मुखपृष्ठ  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | डायरी | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 Home |  Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

You can search the entire site of HindiNest.com and also pages from the Web

Google
 

 

ताई

विश्वंरभरनाथ शर्मा कौशिक

''ताऊजी, हमें लेलगाड़ी (रेलगाड़ी) ला दोगे?" कहता हुआ एक पंचवर्षीय बालक बाबू रामजीदास की ओर दौड़ा।

बाबू साहब ने दोंनो बाँहें फैलाकर कहा- ''हाँ बेटा,ला देंगे।'' उनके इतना कहते-कहते बालक उनके निकट आ गया। उन्होंाने बालक को गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमकर बोले- ''क्याक करेगा रेलगाड़ी?''

बालक बोला- ''उसमें बैठकर बली दूल जाएँगे। हम बी जाएँगे,चुन्नी को बी ले जाएँगे। बाबूजी को नहीं ले जाएँगे। हमें लेलगाड़ी नहीं ला देते। ताऊजी तुम ला दोगे, तो तुम्हेंग ले जाएँगे।''

बाबू- "और किसे ले जाएगा?''

बालक दम भर सोचकर बोला- ''बछ औल किछी को नहीं ले जाएँगे।''

पास ही बाबू रामजीदास की अर्द्धांगिनी बैठी थीं। बाबू साहब ने उनकी ओर इशारा करके कहा- ''और अपनी ताई को नहीं ले जाएगा?''

बालक कुछ देर तक अपनी ताई की और देखता रहा। ताईजी उस समय कुछ चि‍ढ़ी हुई सी बैठी थीं। बालक को उनके मुख का वह भाव अच्छात न लगा। अतएव वह बोला- ''ताई को नहीं ले जाएँगे।''

ताईजी सुपारी काटती हुई बोलीं- ''अपने ताऊजी ही को ले जा मेरे ऊपर दया रख।'' ताई ने यह बात बड़ी रूखाई के साथ कही। बालक ताई के शुष्की व्यववहार को तुरंत ताड़ गया। बाबू साहब ने फिर पूछा- ''ताई को क्यों नहीं ले जाएगा?''

बालक- ''ताई हमें प्यावल(प्याार), नहीं कलतीं।''

बाबू- ''जो प्यांर करें तो ले जाएगा?''

बालक को इसमें कुछ संदेह था। ताई के भाव देखकर उसे यह आशा नहीं थी कि वह प्याबर करेंगी। इससे बालक मौन रहा।

बाबू साहब ने फिर पुछा- ''क्योंत रे बोलता नहीं? ताई प्याकर करें तो रेल पर बिठाकर ले जाएगा?''

बालक ने ताउजी को प्रसन्न- करने के लिए केवल सिर हिलाकर स्वीहकार कर लिया, परंतु मुख से कुछ नहीं कहा।

बाबू साहब उसे अपनी अर्द्धांगिनी के पास ले जाकर उनसे बोले- ''लो, इसे प्याुर कर लो तो तुम्हें ले जाएगा।'' परंतु बच्चेस की ताई श्रीमती रामेश्वसरी को पति की यह चुगलबाजी अच्छीा न लगी। वह तुनककर बोली- ''तुम्हीं रेल पर बैठकर जाओ, मुझे नहीं जाना है।''

बाबू साहब ने रामेश्वहरी की बात पर ध्या न नहीं दिया। बच्चे‍ को उनकी गोद में बैठाने की चेष्टाो करते हुए बोले- ''प्या र नहीं करोगी, तो फिर रेल में नहीं बिठावेगा।-क्यों रे मनोहर?''

मनोहर ने ताऊ की बात का उत्तंर नहीं दिया। उधर ताई ने मनोहर को अपनी गोद से ढकेल दिया। मनोहर नीचे गिर पड़ा। शरीर में तो चोट नहीं लगी, पर हृदय में चोट लगी। बालक रो पड़ा।

बाबू साहब ने बालक को गोद में उठा लिया। चुमकार-पुचकारकर चुप किया और तत्पपश्चायत उसे कुछ पैसा तथा रेलगाड़ी ला देने का वचन देकर छोड़ दिया। बालक मनोहर भयपूर्ण दॄष्टि से अपनी ताई की ओर ताकता हुआ उस स्थाान से चला गया।

मनोहर के चले जाने पर बाबू रामजीदास रामेश्वलरी से बोले- ''तुम्हशरा यह कैसा व्वापैहार है? बच्चेठ को ढकेल दिया। जो उसे चोट लग जाती तो?''

रामेश्व री मुँह मटकाकर बोली- ''लग जाती तो अच्छा' होता। क्योंा मेरी खोपड़ी पर लादे देते थे? आप ही मेरे उपर डालते थे और आप ही अब ऐसी बातें करते हैं।''

बाबू सा‍हब कुढ़कर बोले- ''इसी को खोपड़ी पर लादना कहते हैं?''

रामेश्वेरी- ''और नहीं किसे कहते हैं, तुम्हें तो अपने आगे और किसी का दु:ख-सुख सूझता ही नहीं। न जाने कब किसका जी कैसा होता है। तुम्हें उन बातों की कोई परवाह ही नहीं, अपनी चुहल से काम है।''

बाबू- ''बच्चोंम की प्याबरी-प्या री बातें सुनकर तो चाहे जैसा जी हो,प्रसन्नर हो जाता है। मगर तुम्हाकरा हृदय न जाने किस धातु का बना हुआ है?''

रामेश्व री- ''तुम्हाारा हो जाता होगा। और होने को होता है, मगर वैसा बच्चान भी तो हो। पराये धन से भी कहीं घर भरता है?''

बाबू साहब कुछ देर चुप रहकर बोले- ''यदि अपना सगा भतीजा भी पराया धन कहा जा सकता है, तो फिर मैं नहीं समझता कि अपना धन किसे कहेंगे?''

रामेश्विरी कुछ उत्तेलजित हो कर बोली- ''बातें बनाना बहुत आसान है। तुम्हातरा भतीजा है, तुम चाहे जो समझो, पर मुझे यह बातें अच्छीध नहीं लगतीं। हमारे भाग ही फूटे हैं, नहीं तो यह दिन काहे को देखने पड़ते। तुम्हा रा चलन तो दुनिया से निराला है। आदमी संतान के लिए न जाने क्याग-क्या' करते हैं- पूजा-पाठ करते हैं, व्रत रखते हैं,पर तुम्हेंी इन बातों से क्याल काम? रात-दिन भाई-भतीजों में मगन रहते हो।''

बाबू साहब के मुख पर घृणा का भाव झलक आया। उन्हों ने कहा- ''पूजा-पाठ, व्रत सब ढकोसला है। जो वस्तुत भाग्य, में नहीं, वह पूजा-पाठ से कभी प्राप्तं नहीं हो सकती। मेरो तो यह अटल विश्वाूस है।"

श्रीमतीजी कुछ-कुछ रूँआसे स्वकर में बोलीं- "इसी विश्वारस ने सब चौपट कर रखा है। ऐसे ही विश्वाहस पर सब बैठ जाएँ तो काम कैसे चले? सब विश्वारस पर ही न बैठे रहें, आदमी काहे को किसी बात के लिए चेष्टाी करे।"

बाबू साहब ने सोचा कि मूर्ख स्त्री के मुँह लगना ठीक नहीं। अतएव वह स्त्रीम की बात का कुछ उत्तषर न देकर वहाँ से टल गए।

2

बाबू रामजीदास धनी आदमी हैं। कपड़े की आढ़त का काम करते हैं। लेन-देन भी है। इनसे एक छोटा भाई है उसका नाम है कृष्णसदास। दोनों भाइयों का परिवार एक में ही है। बाबू रामदास जी की आयु 35 के लगभग है और छोटे भाई कृष्णदास की आयु 21 के लगभग । रामदासजी निस्सं।तान हैं। कृष्ण दास के दो संतानें हैं। एक पुत्र-वही पुत्र, जिससे पाठक परिचित हो चुके हैं- और एक कन्यास है। कन्यास की वय दो वर्ष के लगभग है।

रामदासजी आपने छोटे भाई और उनकी संतान पर बड़ा स्नेयह रखते हैं- ऐसा स्ने ह कि उसके प्रभाव से उन्हें अपनी संतानहीनता कभी खटकती ही नहीं। छोटे भाई की संतान को अपनी संतान समझते हैं। दोनों बच्चेऐ भी रामदास से इतने हिले हैं कि उन्हें अपने पिता से भी अधिक समझते हैं।

परंतु रामदास की पत्नीे रामेश्वरी को अपनी संतानहीनता का बड़ा दु:ख है।वह दिन-रात संतान ही के सोच में घुली रहती हैं। छोटे भाई की संतान पर पति का प्रेम उनकी आँखो में काँटे की तरह खटकता है।

रात के भोजन इत्याईदि से निवृत्त् होकर रामजीदास शैया पर लेटे शीतल और मंद वायु का आनंद ले रहे हैं। पास ही दूसरी शैया पर रामेश्विरी, हथेली पर सिर रखे, किसी चिंता में डूबी हुई थी। दोनों बच्चेी अभी बाबू साहब के पास से उठकर अपनी माँ के पास गए थे। बाबू साहब ने अपनी स्त्री की ओर करवट लेकर कहा- "आज तुमने मनोहर को बुरी तरह ढकेला था कि मुझे अब तक उसका दु:ख है। कभी-कभी तो तुम्हाकरा व्यडवहाहर अमानुषिक हो उठता है।''

रामेश्वहरी बोली- ''तुम्हीह ने मुझे ऐसा बना रक्खा‍ है। उस दिन उस पंडित ने कहा कि हम दोनों के जन्मह-पत्र में संतान का जोग है और उपाय करने से संतान हो सकती है। उसने उपाय भी बताये थे, पर तुमने उनमें से एक भी उपाय करके न देखा। बस, तुम तो इन्हीन दोनों में मगन हो। तुम्हातरी इस बात से रात-दिन मेरा कलेजा सुलगता रहता है। आदमी उपाय तो करके देखता है। फिर होना न होना भगवान के अधीन है।"

बाबू साहब हँसकर बोले- ''तुम्हाारी जैसी सीधी स्त्री भी क्या‍ कहूँ? तुम इन ज्योातिषियों की बातों पर विश्वाास करती हो, जो दुनिया भर के झूठे और धूर्त हैं। झूठ बोलने ही की रोटियाँ खाते हैं। ''

रामेश्वयरी तुनककर बोली- ''तुम्हेंख तो सारा संसार झूठा ही दिखाई पड़ता है। ये पोथी-पुराण भी सब झूठे हैं? पंडित कुछ अपनी तरफ से बनाकर तो कहकते नहीं हैं। शास्त्रु में जो लिखा है, वही वे भी कहते हैं, वह झूठा है तो वे भी झूठे हैं। अँग्रेजी क्यान पढ़ी, अपने आगे किसी को गिनते ही नहीं। जो बातें बाप-दादे के जमाने से चली आई हैं, उन्हेंव भी झूठा बताते हैं।''

बाबू साहब- ''तुम बात तो समझती नहीं, अपनी ही ओटे जाती हो। मैं यह नहीं कह सकता कि ज्योीतिष शास्त्रठ झूठा है। संभव है,वह सच्चात हो, परंतु ज्योनतिषियों में अधिकांश झूठे होते हैं। उन्हेंी ज्योसतिष का पूर्ण ज्ञान तो होता नहीं, दो-एक छोटी-मोटी पुस्तचकें पढ़कर ज्योीतिषी बन बैठते हैं और लोगों को ठगतें फिरते हैं। ऐसी दशा में उनकी बातों पर कैसे विश्वायस किया जा सकता है?''

रामेश्वशरी- ''हूँ, सब झूठे ही हैं, तुम्हींि एक बड़े सच्चेउ हो। अच्छास, एक बात पूछती हूँ। भला तुम्हा-रे जी में संतान का मुख देखने की इच्छाा क्या कभी नहीं होती?''

इस बार रामेश्वारी ने बाबू साहब के हृदय का कोमल स्थाबन पकड़ा। वह कुछ देर चुप रहे। तत्प श्चाउत एक लंबी साँस लेकर बोले- ''भला ऐसा कौन मनुष्या होगा, जिसके हृदय में संतान का मुख देखने की इच्छान न हो? परंतु क्याा किया जाए? जब नहीं है, और न होने की कोई आशा ही है, तब उसके लिए व्य र्थ चिंता करने से क्याल लाभ? इसके सिवा जो बात अपनी संतान से होती, वही भाई की संतान से हो भी रही है। जितना स्नेतह अपनी पर होता, उतना ही इन पर भी है जो आनंद उसकी बाल क्रीड़ा से आता, वही इनकी क्रीड़ा से भी आ रहा है। फिर नहीं समझता कि चिंता क्योंि की जाय।''

रामेश्वनरी कुढ़कर बोली- ''तुम्हा्री समझ को मैं क्याझ कहूँ? इसी से तो रात-दिन जला करती हूँ, भला तो यह बताओ कि तुम्हावरे पीछे क्या इन्हीं से तुम्हाडरा नाम चलेगा?'''

बाबू साहब हँसकर बोले- ''अरे, तुम भी कहाँ की क्षुद्र बातें लायी। नाम संतान से नहीं चलता। नाम अपनी सुकृति से चलता है। तुलसीदास को देश का बच्चाअ-बच्चाा जानता है। सूरदास को मरे कितने दिन हो चुके। इसी प्रकार जितने महात्मा। हो गए हैं, उन सबका नाम क्यास उनकी संतान की बदौलत चल रहा है? सच पूछो, तो संतान से जितनी नाम चलने की आशा रहती है, उतनी ही नाम डूब जाने की संभावना रहती है। परंतु सुकृति एक ऐसी वस्तुत है, जिसमें नाम बढ़ने के सिवा घटने की आशंका रहती ही नहीं। हमारे शहर में राय गिरधारीलाल कितने नामी थे। उनके संतान कहाँ है। पर उनकी धर्मशाला और अनाथालय से उनका नाम अब तक चला आ रहा है, अभी न जाने कितने दिनों तक चला जाएगा।

रामेश्वगरी- ''शास्त्रत में लिखा है जिसके पुत्र नहीं होता, उनकी मुक्ति नहीं होती ?"

बाबू- ''मुक्ति पर मुझे विश्वा्स नहीं। मुक्ति है किस चिड़िया का नाम? यदि मुक्ति होना भी मान लिया जाए, वो यह कैसे माना जा सकता है कि सब पुत्रवालों की मुक्ति हो ही जाती है ! मुक्ति का भी क्याह सहज उपाय है? ये कितने पुत्रवाले हैं, सभी को तो मुक्ति हो जाती होगी ?''

रामेश्वलरी निरूत्तर होकर बोली- ''अब तुमसे कौन बकवास करे ! तुम तो अपने सामने किसी को मानते ही नहीं।''

3

मनुष्यव का हृदय बड़ा ममत्वर-प्रेमी है। कैसी ही उपयोगी और कितनी ही सुंदर वस्तुु क्यों न हो, जब तक मनुष्यस उसको पराई समझता है, तब तक उससे प्रेम नहीं करता। किंतु भद्दी से भद्दी और बिलकुल काम में न आनेवाली वस्तुप को यदि मनुष्यम अपनी समझता है, तो उससे प्रेम करता है। पराई वस्तुं कितनी ही मूल्युवान क्यों न हो, कितनी ही उपयोगी क्यों न हो, कितनी ही सुंदर क्योंे न हो, उसके नष्टत होने पर मनुष्य कुछ भी दु:ख का अनुभव नहीं करता, इसलिए कि वह वस्तु , उसकी नहीं, पराई है। अपनी वस्तु कितनी ही भद्दी हो, काम में न आनेवाली हो, नष्ट होने पर मनुष्य को दु:ख होता है, इसलिए कि वह अपनी चीज है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्ये पराई चीज से प्रेम करने लगता है। ऐसी दशा में भी जब तक मनुष्यह उस वस्तुक को अपना बनाकर नहीं छोड़ता, अथवा हृदय में यह विचार नहीं कर लेता कि वह वस्तुज मेरी है, तब तक उसे संतोष नहीं होता। ममत्व- से प्रेम उत्पेन्ने होता है, और प्रेम से ममत्व । इन दोनों का साथ चोलीदामन का-सा है। ये कभी पृथक नहीं किए जा सकते।

यद्यपि रामेश्वचरी को माता बनने का सौभाग्य प्राप्तच नहीं हुआ था, तथापि उनका हृदय एक माता का हृदय बनने की पूरी योग्येता रखता था। उनके हृदय में वे गुण विद्यमान तथा अंतर्निहित थे, जो एक माता के हृदय में होते हैं, परंतु उसका विकास नहीं हुआ था। उसका हृदय उस भूमि की तरह था, जिसमें बीज तो पड़ा हुआ है, पर उसको सींचकर और इस प्रकार बीज को प्रस्फुाटित करके भूमि के उपर लानेवाला कोई नहीं। इसीलिए उसका हृदय उन बच्चों की और खिंचता तो था, परंतु जब उसे ध्याेन आता था कि ये बच्चेि मेरे नहीं, दूसरे के है, तब उसके हृदय में उनके प्रति द्वेष उत्पन्नत होता था, घृणा पैदा होती थी। विशेकर उस समय उनके द्वेष की मात्रा और भी बढ़ जाती थी, जब वह यह देखती थी कि उनके पतिदेव उन बच्चोंउ पर प्राण देते हैं, जो उनके(रामेश्व री के) नहीं हैं।

शाम का समय था। रामेश्ववरी खुली छत पर बैठी हवा खा रही थी। पास उनकी देवरानी भी बैठी थी । दोनों बच्चेव छत पर दौड़-दौड़कर खेल रहे थे। रामेश्व री उनके खेल को देख रही थी। इस समय रामेश्व री को उन बच्चों का खेलना-कूदना बड़ा भला मालुम हो रहा था। हवा में उड़ते हुए उनके बाल, कमल की तरह खिले उनके नन्हेंउ -नन्हेंन मुख, उनकी प्याारी-प्याथरी तोतली बातें, उनका चिल्लाना, भागना, लौट जाना इत्यांदि क्रीड़ाएँ उसके हृदय को शीतल कर रहीं थीं। सहयसा मनोहर अपनी बहन को मारने दौड़ा। वह खिलखिलाती हुई दौड़कर रामेश्वारी की गोद में जा गिरी। उसके पीछे-पीछे मनोहर भी दौड़ता हुआ आया और वह भी उन्हीं की गोद में जा गिरा। रामेश्व री उस समय सारा द्वेष भूल गई। उन्होंनने दोनों बच्चोंर को उसी प्रकार हृदय से लगा लिया, जिस प्रकार वह मनुष्यद लगाता है, जो कि बच्चों के लिए तरस रहा हो। उन्होंदने बड़ी सतृष्णपता से दोनों को प्या,र किया। उस समय यदि कोई अपरिचित मनुष्यह उन्हें देखता, तो उसे यह विश्वानस होता कि रामेश्वीरी उन बच्चोंे की माता है।

दोनों बच्चेव बड़ी देर तक उसकी गोद में खेलते रहे। सहसा उसी समय किसी के आने की आहट पाकर बच्चोंम की माता वहाँ से उठकर चली गई।

''मनोहर, ले रेलगाड़ी।'' कहते हुए बाबू रामजीदास छत पर आए। उनका स्वकर सुनते ही दोनों बच्चेँ रामेश्वउरी की गोद से तड़पकर निकल भागे। रामजीदास ने पहले दोनों को खूब प्या र किया, फिर बैठकर रेलगाड़ी दिखाने लगे।

इधर रामेश्वरी की नींद टूटी। पति को बच्चोंब में मगन होते देखकर उसकी भौहें तन गईं । बच्चोंख के प्रति हृदय में फिर वही घृणा और द्वेष भाव जाग उठा।

बच्चोंी को रेलगाड़ी देकर बाबू साहब रामेश्वयरी के पास आए और मुस्कीराकर बोले- ''आज तो तुम बच्चों को बड़ा प्याेर कर रही थीं। इससे मालूम होता है कि तुम्हाारे हृदय में भी उनके प्रति कुछ प्रेम अवश्यब है।''

रामेश्वथरी को पति की यह बात बहुत बुरी लगी। उसे अपनी कमजोरी पर बड़ा दु:ख हुआ। केवल दु:ख ही नहीं, अपने उपर क्रोध भी आया। वह दु:ख और क्रोध पति के उक्ते वाक्य से और भी बढ़ गया। उसकी कमजोरी पति पर प्रगट हो गई, यह बात उसके लिए असह्य हो उठी।

रामजीदास बोले- ''इसीलिए मैं कहता हूँ कि अपनी संतान के लिए सोच करना वृथा है। यदि तुम इनसे प्रेम करने लगो, तो तुम्हें ये ही अपनी संतान प्रतीत होने लगेंगे। मुझे इस बात से प्रसन्नतता है कि तुम इनसे स्नेचह करना सीख रही हो।''

यह बात बाबू साहब ने नितांत हृदय से कही थी, परंतु रामेश्वलरी को इसमें व्यं्ग की तीक्ष्ण गंध मालूम हुई। उन्होंाने कुढ़कर मन में कहा- ''इन्हेंअ मौत भी नहीं आती। मर जाएँ, पाप कटे! आठों पहर आँखो के सामने रहने से प्याखर को जी ललचा ही उठता है। इनके मारे कलेजा और भी जला करता है।''

बाबू साहब ने पत्नी। को मौन देखकर कहा- ''अब झेंपने से क्या लाभ। अपने प्रेम को छिपाने की चेष्टाा करना व्यखर्थ है। छिपाने की आवश्य कता भी नहीं।"

रामेश्वारी जल-भभुनकर बोली- "मुझे क्यां पड़ी है, जो मैं प्रेम करूँगी? तुम्हीं को मुबारक रहे। निगोड़े आप ही आ-आ के घुसते हैं। एक घर में रहने में कभी-कभी हँसना बोलना पड़ता ही है। अभी परसों जरा यों ही ढकेल दिया, उस पर तुमने सैकड़ों बातें सुनाईं। संकट में प्राण हैं, न यों चैन, न वों चैन।"

बाबू साहब को पत्नीं के वाक्यं सुनकर बड़ा क्रोध आया। उन्होंरने कर्कश स्व र में कहा- "न जाने कैसे हृदय की स्त्रीर है ! अभी अच्छीी-खासी बैठी बच्चों से प्या र कर रही थी। मेरे आते ही गिरगिट की तरह रंग बदलने लगी । अपनी इच्छाा से चाहे जो करे, पर मेरे कहने से बल्लियों उछलती है। न जाने मेरी बातों में कौन-सा विष घुला रहता है। यदि मेरा कहना ही बुरा मालुम होता है, तो न कहा करूँगा। पर इतना याद रखो कि अब कभी इनके विषय में निगोड़े-सिगोड़े इत्याहदि अपशब्द निकाले, तो अच्छाइ न होगा । तुमसे मुझे ये बच्चेग कहीं अधिक प्यातरे हैं।''

रामेश्व री ने इसका कोई उत्तकर न दिया । अपने क्षोभ तथा क्रोध को वे आँखो द्वारा निकालने लगीं।

जैसे-ही-जैसे बाबू रामजीदास का स्नेिह दोनों बच्चों पर बढ़ता जाता था, वैसे-ही-वैसे रामेश्वछरी के द्वेष और घृणा की मात्रा भी बढ़ती जाती थी। प्राय: बच्चोंि के पीछे पति-पत्नी़ में कहा सुनी हो जाती थी, और रामेश्व्री को पति के कटु वचन सुनने पड़ते थे। जब रामेश्वारी ने यह देखा कि बच्चों के कारण ही वह पति की नज़र से गिरती जा रही हैं, तब उनके हृदय में बड़ा तूफा़न उठा । उन्होंीने यह सोचा- पराये बच्चों के पीछे यह मुझसे प्रेम कम करते जाते हैं, हर समय बुरा-भला कहा करते हैं, इनके लिए ये बच्चेप ही सब कुछ हैं, मैं कुछ भी नहीं। दुनिया मरती जाती है, पर दोनों को मौत नहीं। ये पैदा होते ही क्यों् न मर गए। न ये होते, न मुझे ये दिन देखने पड़ते। जिस दिन ये मरेंगे, उस दिन घी के दिये जलाउँगी। इन्हों्ने ही मेरे घर का सत्याेनाश कर रक्खा है।च्‍चों और मुस्केराकर बोले-''आज

4

इसी प्रकार कुछ दिन व्य।तीत हुए। एक दिन नियमानुसार रामेश्वबरी छत पर अकेली बैठी हुई थीं उनके हृदय में अनेक प्रकार के विचार आ रहे थे। विचार और कुछ नहीं, अपनी निज की संतान का अभाव, पति का भाई की संतान के प्रति अनुराग इत्याचदि। कुछ देर बाद जब उनके विचार स्वीयं उन्हींभ को कष्ट दायक प्रतीत होने लगे, तब वह अपना ध्याकन दूसरी और लगाने के लिए टहलने लगीं।

वह टहल ही रही थीं कि मनोहर दौड़ता हुआ आया । मनोहर को देखकर उनकी भृ‍कुटी चढ़ गई। और वह छत की चहारदीवारी पर हाथ रखकर खड़ी हो गईं।

संध्या का समय था । आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ रही थीं । मनोहर कुछ देर तक खड़ा पतंगों को देखता और सोचता रहा कि कोई पतंग कटकर उसकी छत पर गिरे, क्या़ आनंद आवे ! देर तक गिरने की आशा करने के बाद दौड़कर रामेश्वोरी के पास आया, और उनकी टाँगों में लिपटकर बोला- ''ताई, हमें पतंग मँगा दो।'' रामेश्वदरी ने झिड़क कर कहा- ''चल हट, अपने ताऊ से माँग जाकर।''

मनोहर कुछ अप्रतिभ-सा होकर फिर आकाश की ओर ताकने लगा। थोड़ी देर बाद उससे फिर रहा न गया। इस बार उसने बड़े लाड़ में आकर अत्यंोत करूण स्वार में कहा- ''ताई मँगा दो, हम भी उड़ाएँगे।''

इन बार उसकी भोली प्रार्थना से रामेश्वंरी का कलेजा कुछ पसीज गया। वह कुछ देर तक उसकी और स्थिर दृष्टि से देखती रही । फिर उन्हों्ने एक लंबी साँस लेकर मन ही मन कहा- यह मेरा पुत्र होता तो आज मुझसे बढ़कर भाग्य वान स्त्रीथ संसार में दूसरी न होती। निगोड़ा-मरा कितना सुंदर है, और कैसी प्या्री- प्यातरी बातें करता है। यही जी चाहता है कि उठाकर छाती से लगा लें।

यह सोचकर वह उसके सिर पर हाथ फेरनेवाली थीं कि इतने में उन्हें मौन देखकर बोला- ''तुम हमें पतंग नहीं मँगवा दोगी, तो ताऊजी से कहकर तुम्हें पिटवायेंगे।''

यद्यपि बच्चेउ की इस भोली बात में भी मधुरता थी, तथापि रामेश्वऊरी का मुँह क्रोध के मारे लाल हो गया। वह उसे झिड़क कर बोली- ''जा कह दे अपने ताऊजी से देखें, वह मेरा क्या‍ कर लेंगे।''

मनोहर भयभीत होकर उनके पास से हट आया, और फिर सतृष्ण नेत्रों से आकाश में उड़ती हुई पतंगों को देखने लगा।

इधर रामेश्व री ने सोचा- यह सब ताउजी के दुलार का फल है कि बालिश्तश भर का लड़का मुझे धमकाता है। ईश्वार करे, इस दुलार पर बिजली टूटे।

उसी समय आकाश से एक पतंग कटकर उसी छत की ओर आई और रामेश्व री के उपर से होती हुई छज्जेत की ओर गई। छत के चारों ओर चहार-दीवारी थी । जहाँ रामेश्ववरी खड़ी हुई थीं, केवल वहाँ पर एक द्वार था, जिससे छज्जेध पर आ-जा स‍‍कते थे। रामेश्वओरी उस द्वार से सटी हुई खड़ी थीं। मनोहर ने पतंग को छज्जे पर जाते देखा । पतंग पकड़ने के लिए वह दौड़कर छज्जेो की ओर चला। रामेश्वरी खड़ी देखती रहीं । मनोहर उसके पास से होकर छज्जे् पर चला गया, और उससे दो ‍फिट की दूरी पर खड़ा होकर पतंग को देखने लगा। पतंग छज्जे पर से होती हुई नीचे घर के आँगन में जा गिरी । एक पैर छज्जे की मुँड़ेर पर रखकरर मनोकर ने नीचे आँगन में झाँका और पतंग को आँगन में गिरते देख, वह प्रसन्नडता के मारे फूला न समाया। वह नीचे जाने के लिए शीघ्रता से घूमा, परंतु घूमते समय मुँड़ेर पर से उसका पैर फिसल गया। वह नीचे की ओर चला । नीचे जाते-जाते उसकेन दोनों हाथों में मुँड़ेर आ गई । वह उसे पकड़कर लटक गया और रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्लाजया ''ताई!''

रामेश्व़री ने धड़कते हुए हृदय से इस घटना को देखा। उसके मन में आया कि अच्छाद है, मरने दो, सदा का पाप कट जाएगा। यही सोच कर वह एक क्षण रूकी। इधर मनोहर के हाथ मुँड़ेर पर से फिसलने लगे। वह अत्यंोत भय तथा करुण नेत्रों से रामेश्व री की ओर देखकर चिल्लाँया- "अरी ताई!" रामेश्व री की आँखें मनोहर की आँखों से जा मिलीं। मनोहर की वह करुण दृष्टि देखकर रामेश्वीरी का कलेजा मुँह में आ गया। उन्होंहने व्या कुल होकर मनोहर को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। उनका हाथ मनोहर के हाथ तक पहुँचा ही कि मनोहर के हाथ से मुँड़ेर छूट गई। वह नीचे आ गिरा। रामेश्व़री चीख मार कर छज्जेक पर गिर पड़ीं।

रामेश्व री एक सप्ताचह तक बुखार से बेहोश पड़ी रहीं। कभी-कभी जोर से चिल्लान उठतीं, और कहतीं- "देखो-देखो, वह गिरा जा रहा है- उसे बचाओ, दौड़ो- मेरे मनोहर को बचा लो।" कभी वह कहतीं- "बेटा मनोहर, मैंने तुझे नहीं बचाया। हाँ, हाँ, मैं चाहती तो बचा सकती थी- देर कर दी।" इसी प्रकार के प्रलाप वह किया करतीं।

मनोहर की टाँग उखड़ गई थी, टाँग बिठा दी गई। वह क्रमश: फिर अपनी असली हालत पर आने लगा।

एक सप्ता ह बाद रामेश्व री का ज्वईर कम हुआ। अच्छीफ तरह होश आने पर उन्होंवने पूछा- "मनोहर कैसा है?"

रामजीदास ने उत्ततर दिया- "अच्छाव है।"

रामेश्वसरी- "उसे पास लाओ।"

मनोहर रामेश्वतरी के पास लाया गया। रामेश्वअरी ने उसे बड़े प्या र से हृदय से लगाया। आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई, हिचकियों से गला रुँध गया। रामेश्वचरी कुछ दिनों बाद पूर्ण स्व स्थग हो गईं। अब वह मनोहर और उसकी बहन चुन्नीर से द्वेष नहीं करतीं। और मनोहर तो अब उसका प्राणाधार हो गया। उसके बिना उन्हें एक क्षण भी कल नहीं पड़ती।
 

विश्वंरभरनाथ शर्मा कौशिक


 

Top  
 

Hindinest is a website for creative minds, who prefer to express their views to Hindi speaking masses of India.

 

 

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com