है ? लेकिन वह इस क्यों का ज़बाव शुभा से नहीं पूछ सकता. वह ऐसे
मूड में हो तब तो ऐसे किसी ‘क्यों’ के ज़बाव की उससे उम्मीद भी नहीं होती...
“शुभा अब मैंने ऐसा भी क्या कहा जो तुम यो कटखनियाँ सुना रही हो...यार कम
से कम इस शाम का मजा तो न खराब करो”, समीर से अपनी झुँझलाहट आखिर जज़्ब न
हुई तो जाहिर कर दी.
“मज़ा...हाँ साले मर्दों को मज़ा ही तो चाहिये, हुजूर की खिदमत में कनीज़
हाजिर है...कर लिजिये मज़ा...मजा करने का बर्थराईट लेकर आये हैं साहब...” वह
दंश देती मुस्कान के साथ बोली.
दोनों अब जेब्रा क्रॉसिंग पार कर सड़क के दूसरी तरफ आ गए थे. फुटपाथ फुटकर
माल बेचने वालों से भरा पड़ा था. कदम रखने की किल्लत थी...हाकरों की
चीखें...बाज़ार कहाँ तक फैल आया है... “सौ रूपये जोड़ा...!” बरमूड़ा और बनियान
बेचने वाला चिल्ला रहा था. सामने से गुजरते टाउन बस सर्विस की बस के हॉर्न
का शोर खत्म हुआ तो समीर ने मुड़कर देखा, शुभा सजी हुई दूकानों पर उड़ती हुई
नज़र डाले चल रही थी.
वह अब किराए के उस मकान वाली गली में पहुँच गए थे, जो फिलहाल शुभा का बसेरा
था. “शुभा, तुम जानती हो मैं औरत और मर्द को दो नहीं मानता. मेरी नज़र में
अगर दोनों का अलग अलग अस्तीत्व है तो दोनों अधुरे हैं. दोनों बल्कि एक दूजे
के पूरक हैं, दे कॉम्पलीमेंट इच अदर...मैं तुमसे हर बात में इत्तेफाक रखता
हूँ, मगर तुम इस तरह दोनों को लड़ाकू की शक्ल में मत रखो...”
फिर शुभा को कुछ कहने का मौका दिए बगैर ही कहना जारी रखा, दरवाजे के ताले
में चाबी लगा कर घुमाई थी, “आई मीन, मैं तुम्हें वो दे सकता हूँ जो
तुम्हारे पास नहीं है और तुम मुझे वो जो मेरे पास नहीं है...प्लीज़
होमोसैक्सुअलिटी का प्वाईंट मत उठाना, वो दूसरी बात है...”
“तो तुम्हारा मतलब औरत मर्द सिर्फ जिस्मानी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए
हैं...यही है तुम्हारा बायोलॉजिकल एक्सप्लेनेशन...?”
“नहीं सैक्स के अलावा भी दोनों बहुत कुछ शेयर करते हैं, ऐसा नहीं होता तो
हमारा ये रिश्ता नहीं होता, आदम और ईव के औलाद दुनिया को इतना आगे नहीं बढ़ा
पाते...” समीर ने शुभा के दाखिल होने के बाद दरवाजा बंद किया और कमरे की
बत्ती जलाई...
शुभा की निगाह सबसे पहले टेबल पर रखे टाईमपीस की सुईंयों पर गई, साढ़े छ...
बरसात के दिनों की शाम भी कब चुपके से रात में तब्दील हो जाती है...पता ही
नहीं लगता. पौने सात, सात पर शंकर आयेगा.
शुभा कंधे का बैग फोल्डिंग चारपाई पर फेंकते हुए बैठ गई थी, “समीर तुम्हें
मर्द होकर बहस करने में रूचि नहीं है...यार आज तो लगभग हर मर्द का
पौरूषार्थ जैसे इसी मुद्दे पर बोलने से साबित होता है. थोड़ा फुसलाओ तो
इंटेलेक्चुअलिटी के एवरेस्ट की पीक पर खुद को पहुँचा हुआ मानने लगता है,
नहीं ?” वह बहुत देर के बाद हंसी थी, खुल के हंस रही थी.
“मगर मैं औरत को सिर्फ बहस का मुद्दा नहीं मानता...”
तभी समीर का सेलफोन मीठी धुन बजाने लगा...
“हाँ शंकर”. एलसीडी पर नाम देखकर समीर बोला.
...
“हाँ, बैठी है”.
...
“आ रहा है न ? ठीक...” मोबाईल जेब में वापस रख वह शुभा के बगल में जाकर बैठ
गया, “ आ रहा है पन्द्रह मिनट में”.
‘पता नहीं इस लड़की का क्या होगा...’, समीर उसके चेहरे को कनखियों से देखने
लगा, एक मक्खी उड़कर उसके भौंह से उपर बैठ रही थी, ‘इसे फेमिनिज्म के दौरे
पड़ने कब छूटेंगे...’
“समीर...!” शुभा की बेहद नर्म पुकार से समीर लगभग चिंहुक पड़ा, “आई लव यू
समीर...मेरी बातों का बुरा तो नहीं मान जाते ना तुम ? तुम जानते हो ना मैं
ऐसी ही हूँ. मगर जैसी भी हूँ, तुम्हारी हूँ...”
“तो नारी मुक्ति मोर्चा का बेताल पीठ से उतर गया तुम्हारे ?” समीर हंसा.
शुभा ने भी ओठों के कोर खिंच दिए. समीर पास आकर बैठ गया और कुछ पल उसे
निर्निमेष देखकर फिर उसके माथे को चूम लिया. “औरत-मर्द के बीच प्यार का
इंसानी रिश्ता ही एक और आखिरी सच है...दुनिया एक औरत या एक मर्द से ना तो
पैदा हो सकती थी, ना चल सकती है...समझी”. शुभा के गालों को थपथपा कर वह
उठा, “अच्छा मैं चाय बना लेता हूँ, शंकर पहुँचता होगा”.
शंकर पहुँच गया था. साथ में लाए पैकेट को खोलकर कई किताबें मेज पर रख चुका
था. निर्मला पुतुल का नगाड़े की तरह बजते शब्द, क्षमा कौल का दर्दपुर, मनीषा
की हम सभ्य औरतें, मैत्रेयी पुष्पा की खुली खिड़कियाँ, दिव्या जैन की हव्वा
की बेटी, प्रभा खेतान की उपनिवेश में स्त्री, औरत के हक में और तस्लीमा की
नष्ट लड़की : नष्ट गद्य जैसी धुँआधार नारीवादी साहित्य के साथ कुछेक पत्रों
के स्त्री विषयक लेखों की करतरनों की फाईल भी.
“वाह भाई, तू तो वाकई काम की चीजें ले आया है”, समीर एक प्रति उठाकर कवर
देखता हुआ शुभा से बोला, “क्यों शुभा ?”.
“तेरे रिसर्च के लिए इतना अभी काफी है न शुभा...”, शंकर ने ज़ेब से पूर्जा
निकाला और देखकर वापस रखते हुए कहा, “बाकि की किताबें दो-एक सप्ताह में मिल
जायेंगी”.
“थैंक्स शंकर”, शुभा ने कृतज्ञता से ज़ाहिर की.
शुभा समाजशास्त्र में एम.ए. करने के बाद फिल्हाल राँची युनिवर्सिटी से
‘समकालीन स्त्री का समाजशास्त्रीय अध्ययन’ जैसे किसी विषय पर शोधरत थी. इसी
सिलसिले में वह पिछले दो-तीन सालों में कई नारीवादी संगठनों, एन.जी.ओज्.,
ज़मीनी कार्यकर्ताओं, नितिनिर्धारकों और महिला विचारकों आदि से संपर्क कर
चुकी थी. क्या उसके भीतर की औरत के इस तरह एंटी मेल माइंडेड (मर्द विरोधी),
उग्र प्रतिशोधी.... हो जाने के पीछे इसी साहचर्य से उपजे मनोविज्ञान का
परीणाम था? हाँ, उसके तर्क अकाटय यथार्थ थे, पर वह खुद भी महसुस कर रही थी
कि वह अतिवादिता की शिकार हो जाती थी कभी-कभी. क्या सिर्फ विरोध करने के
लिए विरोध करने की प्रवृति ने अनजाने में ही उसे भी चपेट में ले लियी
है...क्या वह अपने और समीर के दरम्यान एक स्वस्थ और समान संबंध की
संभावनाओं पर कभी-कभी संशक नहीं हो जाती, क्या ये सही है...वह दोनों जिस
साझे ख्वाब को पालते हैं, क्या उसे पुरा करने में, वह उसे हकीकत में गढ़ने
में समीर का साथ देने की जगह उसे कमजोर कर रही है...उफ् !
समीर कमरे के दूसरे कोने यानि रसोई में स्टोव पर खौलती पतीली में चाय की
पत्तियाँ डाल रहा था, आदत के मुताबिक ज्यादा दाने गिरा देने से परेशान होकर
जीभ दाँतों में दबाकर मुँह बना रहा था. शुभा की आँखों में स्नेह के जुगनूँ
झिलमिला उठे...
“समीर...!”
वह पीछे घूमा, शुभा करीब थी.
शंकर जा चुका था और अब एक खामोशी सी थी या फिर दोनों के साथ होने का एक
मांसल एहसास...
“तुम्हारी किताबें तो आ गईं, बेकार परेशान हो रही थी. शंकर एक नम्बर का
आदमी है !” समीर ऐसे बोल रहा था जैसे कुछ भी बोलने के लिए बोलना है. शुभा
ने हाथ बढ़ाया और समीर ने महसूसते हुए देखा अपनी कलाई पर वह नर्म
दबाव...शुभा ने उसका हाथ अपनी हथेली में भर लिया...उसका माथा समीर के सीने
से लग गया और साँसें उसकी कमीज़ के फाँकों से होती हुई उसकी छाती को छूने
लगीं.
“शुभा, तू कोर्ट मैरिज़ को प्रिफरेंस देती है ना, मैं कल ही अर्जी डाल
दूँगा. शंकर और दो गवाहों का बंदोबस्त कर देगा, एक तो वह खुद रहेगा. तू कल
थोड़ा जल्दी उधर से निबटकर रजिस्ट्रार के दफ्तर चली आना. देख, तू जैसा चाहती
है वही होगा... आई लव यू गुड़िया. तेरी खुशी जिसमें है, बस वही मेरी मर्जी
है. तू ऐसे रूखाई से बात मत किया कर, जिगर कटता है मेरा...” शुभा का सिर
उठा. आँखें ठीक आँखों पर ठहरीं, “तुम मुझे पागल तो नहीं समझते न समीर ?”
बेहद निज सी आवाज़.
शुभा को लगा, आखिर उसे ही क्या हो जाता है... क्या वह खुद अपने आप को ही
नहीं समझ रही... शाम से जो कुछ भी उसका बर्ताव था, वह क्या था ? उस समीर के
साथ, जो इस शहर में ही नहीं, उसकी तमाम जिंदगी का साथी रहने वाला है. उस
बरगद की तरह, जिसकी छाँव में वह ना सिर्फ़ सुस्ता सकती है, जब जी चाहे उसकी
शाखों से लिपट दिल का हाल कह सकती है... रो सकती है... झूल सकती है...
सुकून पा सकती है...
ना चाहते हुए भी फिर अपनी वही बातें उसके जेहन में उतरने लगीं...
“तुम कहते हो कि तुम मुझसे प्यार करते हो...मर्द प्यार करता है या ऐश करता
है ! तुम शादी की बात करते हो, तुम्हारे लोग चाहते हैं कि अरेंज्ड मैरिज़
हो, और तुम, तुम भी...? तुमसे जो साल भर से कह रही हूँ कि मजिस्ट्रेट के
पास एप्लीकेशन सबमिट कर दो मगर नहीं, तुम कोर्टमैरिज़ नहीं करोगे
ना...संस्कार और संस्कृति की दुहाई मत देना प्लीज़...तुम...तुम...सच बोलूँ,
तुम दरअसल अपने घरवालों के पिठ्टू हो...मामास् गुड बॉय !” समीर को बोलने
का कोई मौका दिए बिना वह कहे जा रही थी, समीर खुद भी जानता था कि वह ऐसा ही
करती है...जब बोलती है तो न माहौल का ख्याल करती है, ना वक्त की परवाह...
“सात फेरे...सात वचन, माईफुट ! मर्द वायदे करता है, औरत पट्टा लिखवाती
है...मर्द उसे केयरटेकर बनाता है और औरत उसे अपना ओनर... आप मेरे पति, मेरे
स्वामी, मेरे भगवान, मेरे विधाता, मेरे ठेकेदार...बताऊँ तुम्हें सात फेरों
की हकीकत ?...” शुभा जब ऐसे बोलने लगती थी तो उसका चेहरा दहकने लगता था,
समीर ने कई बार वह आँच महसुस की है...वह समझता है कि शुभा की बातों के तर्क
को हमारी सिविल सोसाईटी का इतिहास साबित करता है, शुभा चाट का प्लेट पकड़े
और दूसरे हाथ से चेहरे पर आ रही लटों को हटाते हुए अब भी धीरे-धीरे बड़बड़ा
रही थी, “तव भक्ति सा वदेद् वच्छच्छ , मेरे देवता आपकी पूजा करूँगी...
अर्ते अर्व सपदे वदेत्, मेरे स्वामी आपकी सभी इच्छाओं का पालन करना है
मुझे...”
शुभा की धीमी आवाज़ भी तल्ख़ से तल्ख़तर होती गई....
“आखिर फिर वही बात ना... शुभा आखिर तुम मुझसे तो ऐसा मत कहो...मैंने कब
तुम्हें...”
“नहीं कहा तो कहोगे, कल कहोगे ही... भी डरते हो कि हाथ से निकल जायेगी,
लेकिन कल जब गाँठ बाँध के ले जाओगे तो समझोगे बपौती हुई...फिर क्या नहीं
कहोगे या करोगे...मर्द प्यार करता हो और बाईचांस शादी भी करता है और औरत
प्यार करके शादी करती है तो बात एक नहीं रहती...मायने बहुत बदल जाते
हैं...समझे, यही सच है”. उसने प्लेट छोड़ दी और समीर को घूरा. समीर ने भी
प्लेट आधी छोड़ दी और चाटवाले को पैसे चुका कर बगैर नज़र मिलाए बोला,
“चलो...” और फुटपाथ पर बढ़ गया... कुछ देर बाद उसने बिना मुड़े आहिस्ता से
कहा था, “मैं तुमसे प्यार करता हूँ”.
“समीर तुम मानो ना मानो, मर्द वैसे प्यार नहीं कर सकता जैसा औरत करती
है...”
“जान मेरी, तुम एक मिनट के वास्ते हमारे बीच ये औरत-मर्द का गणित हटाओगी
प्लीज़...” समीर ठहरकर मुड़ा.
“तुम इल्जाम सुन नहीं सकते तो सफाई देने का हक़ खो दोगे समीर...प्यार में
औरत के पास देने या खोने के लिए मर्द से कहीं ज्यादा होता है...वह मन के
साथ बदन को भी देने से गुज़र जाती है और मर्द के पास दाँव पर लगाने के लिए
वैसा कुछ भी नहीं होता...” शुभा अपनी रौ में कहती गई थी...
शुभा का मूड कसैला हो जाने के चरम पर आ जाता, अगर समीर की सरगोशी जैसी आवाज
नहीं आती... “फिर उल्टी बात...मैंने कभी ऐसा जताया भी है ?” समीर उसके और
पास आ खड़ा हुआ था.
“नहीं समीर, तुम अच्छे हो, बहुत अच्छे. मगर सब तुम्हारी तरह नहीं हो सकते.
फिर क्या पता कल तुम भी बदल जाओ तो...”
“तुम अपॉजिट सैक्स पर अपना विश्वास खो चुकी हो”, समीर की आवाज़ में भारीपन आ
गया, “मगर ऐसे कैसे काम चलेगा...तू यकीन कर, मैं तेरे किसी मौलिक या लैंगिक
अधिकार का अतिक्रमण नहीं करूँगा. और ये कोई बड़ी बात भी नहीं है...परस्पर
सम्मान के बगैर कोई रिश्ता बना और टिका रह ही नहीं सकता... “
समीर ने केतली की बची चाय को दोनों कपों में बराबर डालकर एक शुभा की ओर
बढ़ाया और कोने वाली टेबल पर जा कर बैठ गया. कल आई डाक के ज़बाव उसे तैयार
करने थे और इस शहर में उसे अपने घर से ज्यादा सुविधाजनक जगह शुभा की ये ४
बटा ६ की किराये की कोठरी लगती थी, शांतिपूर्ण...सीलन की बदबू को दबा कर
यहाँ शुभा के साहचर्य की खुशबू ही बहा करती थी...
शुभा किताबें समेटकर दीवार पर बने आले में सरियाती हुई बराबर उसकी तरफ
देखती रही. औरत बादल है, बरसना चाहती है. नरम, ठंड़ी, पुरसुकून देती बौछार
की तरह...मर्द धूप की तरह गुनगुना और रुखा... उसे किसी लेख का
निष्कर्ष-वाक्य याद आया. उसके भीतर कुछ भीना-भीना सा महक गया. ‘लेकिन अगर
उस लेखिका ने मुझे और समीर को कभी देखा होता तो अपने राईटअप में ऐसा कतई
ऑबटेंड नहीं करतीं !’ उसके जेहन में आया था...
“स्त्री के दिल की बात वही जाने या उसे बनाने वाला...”, शंकर ने अपने हिसाब
से बात मज़ाक में कही थी और खुद ठहाके लगाने के लिए तैयार हो रहा था कि शुभा
ने तड़ से जबाव दिया, “तो ?... मर्द औरत को कितना समझता है ?...फिर भी उस
पर, उसके बारे में लिख और गला फाड़कर, औरत को सब्जेक्ट बनाकर उसका ऑथोरिटी
होने का क्रेडिट नहीं ले रहा ? शंकर, येस इटस् ए फेक्ट...मर्द कभी हमें
थॉरोली समझ ही नहीं सकता, फिजूल की बहसें करता है, स्त्री-विमर्श का स्टंट
करता है”.
“शुभा, तुम भी यार ! राई का पहाड़ बना देती हो”, समीर ने टोकने वाले अंदाज़
में कहा.
“तो सच नहीं कह रही क्या ? औरत की बात सुनने का माद्दा ही मर्द में नहीं
होता...खुद को ही देखो...”
“तुम औरत-मर्द को दो खानों में बाँटकर क्यों देख रही हो ?”
“इसलिए... इसलिए कि तुम्हारे श्रद्घेय पुरखों ने दोनों को एक इकाई होने
कहाँ दिया है ? तुम्हारे बाबूजी को रात-दोपहर अपनी मर्दानगी पर डाउट होने
पर अपनी प्रेगनेंट बीबी को लाठी से पीटने को मज़बुर होना पड़ जाता था ! ले
स्साली, पैर की जूती... क्रूयल...ब्रूटल...क्या कहोगे इसे तुम?
इनह्युमन...”
शंकर जानता था शुभा को, बहस बेकाबू हो सकती थी...तो उसने शांति बनाने की
पहल की, “देखो मैं अपनी गल्ती मानता हूँ. शुभा, आइन्दा से कोई टिप्पणी करने
से पहले हज़ार बार सोचूँगा... अब तुम लोग फाईट मत करो यार”.
“फाईट तो करनी है शंकर”, शुभा ने उसे घूरा, “सच है कि ये भी क्लास स्ट्रगल
है, औरत सर्वहारा बनी रही है. लेकिन आज अगर वह किसी हद तक लिबरटी पा सकी
है, मानती हूँ कि ये भी ईलीट क्लास तक सीमित है अभी तक, तो क्रेडिट मस्ट गो
टू द वीमेनहुड. लेकिन अभी और रास्ता तय करना है, बेबी हालदार, गुड़िया,
इमराना, निरुपमा...कितने ऐसे नाम और गुमनाम हैं...”
मर्द और मादा का रसायनशास्त्र...
उस रात फिर से तेज़ बारिश हुई थी, चार रातों के बाद...
शंकर के जाने के बहुत देर बाद समीर गया था, जब मकान मालकिन बुढ़िया का काफी
देर से चीखना शुरु हो गया था नीचे से... शुभा के पुरूष दोस्तों से उसे सख्त
परहेज़ थी, और वह ऐसे मौकों पर अपनी सारी भड़ास भयंकरता की हद तक अश्लील
गालियों के ज़रिए शुभा के सात पुश्तों को तारते हुए निकाला करती थी. गौर
करने वाले बता सकते थे कि, उसके गरियाने वाले जुमलों में एक ही शब्द स्थाई
होता था... ‘बार-भातारी’... यानि बारह पुरुष रखने वाली, यानि कुलटा...!
क्या पुरुष से समतुल्य संपर्क रखने वाली, उसके बराबर खड़ी होने या उससे आगे
ही निकलने वाली स्त्री सिर्फ़ कुलटा ही हो जाती है ? और इसे कौन तय करता
है... एक अपढ़ या अल्पज्ञ, मूढ़, दकियानूस, मध्यवर्गीय समाज के कुछ जीर्ण
खंबे... २१वीं सदी में भी !
शुभा खिड़की पर खड़ी थी. बारह बजकर नौ मिनट...!
बारिश के बाद की ठण्डी हवा की छुअन से उसे कुछ अजीब सा लगा...बहुत हल्का सा
महुससने लगी...फिर समीर की बातें, उसके साथ रहते हुए क्षणों की याद दिमाग
पर कोहराने लगी...उसकी छुअन...कितने अधिकार से. कभी-कभी जब उसने आवेग में
आकर जो पुरजोर भावनाओं के साथ उसके होंठों को चूमा था. उसकी पकड़ की वो
जूनूनियत... उसकी आँखों की वह बच्चे सी मासूमियत...
क्या मर्द ही हमेशा डॉमिनेटिव होता है, या होना चाहता है ? और औरत टू बी
डॉमिनेटेड ? क्या वाकई इसमें कोई अजीब सी खुशी मिलती है औरत को...? इस सवाल
का उसे इस समय कोई ज़बाव नहीं मिला.
“तुमको पता है साधना क्या कहती है” , वह भौंहें नचाकर बोली, “इश्क-विश्क
बेकार का लफड़ा है यार. अपनी तो एक ही लाइन है...तू नहीं और सही, और नहीं और
सही. ये ही फंडा ही सबसे बढ़िया...प्यार में जीने-मरने की कसमें, वफा की
आयतें...उफ्! ईमानदारी की नोटरी पर दस्तखत ! माईफुट !!”
“वह बच्ची है अभी”, समीर ने उसकी तरफ देखे बगैर कहा.
“अच्छा ! तो ज़नाब खुद को क्या समझते हैं ?” शुभा ने दुपट्टे को काँधे पर
पिन से फिक्स करते-करते उसकी करफ देखा.
“समझने-समझाने की बात कहाँ होती है गुड़िया ?”
“तुम मुझे गुड़िया कहना बंद करोगे...” उसके चेहरे का ताम्बई रंग लाल हो उठा,
“चाबी भरने वाली गुड़िया बनाने का ख्वाब देखते हो तो भूल जाऑ...” वह दमकते
कदमों से मेज के पास आई. और जब वह झुकी और समीर के बाँये गाल पर चूमने को
हुई, बाल के साथ-साथ अभी पिन किया हुआ दुपट्टा भी जाने कैसे आगे गिर
पड़ा...समीर अचानक घूमा था और उसी समय लाल चेहरा गुलाबी हो गया था. समीर को
भी अच्छी सूझी कि दुपट्टे को वापस उसके कंधे पर चढ़ाते हुए जगजीत का वह ग़ज़ल
गुनगुना उठा, ‘दिन आ गये शबाब के / आँचल संभालिये...होने लगी है शहर में /
हलचल संभालिये...'
“मारूँगी तुमको...” शुभा ने मुट्ठी तान ली, “ऐसा पंच मारूंगी ना...”
समीर बमुश्किल अपनी हंसी रोक पाया था, लेकिन जब शुभा हंसती चली गई तो वह भी
हंसने लगा. दोनों ने एकदूसरे के बदन से उठती एक खुशनुमा गन्ध महसूस की थी.
शुभा ने किंही रोमान्टिक क्षणों में कई दफे कहा है, “देखा समीर, हम एक
दूसरे की तरह सोचते हैं, वी थिंक एलाइक...वी आर फाईटर्स. यही तो कॉमन है
हमारे बीच...”
आज सुबह समीर लेने आया तो ज़िद कर पूछ बैठा, “व्हाई डू यू लव मी ? बताओ...”
“तुम्हारी ईमानदारी, सच्चाई और सबसे ज्यादा तो इसलिए कि तुम मुझे प्यार
करते हो बस... तुम अच्छे इंसान हो समीर...”
“हूँ...चलो कभी-कभी यह भी मान लेती हो...”
“शटअप समीर...” शुभा उसके हाथों को अपनी गोद में लेते हुए बोली, “ इट्स
ग्रेट प्लेज़र ना, टू बी इन लव विथ समवन... और कोई पसंद आता ही मुशकिल से
है.”
“हाँ. जिंदगी आसान नहीं होती और मुहब्बत तो खैर जिंदगी से भी मुश्किल होती
है...”
“समीर, मुझे ना तुम्हारी फिलासफी एकदम पसंद नहीं”, उसने मुँह बनाया और
हंसी.
“क्यों भई, समाजशास्त्र में एम.ए. हो...दर्शन से दुश्मनी कैसे चलेगी...?”
दोनों कुछ देर हँसते रहे.
समीर ने बाहर आकर साँकल भिड़ाकर ताला लगा दिया और चाबियाँ उसके हाथ में दे
दीं. शुभा ने पर्स में डालकर ज़िप खींच ली.
“शादी हमारी सोसाईटी का एक बड़ा मुद्दा है समीर...”, राजकीय पुस्तकालय की ओर
बढ़ते हुए शुभा कह रही थी, समीर जानता है कि वह एक मिनट को भी चुप नहीं रह
सकती, “तुम बिहार-झारखण्ड और यू.पी. में किशोर, या सिर्फ लड़कियाँ कहो, की
ट्रेफिकिंग की खबर सुन रहे हो ना...किसी न्यूज़ चैनल पर तो पूरी
डॉक्यूमेंट्री आई थी शायद, तुम्हें याद है ? सारा मामला पैसों का है...
‘हिंदुस्तान’ में क्या खबर थी...चौदह साल की बच्ची यू.पी. के तीस साल के
मर्द के साथ भेजी जा रही थी, लड़की ने संवाददाता को बयान दिया था कि,
दहेज-तिलक देने में असमर्थ होने से वह भेड़ की तरह बिक जाने को मज़बुर हुई
थी... तो यह सब तो होता रहता है...फिर भी कहा जाता है कि वुमेन्स आर नॉट
प्रोग्रेसिव ! गाँव-देहात में उसे बढ़ने तो दो पहले, फिर कहना...”
समीर ने उसके बालों पर सहसा हाथ फेरा तो वह चौंककर उसे देखने लगी...
“तुम्हें प्यार भी चौंका देता है ना ?” समीर ने हाथ हटा लिया.
“नहीं, वो बात नहीं...तुम गलत समझ रहे हो...”
“हूँ... और तुम जो हमेशा मुझे ग़लत समझती हो वो ?”
शुभा ने मलीन सी आँखें उठा दीं, “नहीं जान...मैं तुम्हें शायद समझती ही
नहीं...”
समीर का मूड़ उखड़ गया यह साफ लगा तो, शुभा अपने नाखून उसकी गर्दन पर
हल्के-हल्के चूभोने लगी...एकाएक समीर पलटा और उसे खींचकर पूरी ताकत से अपने
से सटा लिया...शुभा उसके कानों में फुसफुसाई थी, “तुम्हारा मर्द जाग
गया?...जाग गया तो शैतान बन जाता है...”, इसके आगे तो समीर के बेतहाशा
चुम्बनों की झड़ी ने उसकी ज़बान ही नहीं, साँसें भी लगभग रोक दी थीं...
आखिरी सच
ये मुझे क्या हो रहा है ? मैं एक ही वक्त समीर से प्यार भी कर रही हूँ और
उससे लड़ भी रही हूँ ! मेरा स्त्रीत्तव खण्डित हो गया है...क्या हर औरत मर्द
का प्यार पाना नहीं चाहती, मगर उसे अनुचित या असीमित आधिपत्य नहीं देना
चाहती...पर समीर तो कभी ऐसा अनर्गल करेगा भी नहीं, मुझे विश्वास है. फिर,
फिर क्यों मैं...शायद मैं तर्क और सच्चाई के रूखेपन से अपनी भीतरी नरमीयत,
अपना औरतपन खो रही हूँ...कभी मेरे स्त्रीत्व का कोमल पहलू उभर आता है तो
कभी उसका रिबेलिटिक रूप जोर मारता है...तो आखिरी सच क्या है...?
जेहन में समीर मानो एक पिता की तरह कह रहा था... ‘ औरत-मर्द के बीच प्यार
का इंसानी रिश्ता ही एक और आखिरी सच है... औरत तो कई तरह से... माँ, बहन,
बेटी, दोस्त, प्रेमिका और पत्नी... मर्द को सिर्फ़ प्रेम देती है, अपनी
अलग-अलग भूमिकाओं में... इससे बड़ा सच और क्या है...’
उफ् मैंने कितने सवाल पैदा कर दिए... और ज़वाब के लिए शायद अपने समीर की
तरफ ही नज़र उठाती हूँ...ये कैसा विरोधाभास है ? शुभा अपनी डायरी में कुछ
नोट करने लगी... ‘औरत-मर्द के रिश्ते को खंगालने और उसकी असली हकीकत को
पहचानने के लिए शोध की ज़रुरत नहीं है...शायद यही एक सही तरीका है कि रिश्ते
को ही खूब जिया जाय. कोई प्रश्न, परिभाषा या व्याख्या मत करो इस रिश्ते की,
वह फ़िज़ूल साबित होगा...’.
बिस्तर पर काफी देर तक कई उधेड़बुनों से गुजरकर जब उसकी आँख लगी तो उसके कुछ
पल पहले उसने समीर के साथ अपनी खुबसूरत फैंटेसियों को जेहन में लाना शुरू
किया था.
- शेखर मल्लिक
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