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लहूलुहान कौन?
सपना, सचमुच ऐसी आहट है जो पारदर्शी सुख के बीज बोता है, एक ऐसा आगत जो
खुशनुमा रंगीन रास्तों से परिचित कराता है, जिन्दगी की एकरसता के विपरीत
उसे रंगों से भर देता है। पलभर में हम आकाश में उड़ते हैं और अगले ही पल
पानी में तैर भी रहे होते हैं। रंगीन, सुन्दर, हसीन दुनिया। ज़िंदगी खुरदरी
और पथरीली हो सकती है पर आहत मन को सुकून पहुंचाते सपने खुशबूदार और चमकीले
होते हैं। सपनों से ही जीवन है।
हम चाहें तो ऐश्वर्या राय से शादी भी कर लें और हनीमून भी मना लें। मज़े की
बात है अभिषेक बच्चन कुछ नहीं कर पाएगा।
सबसे बड़ी बात सपनों के चांद पर कोई छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, ऊंच-नीच नहीं
होता। यहां न कोई जातिवाद पनप सकता है न भाई भतीजावाद विकसित हो सकता है।
हर इन्सान राजा है, हर इन्सान स्वामी है फिर चाहे पिन्टू राम हो या कोई भी
और।
सपनों की इस सुनहरी नदी में नीली मछली की तरह पिन्टू राम भी तैर सकता है।
उसकी मैडम का बेटा, बेटी, मैडम और साहब भी। पूरा परिवार और नौकर पिन्टू राम
साथ-साथ भी हो सकते हैं। नदी के मुहाने पर कहीं बोर्ड नहीं लगा होगा कि
पिन्टू नीली मछली की शक्ल अख्तियार नहीं कर सकता। धप-धप, धप-धप कर पांचों
मछलियां तैर रही थीं। कभी नीचे जाती कभी ऊपर आ जातीं। मस्ती का आलम था।
मैडम पीली मछली बन गई, बेटी हरी मछली, साहब भूरी-पीली मछली बन गए और बेटा
नीली मछली। पिन्टू भी नीली मछली था। मैडम का बेटा पिन्टू राम को नीली मछली
समझ रहा था पिन्टू राम नहीं। मैडम के बेटे की नज़रों में पिन्टू के लिए कोई
हिकारत नहीं थी। दोनों नीली मछलियां साथ-साथ तैर रही थीं।
किसी ने खींच कर चादर उतार दी थी और उसे झकझोर दिया था।
‘‘ड्यूटी नहीं जाना।’’ मां की कर्कश आवाज़ थी।
नीली मछली एकदम छुप गई। वह मां की आवाज़ से डर गई। पिन्टू ने आँख खोली तो
सामने मां थी। सपनों की विघ्न देवी। और पिन्टू था टूटी चारपाई पर। जिसका एक
पाया हिल रहा था और चारपाई उसी ओर झुकी हुई थी। पिन्टू के हिलते ही चारपाई
भी चीं-चीं बोलने लगती थी। चारपाई में बुना हुआ बाण कम ही रह गया था।
पिन्टू का धड़ उसमें गहरे धंस गया था।
उसने घड़ी देखी तो पीली मछली चिल्लाती मैडम में बदल गई। पिन्टू राम बिजली की
गति से उठकर चारपाई से नीचे खड़ा हो गया। उसने कोने में रखी चप्पल पहनी जो
नाम की चप्पल थी, पीछे से इतनी घिस गई थी कि एड़ी ज़मीन पर ही रहती थी।
भाग कर टूटी-फूटी साइकिल पर सवार हो गया। ‘‘कुछ खा के जा पिन्टू’’-मां
आवाज़़ देती रही। उसने न चारपाई पिछवाड़े रखी, न मंजन किया, न नित्य कर्म
किया और न नहाया।
‘‘डांट खानी है अभी जा के।’’ कहते हुए साइकिल भगा ली। मां कलपती रही।
पिन्टू अन्धाधुन्ध साइकिल चला रहा था। दो बार गहरे गड्ढों में पड़कर साइकिल
उछल पड़ी और वह गिरते-गिरते बचा।
पिन्टू को सिर्फ़ मैडम के गुस्से से मुड़ते होंठ, कड़कती आँखें और लहराते हाथ
ही नज़र आ रहे थे।
पिन्टू राम ने सहमे हाथों से घंटी बजाई।
एकदम मैडम अवतरित हो गई और लगीं श्राप देने-
‘‘ये टाइम है तेरे आने का। तुझे कभी टाइम की सैंस आएगी भी या नहीं। तभी तो
तुम लोग तरक्की नहीं कर सकते। जहां हो सारी जिन्दगी वहीं सड़ते रहते हो।’’
पिन्टू को मैडम के शब्द किसी श्राप से कम नहीं लगते थे।
पिन्टू को पता था उसे क्या करना है। वह आते ही काम में लग गया। मैडम बाथरूम
में चली गई। साहब बालकनी में चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ रहे थे।
पिन्टू को बड़ा अच्छा लगता यह मंज़र। लेकिन पिन्टू जानता था कि इस मंज़र की
खुशबू और चमक तो वह उसी चूतड़ धंसती चारपाई पर ही रात को अनुभव कर सकता है।
वह फुर्ती से अपने कामों में लग गया। बच्चे स्कूल चले गए। मैडम पढ़ाने और
साहब आॅफिस। पिन्टू अब घर में अकेला था। कुछ घंटों के लिए इस घर का राजा।
सारा काम पड़ा था पर उसने टी.वी. चला लिया। आने के बाद तो मैडम एक पल भी
नहीं बैठने देती।
पिन्टू ने फ्रिज में से निकालकर ठण्डा पानी पिया। ब्रैड पर मलाई लगाकर खाई।
(जबकि मैडम उसके नाश्ते के लिए रात की बची रोटी और दाल रख कर गई थी।) ब्रैड
मलाई खाने के बाद उसने वह बासी दाल और रोटी कूड़े में फैंक दी। कमरे में
पर्दे खींचे, ए.सी. चलाया और शहंशाह की तरह बैड पर लेटकर टी.वी. देखने लगा।
उसने बिल्कुल साहब के अन्दाज़ में बैठकर आधा घण्टा मैच देखा।
टी.वी. बन्द करके वह आँखें बन्द करके लेट गया। वह फिर से नीली मछली में
तब्दील हो गया और मैडम के बेटे के साथ खेलने लगा।
घंटी बजी। नीली मछली डर कर छुप गई।
पिन्टू समझ गया कूड़े वाला होगा।
वह अन्दर से डस्टबीन उठा कर गया। दरवाजा खोला और कूड़े की बड़ी बाल्टी में
सारा कूड़ा उलट दिया। अंश-अंश बिखरे अपने सपने के टुकड़ों को समेट कर अन्दर आ
गया। जब तक मैडम और बच्चे आए पिन्टू राम सब काम निबटा चुका था। घर शीशे की
तरह चमक रहा था।
खाना-खाकर, थोड़ी देर टी.वी. देखकर बच्चे पढ़ने बैठ गए और मैडम उन्हें पढ़ाने
लगी।
पिन्टू राम जब अपनी मैडम के बच्चों को पढ़ते देखता तो उसका भी मन करता पढ़ने
को और एकाएक याद हो आते गांव के मास्टर जी। नज़र आती उनके हाथ की छड़ी और
दर्द से दुखते अपने हाथ। फिर साकार हो उठता उनका चिल्लाता चेहरा और कराहता
अपना मन।
मन मसोस कर रह जाता पिन्टू राम। लेकिन कभी कभार कुछ अच्छा तो नौकर की
ज़िन्दगी में भी भूले भटके घटित हो सकता है और वही हुआ। मां सरस्वती आ बैठी
उसकी जीभ पर और उससे बुलवा ही लिया था-‘‘मैडम दो महीने की छुट्टी में मुझे
पढ़ा देंगी?’’ क्या मजाल मैडम की जो मां सरस्वती की बात को टाल जाए। श्राप
का इन्तजार करते पिन्टू को तो जैसे वरदान मिल गया था।
पर यह उसकी खुशकिस्मती ही थी कि मैडम ने उन्हीं दिनों साक्षरता अभियान के
सैमिनार किए थे और अपने डायरैक्टर से इस कदर प्रभावित थीं कि उसके कहने से
सारी दिल्ली को साक्षर करने निकल पड़ती फिर यह तो एक बच्चे को साक्षर करने
का सवाल था। सो पिन्टू राम का पढ़ना तय हुआ। उसके पैर ज़मीन पर नहीं पड़ रहे
थे। अब मैडम उसे पीली मछली ही लगती। सुनहरी नदी में सुन्दर पीली मछली जिसके
हाथ में एक छोटा-सा कैदा था।
अ अनार, आ आम, इ इमली, ई ईख, मैडम के स्वर का अनवरत अनुकरण करता पिन्टू
राम। वह नीचे फर्श पर दोनों टांगों के बीच अपना चेहरा धंसाए बैठा था। सामने
बाल-अक्षर भाग 1 खुला था। वह बार-बार स्वर और व्यंजन दोहरा रहा था। आँखें
बन्द करता, व वर्षा , व वर्षा कई बार दोहराता। ध धनुष, ध धनुष, फिर आँखें
बन्द करके दोहराता। इस बीच दोहराते हुए उसका पूरा शरीर हिलता रहता जैसे इस
प्रक्रिया से इन व्यंजनों को भीतर उतार रहा हो।
आजकल वह दिन रात इन स्वर-व्यंजनों की जुगाली करता। रात में भी जब सोता तो
सब तरफ वर्ण ही घूमते नज़र आते। पिन्टू को अपना स्वरूप नज़र आता तो बस आगे
पीछे हिलता, घोटता पिन्टू राम।
आजकल पिन्टू राम घर का काम भी मन लगाकर करता बिल्कुल मैडम के मन मुताबिक।
ताकि वह खुश रहें और पिन्टू की पढ़ाई अबाध गति से चलती रहे। पिन्टू को एकाएक
सब अच्छा लगने लग गया। वह पूरे परिवार के प्रति कृतज्ञ महसूस करने लगा था।
मैडम कभी डांटती भी तो श्राप देने वाली औरत नहीं लगती थी बल्कि अध्यापिका
लगती थी जिसका मोटी बुद्धि से वास्ता पड़ा था।
उसने नीली मछली के सपने देखने बन्द कर दिए थे। उसका जीवन दिशा ले रहा था।
उसके भीतर का बोध पनपने लगा था। नीली मछली नीली किताब में बदल गई थी और नदी
का लहराता जल शिक्षा की गंगोत्री बन गई थी जिसमें ज्ञान की अमृतधारा बह रही
थी जो उसे भीतर-बाहर से धो-धोकर उसके नए व्यक्तित्व का निर्माण करेगी।
‘‘आज तू यहां से जाएगा नहीं जब तक पूरी वर्णमाला तुझे याद नहीं हो जाती और
लिखने का अभ्यास नहीं कर लेता।’’ मैडम ने फरमान जारी किया था।
पिन्टू राम नतमस्तक हो गया था।
पूरी वर्णमाला याद हो गई तो पिन्टूराम नोटबुक में लिखने लगा।
लिखने के बाद जब मैडम से चैक कराने लगता तो ‘‘ये ‘क्ष’ किसने लिखा।’’ मैडम
ने अनमने भाव से पूछा।
‘‘‘क्ष’ क्षत्रिय भूल गया था। आप घर पर नहीं थीं इसलिए साथ वाली मैडम से
पूछ लिया था।’’ पिन्टू ने बड़े सहज भाव से कह दिया।
‘‘तू मुझसे पढ़ रहा है या उससे।’’ मैडम चिल्लाई थी।
‘‘आप से।’’ पिन्टू सहमी आवाज़़ में बुदबुदाया था।
‘‘फिर....मैंने बताने से मना किया था जो उससे पूछने गया। हफ्ते भर से तेरे
साथ दिमाग खपा रही हूं और तू जाकर उससे पूछ रहा है।’’
पिन्टू राम को समझ नहीं आ रहा था कि क्या उससे इतनी बड़ी गलती हो गई है कि
मैडम को इतना गुस्सा आ जाए। फिर अपने ही ऊपर गुस्सा आने लगा कि क्यों हर
बार कोई न कोई गलती हो जाती है उससे। कभी वह भूल जाता है और कभी कोई और
गलती कर बैठता है।
पर उसका बालमन मैडम को गुस्सा आने का कारण समझ नहीं पा रहा था। फिर भी उसने
मन ही मन निश्चय कर लिया था कि अब कभी साथ वाली मैडम से नहीं पूछेगा। चाहे
इस मैडम से कितनी भी डांट खानी पड़े पर साथ वाली मैडम से नहीं पूछूंगा।
पिन्टू राम जी जान से घोटने में लगा था।
‘‘मैं किटी पार्टी में जा रही हूं। साहब आएं तो हाथ धोकर पहले पानी देना
फिर चाय बना देना।’’ पिन्टू राम ने मैडम की आवाज़़ नहीं सुनी थी वह तो
वर्णमाला की चिल्ल पों में व्यस्त था। मैडम पूरी शक्ति से चिल्लाई शायद आस
पड़ोस में भी सुनाई दिया होगा। पिन्टू को लगा जैसे किसी ने लात घूंसों से
पीट कर कान मरोड़ दिया हो। पिन्टू ने मुड़कर देखा तो जैसे क्रोधित काली माता
के दर्शन हो गए।
पिन्टू चुपचाप खड़ा हो गया बिल्कुल अपराधी की तरह।
‘‘सुनाई नहीं देता क्या? मैं इतनी बार बुला चुकी हूं।’’
पिन्टू चुप रहा।
‘‘मैं किटी पार्टी में जा रही हूं। साहब आने वाले हैं। उन्हें पहले पानी
देना फिर चाय बना देना।’’ मैडम ने बात दोहरा दी।
पिन्टू का बाल मन लरजने लगा। चाहे कोई ढीठ भी हो जाए पर अपमान का दंश तो
अन्दर तक आहत करता है। दिल पर पड़ी जबर्दस्त खरोंचे उसके भीतर एक दर्द पैदा
करती हैं और वह धम्म से बैठ जाता है। उसका मन किया भाग जाए कहीं। क्यों
मैडम उसके साथ ऐसे बोलती हैं? जबकि सारा काम आज कल तो उनके मन मुताबिक हो
रहा है।
पिन्टू राम से पढ़ा भी नहीं जा रहा था। थोड़ी देर के लिए उसने वर्णों को सरका
दिया था। वह वैसे ही उकड़ूं बैठा था और उसकी आँखों के सामने थी खाली ज़मीन जो
न खुरदरी थी न समतल बस ज़मीन थी। उसे मां की बात याद हो आई। एक बार ऐसे ही
मैडम के स्वभाव से दुःखी बैठा था। मां ने कारण पूछा तो बता दिया था।
‘‘सब पर चिल्लाती या तुझ पर ही बस।’’
‘‘बच्चों पर कुछ कम पर मुझ पर और साहब पर ज्यादा।’’
‘‘तो तरस खा उस पर।’’
पिन्टू राम को मां की बात का मतलब कभी समझ नहीं आया।
मैडम तैयार होकर चली गई।
उसने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया।
अब वह घर पर अकेला था, बच्चे खेलने गए थे।
वह चाहता तो इस निर्विघ्न एकान्त का फायदा उठा सकता था पर उसका पढ़ने का मन
नहीं हुआ।
घंटी बजी।
वह जानता था साहब होंगे।
उसने दरवाज़ा खोला। साहब ही थे।
उसने साहब का बैग यथास्थान रख दिया।
उन्हें पानी लाकर दिया।
पानी पीकर साहब बाथरूम में चले गए।
जब तक साहब नहाकर बाहर निकले तब तक चाय तैयार थी। वह ट्रे में चाय का कप और
उनके पसन्द के बिस्कुट और नमकीन रख कर ले गया।
साहब ने टी.वी. आॅन कर लिया और चाय की चुस्कियों के साथ मैच देखने लगे।
साहब का यह रूप भी पिन्टू राम को बहुत पसन्द था। सुबह अखबार पढ़ते साहब और
शाम को इत्मीनान से मैच देखते साहब। पिन्टू राम भी बड़ा होकर साहब के ये
दोनों रूप अपनाना चाहता था।
ताज्जुब की बात है अपने बाप का कोई रूप अपनाने के बारे में पिन्टू राम
क्यों नहीं सोचता? शायद बालक होते हुए भी उसे पता है बाप तो बाप है, उसमें
चुनाव की कोई सम्भावना नहीं। लाख ना पसन्द हो बाप, पर कहीं न कहीं खून
बोलता है।
पिन्टू राम भी वहीं खड़ा होकर मैच देखने लगा।
उसे खड़ा देख साहब बोले ‘‘और भई पिन्टू राम, तेरी पढ़ाई कहां तक पहुंची?’’
साहब ने फिर नज़रें टी.वी. से मिला ली।
‘‘अभी तो पहला पाठ चल रहा है।’’
‘‘मन लगाकर पढ़ना। पढ़ाई बिना आदमी की ज़िंदगी जानवर जैसी है। पढ़ाई बीच में मत
छोड़ना और न मैडम के गुस्से से घबराना।’’
पिन्टू को लगा किसी ने जख्म सहला दिए। उसका क्षत्-विक्षत गरूर जैसे किसी ने
जोड़ दिया। मन के शीशे की टूटी बिखरी किरचें फिर सिमट कर साबुत शीशा बन गईं।
उसकी आँखों में नदी तैर गई। सपने वाली नदी नहीं। टूटते-कटते मन की पीड़ा की
नदी।
‘‘हिम्मत रख। स्कूल में पढ़ता तो भी मैडम डांटती। यहां घर में अगर डांट पड़
भी गई तो मन मैला मत करना। पढ़ाई छोड़ मत देना। ज़िन्दगी में बड़ी काम आएगी।’’
साहब ने पहले गाल, फिर कन्धा थपथपाया था।
आँखों की नदी उफान पर थी। उसने फैलना शुरु कर दिया था और रास्तों पर परसने
लगी थी।
‘‘जा कर पानी पी ले’’-साहब ने कहा था।
पिन्टू का लरजता, तड़पता मन जैसे पानी के एक ठंडे गिलास की जरूरत महसूस कर
रहा था। साहब की बात उसकी समझ में आ गई थी। पढ़ने का इससे अच्छा मौका फिर
नहीं मिलेगा। मैडम कम से कम उल्टे हाथ पर डंडे तो नहीं बरसाती सिर्फ़ बातों
के तीर छोड़ती हैं। चाहे तकलीफ़ उससे भी होती है पर क्या करे मजबूरी है।
वह फिर अपनी जगह पर आ गया। उसके सामने बाल-अक्षर भाग 1 खुला था। फिर वही
वर्णमाला और वह। बीच-बीच में उभरती स्वर-व्यंजनों से बने शब्दों की
तस्वीरें। कभी धनुष उभर आता, कभी गमला, कभी चरखा और कभी लट्टू। उसका दिल
किया लट्टू खरीद ले और उससे खेले। पिछली बार जब गांव गया था तो सारा दिन
लट्टू ही तो खेलता था। उसका मन चुपचाप गांव का एक चक्कर लगा आया।
चाचा-चाची, दादी, दोस्त सब से मिल आया और न चाहते हुए भी रास्ते में मास्टर
जी मिल ही गए।
शीघ्र ही उसने अपने आपको विचारों के इस मकड़जाल से बाहर निकाल लिया। उसने मन
ही मन निश्चय कर लिया था कि इस पहले पाठ को वह आज ही समाप्त कर डालेगा।
उसने निश्चय कर लिया था कि उसे दिन रात एक करके पढ़ना है ताकि वह जल्दी से
पढ़ना सीख सके।
मैडम जैसे ही पार्टी से आएंगी वह पूरी वर्णमाला उन्हें सुना देगा ताकि अगला
पाठ शुरु हो सके और वह जल्दी ही इस यात्रा के अन्तिम छोर तक पहुंच सके। और
खुली आँखों से ही उसने सपना देख डाला। वह किताब पढ़ रहा है, अखबार पढ़ रहा
है, ट्रक के पीछे लिखा पढ़ रहा है, दीवारों पर लिखा पढ़ रहा है, खाने की
रेहड़ी पर लिखा पढ़ रहा है, हर चीज के पैकेट पर लिखा पढ़ रहा है।
उसे साफ और स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि एक मात्र यही रास्ता है जो उसे साहब
जैसा बना सकता है। शान्त पर रौबदार, सलीकेदार, सुलझा और शालीन आदमी। जिससे
बात करने को जी चाहे। उसका दिल करता पूछे साहब से कि आप जैसा बनने के लिए
कितना पढ़ना पड़ता है। फिर निराश हो जाता। उसे याद आ जाता वह तो बहुत बड़ा हो
गया है और अभी तो क ख ग सीख रहा है। उसे कहीं भीतर कोई बता रहा था कि साहब
जैसा बनना नामुमकिन है। हम लोग ऐसे नहीं बन सकते। उसे याद आया एक बार चाची
मां को बता रही थी उसका भाई भी कहीं किसी के घर नौकर था बस मेहनत और
ईमानदारी से वह बड़ा आदमी बन गया और आज अपनी गाड़ी में घूमता है। पिन्टू राम
सशंकित हो उठा।
घंटी बजी थी।
पिन्टू राम ने दरवाजा खोला तो मैडम थी। मैडम की शक्ल बता रही थी कि उनका
मूड खराब है। आमतौर पर किसी पार्टी से आते वक्त उनका मूड ठीक होता है वो
खुश होती हैं।
मैडम ने आते ही पर्स सोफे पर पटक दिया।
वह पिन्टू राम की ओर मुखातिब हुई।
पिन्टू डर गया था।
‘‘तेरी साथ वाली मैडम आज सारी पार्टी में यही बताती रही कि पिन्टू राम को
पढ़ाते-पढ़ाते उसे सिर दर्द हो जाता है।’’
पिन्टू हैरान था।
बोलती-बोलती मैडम बैडरूम में चली गई।
फिर साहब से बोली, ‘‘कैसी बेशर्म औरत है। हमेशा पार्टी में लेट आती है। आज
झूठ फैलाना था तो टाइम से पहले ही पहुंच गई। जानबूझकर मुझसे पहले पहुंची और
सबको बताती रही कि पिन्टू राम को पढ़ना सिखा रही है।’’
‘‘क्या हुआ? शान्त हो जाओ।’’ साहब ने मैडम को शान्त करने का प्रयास किया।
शायद उनके मैच में विघ्न पड़ रहा था।
‘‘कैसे शान्त हो जाऊं। मेहनत उसके साथ मैं कर रही हूं। और यश वो लूट रही
है। एक दिन पिंटू ने उससे एक संयुक्त अक्षर क्या पूछ लिया कि वो तो.....’’
‘‘क्या फरक पड़ता है इन सबसे। तुम एक नेक काम कर रही हो। बस यही याद रखो
बाकी सब भूल जाओ।’’
‘‘कैसे भूल जाऊं। आज पूरी पार्टी में सब औरतें उसे यही कहती रहीं कि वह
बहुत महान कार्य कर रही है वह बड़े पुण्य का काम है। बिना कुछ किए वह पुण्य
कमा रही है।’’
‘‘यह महान काम तो तुम कर रही हो और पुण्य का फल देने वाले की तो दृष्टि
व्यापक है उसे तो सब पता है। तुम ऐसे ही परेशान हो रही हो।’’
साहब मैडम को समझा रहे थे।
मैडम कुछ नहीं बोली। साहब की बात शायद उन्हें समझ में आ गई कि इस पुण्य का
फल तो उन्हें ही मिलेगा।
‘‘नेकी कर कुएं में डाल।’’ साहब बोले।
उन्होंने मैडम का कन्धा थपथपाया और आँखों ही आँखों में उन्हें आश्वस्त कर
दिया कि इस काम की महानता का फल केवल उन्हें ही मिलेगा।
मैडम शान्त हो गई। पिन्टू राम को अच्छा लगा कि साहब ने कितनी जल्दी मैडम को
शान्त कर दिया। तभी तो साहब का हर रूप पिन्टू को अच्छा लगता है। साहब सचमुच
लाजवाब हैं।
पिन्टू राम भी हैरान था। उसे बस इतना समझ आया कि साथ वाले फ्लैट वाली मैडम
बड़ी झूठी है। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि अब उससे कभी कुछ नहीं
पूछेगा सिर्फ़ अपनी मैडम से पूछेगा चाहे उसे कितनी भी डांट खानी पड़े।
‘‘पिन्टू मैडम के लिए ठंडा-ठंडा पानी ला।’’ साहब बोले पिन्टू फुर्ती से
जाकर पानी ले आया।
मैडम ने पानी पी लिया।
मैडम शान्त थी।
संकट टल गया।
‘‘मैडम अब सुन लो। याद हो गया।’’
मैडम ने सभी स्वर और व्यंजन सुन लिए।
पिन्टू कहीं नहीं भूला।
पिन्टू खुश था।
मैडम भी सन्तुष्ट थी।
‘‘अब कल से दो-दो व्यंजन जोड़ कर पढ़ाऊंगी। मन लगाकर पढ़ेगा तो एक महीने में
किताब, अखबार सब पढ़ने लगेगा।’’
मैडम बोली थी।
पिन्टू की आँखों में एक चमक उभर आई थी। उसका चेहरा आत्मविश्वास से भर गया
था।
‘‘चल पिन्टू, अब सब्जी काट। मैं खाना बनाती हूं।’’-मैडम ने कहा था।
पिन्टू सीधा रसोई में गया। उसने बिल्कुल मैडम की इच्छानुसार बारीक-बारीक
प्याज काटे। अच्छी तरह सलाद काटा।
रात में जब सोने के लिए उस झूलती चारपाई पर गया तो वह उसे किसी स्वप्नलोक
की स्वर्णशैय्या से कम प्रतीत नहीं हुई। सबसे मज़े की बात वह शैय्या किसी
विमान पर स्थापित की गई थी। जैसे ही पिन्टू उस पर लेटा वह पिन्टू को उड़ा कर
ले गई। जिस लोक में भी वह गई वहां पिन्टू कहीं भी नौकर नहीं था। पिन्टू था
तो एक पढ़ा लिखा लड़का।
एकाएक उसे अपनी मैडम बड़ी अच्छी लगने लगी। उसे अपनी मैडम कभी भी इतनी अच्छी
नहीं लगी। सोचते-सोचते पिन्टू सो गया। मैडम फिर से पीली मछली बन गई।
सुबह आते ही उसने फटाफट घर का सारा काम निबटा दिया। काम निबटते ही कापी
किताब लेकर मैडम के पास आ गया। वह बहुत उत्सुक था। साक्षर होने की ओर उसका
यह दूसरा कदम था। किताब पढ़ने के सफर पर दूसरा पड़ाव।
मैडम ने पूरे पेज पर मन, हल, पर, मत, कर, हम, चल, डर, नम, मर आदि शब्द लिख
दिए। मैडम ने उसे ये सारे शब्द पढ़ने का तरीका बताया। मैडम की सहायता से
पिन्टू ने आसानी से इन शब्दों को पढ़ लिया। अब इन शब्दों को लिखने का अभ्यास
उसे करना था।
वह मन लगाकर पढ़ रहा था। घर के काम के बाद बचने वाला सारा समय वह पढ़ने में
लगाने लगा।
बस लिखने का अभ्यास करता रहता।
मैडम को गन्दी लिखाई पसन्द नहीं।
इसलिए वह सुलेख का अभ्यास करता रहता।
पिन्टू के घर से फोन आया था।
पिता ने बुलाया था।
पिन्टू ने जाने से मना कर दिया। वह पढ़ना चाहता था। पिता ने फोन पर ही बताया
कि चाचे का लड़का गांव से आया है। पिन्टू से मिलना चाहता है मैडम के कहने पर
भी पिन्टू नहीं गया। उसे तो बस पढ़ना था। उसे कल से तीन वर्ण वाले शब्द पढ़ने
थे। वह आज ही सारे दो वर्ण वाले शब्द अच्छी लिखाई में लिखना चाहता था। ‘ह’
और ‘क्ष’ वह अच्छी तरह नहीं लिख पा रहा था। इनमें बहुत सारे मोड़ थे जिनसे
पिन्टू राम परेशान हो उठा था। कोई न कोई मोड़ छोटा बड़ा हो जाता था। मैडम
बार-बार एक ही बात कहती थी कि लेख अच्छा होना चाहिए। पिन्टू को बस पढ़ने की
धुन थी। वह इस मौके को हाथ से खोना नहीं चाहता था। मैडम बार-बार एक ही बात
कहती थी कि जब तक उनकी गर्मी की छुट्टियां हैं तभी तक वह पढ़ाएंगी। स्कूल
खुलते ही वह व्यस्त हो जाएंगी। इसलिए बार-बार पिन्टू राम से मन लगाकर पढ़ने
की बात कहती थीं। पिन्टू राम को समय भागता नजर आता था।
घंटी बजी थी।
पिन्टू के चाचे का लड़का आया था।
पिन्टू मैडम से कुछ देर की इजाज़त लेकर बाहर चला गया था।
पिन्टू खुश था। वह अपनी पढ़ाई की बात बता रहा था।
‘‘पता है, मैडम मुफ्त में पढ़ाती हैं और छड़ी भी नहीं चलातीं। उस साले मास्टर
की छड़ी का दर्द तो आज भी नहीं गया।’’
मैडम बाहर के कमरे में ही मौजूद थीं।
पिन्टू राम की आवाज़ बीच-बीच में उसके कान में पड़ रही थी। पिन्टू की खुशी
कहीं भीतर उसे भी सुख प्रदान कर रही थी। सत्संग में पंडित जी की कही बात
मैडम को एकाएक याद हो आई कि दूसरों की मदद करने, दूसरों को खुशी देने वाले
को ईश्वर भी खुशी और सुख प्रदान करता है।
‘‘गांव में सब ठीक-ठाक है?’’-पिन्टू राम ने चचेरे भाई से पूछा था।
‘‘हां, सब ठीक है।’’
‘‘चाय पिएगा?’’
‘‘नहीं, नाश्ता किया है अभी थोड़ी देर पहले।’’
थोड़ी देर दोनों खामोश बैठे रहे।
‘‘यार पिन्टू, कब तक झाड़ू पोंछा और बर्तन करता रहेगा। मुझे फैक्टरी में काम
मिल गया है। तू भी चल। दोनों साथ रहेंगे।
यहां सारा दिन काम करता है, हजार मिलता है। वहां ढाई हजार मिलेगा बोनस
मिलेगा। बोले तो बात करूं।’’ मैडम लड़खड़ा गई थी। उसे दीवार का सहारा लेना
पड़ा।
‘‘नहीं, अभी नहीं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘अभी तो मैडम से पढ़ना सीख रहा हूं। उसके बाद सोचूंगा।’’
मैडम के कानों में सारा वार्तालाप पड़ रहा था।
मैडम के कान खड़े हो गए थे।
मैडम सचेत हो गई और अधिक ध्यान से उनकी बातें सुनने लगीं।
‘‘पढ़ाई तो फिर भी हो सकती है।’’
‘‘नहीं, अभी तो मैडम की गर्मी की छुट्टियां हैं मुझे तब तक पढ़ना सीख लेना
है।’’
‘‘पढ़ाई में तो यार कोई मुश्किल नहीं हैं। आजकल तो जगह-जगह रात के स्कूल
चलते हैं वो हम मजदूरों के लिए ही तो हैं।’’
‘‘नहीं, मुझे फिर किसी मास्टर की बेंत नहीं खानी।’’
‘‘नहीं यार, रात के स्कूल में कोई बेंत नहीं चलती।’’
‘‘नहीं अभी कहीं कोई काम नहीं करूंगा। अभी पढूंगा।’’
‘‘सोच ले।’’
‘‘सोच लिया।’’
पिन्टू का निश्चय अटल था।
मैडम ने चैन की सांस ली थी। वह जानती थी कि मात्र हजार रूपए में सारा दिन
सारे काम करने वाला नौकर कहीं नहीं मिलेगा। आजकल इनके भी मुंह खुल गए हैं।
मिसेज़ बत्रा के घर में जो नौकर है पच्चीस सौ रूपए भी लेता है और नखरे अलग
करता है। मिसेज़ गुप्ता ने जो मेड एजेंसी से ली वह भी पच्चीस सौ रूपये लेती
है और हर साल उस एजेंसी को जो सिक्योरिटी देनी पड़ती है वो अलग। फिर सबसे
बड़ी बात इस पूरी दुनिया में शायद पिन्टू ही है। जो उसका गुस्सा चुपचाप सहता
है। उसके अपने बच्चे तक जवाब दे देते हैं पर पिन्टू कभी जवाब तक नहीं देता।
कुछ पल के लिए तो मैडम को राहत मिली पर एक चिन्ता उसके मन मस्तिष्क में
उभरने लगी थी कि जैसे ही यह पढ़ना सीख जाएगा यह कहीं भी चला जाएगा जहां इसे
ज्यादा पैसे मिलने लगेंगे।
उसके न होने की कल्पना मात्र से ही मैडम घबरा उठी थीं। उसके मस्तिष्क को इस
समस्या का कोई समाधान नहीं सूझ रहा था लेकिन यह तो तय था कि जब तक उसकी
पढ़ाई पूरी नहीं होती वह कहीं नहीं जाएगा। यह प्रलोभन ही उसे रोके रख सकता
है।
पिन्टू का चचेरा भाई चला गया था।
पिन्टू फिर अपनी पढ़ाई में मस्त और व्यस्त हो गया था।
मैडम ने व्यूह रच डाला था। उसका पुण्य का काम स्वार्थ के स्विमिंग पूल में
गोते खाता हुआ दम तोड़ता नजर आ रहा था। स्वार्थ और परमार्थ के इस द्वन्द्व
में स्वार्थ विजयी हुआ। स्वार्थ की विजय का परचम पिन्टू की पढ़ाई की कब्र पर
लहरा रहा था और वह नादान उस कब्र की रोज़ सफाई करता था।
मैडम ने घोषणा कर दी थी कि आज ही सारे घर के परदे धोने हैं। पिन्टू दिन पर
दिन व्यूह में घिरता जा रहा था। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। उसके भीतर कुछ
सरसराने लगा था। उसे कभी-कभी मैडम की नीयत पर शक होता है। उसे लगता मैडम
पढ़ाना नहीं चाहतीं। पर यही सोचकर वह शान्त हो जाता कि वह तो मालकिन है।
उनका जब मन नहीं होगा वह मना कर देंगी। किसी दबाव का कोई कारण पिन्टू के
मासूम दिमाग को समझ नहीं आया।
मैडम रोज़ ऐसा ही कोई काम बता देती जिसमें सारा दिन निकल जाता। जाने कौन-कौन
से काम मैडम ने ढूंढ निकाले थे। घर की इतनी सफाई तो मैडम ने कभी नहीं कराई।
घर का कोना-कोना चमकवा डाला। अचार, चटनी, शरबत तो कभी नहीं बनाती थी। सदा
कहतीं कि झंझट होता है पर पिन्टू हैरान था कि जाने इस छुट्टी में मैडम को
क्या हो गया है।
पिन्टू मैडम की बात टाल नहीं सकता था। मन ही मन परेशान हो रहा था कि मैडम
की छुट्टियां बीतती जा रही हैं और उसकी पढ़ाई तो बिल्कुल थम ही गई है। उसका
मन जार-जार रो रहा था। मन की खिड़कियां, दरवाज़े बज रहे थे और उसकी आवाज़ से
पिन्टू घबरा गया था।
छुट्टियां बीत चुकी थीं। दो दिन शेष बचे थे।
मैडम ने तीन वर्ण वाले शब्द पढ़ाए थे। कलम, कमल, कलश, खरल जैसे शब्द पूरे
पृष्ठ पर लिख दिए थे। पिन्टू राम ने उन्हें आसानी से पढ़ लिया था। अब वह
इन्हें लिखने के अभ्यास में जुट गया था। मैडम ने मरणासन्न व्यक्ति के मुंह
में थोड़ा सा गंगाजल उड़ेल दिया था।
व्यक्ति मर गया।
छुट्टियां खत्म।
पढ़ाई बन्द।
पिन्टू को पता ही नहीं चला कब वह मैडम की व्यूह रचना में प्रवेश कर गया और
कब शहीद हो गया। स्कूल से आने के बाद मैडम थोड़ी देर आराम करतीं, खाना
बनातीं, शाम को सैर और फिर दोनों बच्चों की पढ़ाई आदि कामों में जुट जातीं।
बच्चों को पढ़ाते हुए मैडम उनके पास बैठी रहतीं और किसी पत्रिका के पन्ने
पलटती रहतीं। एक दिन पिन्टू राम ने गुस्ताख़ी की थी। उसने कह दिया
था-‘‘मैडम मुझे भी पढ़ा दो।’’
‘‘इन दोनों को पढ़ाने के बाद इतना दिमाग नहीं बचता कि मैं तुझे पढ़ा
सकूं।’’-एकदम ज़ोर से चिल्लाई मैडम।
मैडम फिर कभी पीली मछली नहीं बनी। सदा श्राप देवी बनी रहतीं।
मैडम खुश थीं कि सामने उसके रचे व्यूह का अभिमन्यु लहूलुहान पड़ा है।
पिन्टू को अब उसी चारपाई पर सपने नहीं आते। वह लगातार अपनी पढ़ाई के बारे
में सोचता। बार-बार एक ही बात उसके दिमाग में आ रही थी क्या उसे साल भर
इन्तजार करना चाहिए? अगले साल भी मैडम ने नहीं पढ़ाया तो.....उसका भीतर
बेचैन हो उठता और आधी-आधी रात तारे देखते कटती। एक बच्चे की छोटी सी
आकांक्षा बल्कि उसका हक उसकी नींदें उड़ाए था। उसकी हालत उस मुसाफिर जैसी हो
गई थी जो स्टेशन पर खड़ा है। सामने गाड़ी छूट रही है पर भाग कर उसमें चढ़ नहीं
सकता।
पिन्टू ने एक निर्णय लिया था। वह अब फैक्टरी में काम करेगा और रात के स्कूल
में पढ़ेगा। मास्टर की छड़ी भी खानी पड़े तो खा लेगा पर अब पढ़ेगा ज़रूर। मैडम
भी तो बरछी चलाती है। उसे साहब के उन रूपों का कुछ अंश तो धारण करना ही है।
अपने इस निर्णय के विषय में उसने किसी को नहीं बताया। न मां को न बाप को।
इन कुछ दिनों में वह एकदम बड़ा हो गया था। जल्दी काम में पड़ा इसलिए बड़ा भी
जल्दी हो गया। अपने हक़ भी जल्दी समझ आने लगे।
उसे हक़ था सपने पूरे होते देखने का। वह बच्चा है तो क्या हुआ? नौकर है तो
क्या हुआ? उसका बाप शराबी है तो भी क्या हुआ? वह सपने देख भी सकता है और
उनको पूरा करने के लिए हाथ पैर भी मार सकता है।
अगले ही दिन वह सुबह आया था। सारा काम रुटीन की तरह किया। रात को घर जाते
वक़्त उसने पैसे मांगे। मैडम ने पैसे दे दिए।
तभी मैडम के व्यूह का वह लहूलुहान अभिमन्यु उठ खड़ा हुआ। उसने इतिहास बदल
डाला। बदला नहीं नया इतिहास रच डाला। इस अभिमन्यु की मां ने कथा सुनते हुए
नींद नहीं ली थी। इसलिए वह सजग भी था और सचेत भी।
पिन्टू राम ने मैडम को बता दिया था कि वह कल से नहीं आएगा।
मैडम हतप्रभ।
‘‘तेरी पढ़ाई-’’ मरियल सी आवाज़ में शब्द फूटे थे।
‘‘रात के स्कूल में पढ़ लूंगा।’’
‘‘जब बेंत पड़ेगी तो पता चलेगा। यहीं रुक जा साथ-साथ पढ़ाई हो जाएगी।’’
‘‘बेंत खा लूंगा। वैसे भी छुट्टी अब अगले साल पड़ेगी।’’
‘‘अरे नहीं, जब शाम को बच्चों को पढ़ाऊंगी तो तुझे भी पढ़ा दूंगी।’’
मैडम मिमिया रही थी।
मैडम के गले में शायद कुछ अटक गया था-या स्वर भीतर ही जम गया था या फिर
चिथड़े-चिथड़े गरूर को समेटने में लगी थी। पर पिन्टू राम ने अपने कोमल कन्धों
पर विश्वास की लाश ढोई थी। उसके नाजुक कन्धों में एक और लाश ढोने की हिम्मत
नहीं थी।
उसने निर्णय ले लिया था।
मैडम उसे जाते हुए देख रही थी।
वह समझ नहीं पा रही उस व्यूह में कौन लहूलुहान हुआ।
- प्रतिभा
जनवरी 2015
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