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लघुकथा

निर्धारण


रमज़ान का पवित्र महीना शुरू हो चुका था। रोज भिनसारे मस्जिद के ऊपर लगे लाउडस्पीकर पर होने वाली सेहरी के शेष बचे समय की उद्घोषणाओं से उसकी नींद टूट ही जाती थी। वो था तो गैरमुस्लिम लेकिन खुद को एक चुनौती की तरह उसने भी एक-दो दिन के रोजे रखने का निश्चय किया। उसके हमउम्र मुस्लिम किशोर दोस्तों ने बताया कि पहले और आख़िरी जुमे का रोजा रख लेवे। गुरूवार की शाम को ही उसने खाने-पीने के सामान का बंदोबस्त कर लिया। सुबह की उद्घोषणा से आँख खुलते ही दातुन-कुल्ला किया और फिर भूख न लगने पर भी काफी कुछ खा पी लिआ जिससे कि सारे दिन भूख-प्यास न सताए। जैसा कि उसे बताया गया था कि रोजेदार को नमाज़ पढ़नी भी जरूरी है सो उसने कम से कम दो वक़्त की नमाज़ पढ़ने का फैसला कर लिया। गंगा-जमुनी तहज़ीब वाले क़स्बे का निवासी था सो जब कभी दरगाहों, मज़ारों पर जाना हो जाता था, पर हमेशा से उसके लिए उत्सुकता का विषय था कि मस्जिदें भीतर से कैसी होती हैं। बड़े उत्साह से वह सुबह के वक़्त की नमाज़ के लिए एक दोस्त के साथ मस्जिद में गया। पढ़ना या बोलना क्या आता लेकिन फिर भी वह होंठ हिलाता गया और जैसे बाकी लोग कर रहे थे सो एक औपचारिकता की तरह पूरा करता गया। बाहर निकलते वक़्त उसे खुशी थी कि उसने मस्जिद देख ली थी, लेकिन जिस तरह लोग उसे अचरज के साथ देख रहे थे और कानाफूसी कर रहे थे, उसे बड़ा अजीब लगा। कहीं से छनी हुई आवाज़ भी कानों में पड़ी कि ये लड़का तो गैर-मुस्लिम है, खैर सामने से उसे किसी ने कुछ नहीं कहा।
साँझ ढलने को हुई, मग़रिब की नमाज़ का वक़्त हुआ तो उस समय वह घर से दूर बाज़ार में था सो वहीं नजदीक में रहने वाले एक अन्य मुस्लिम दोस्त को साथ लिया और उसके साथ एक दूसरी मस्जिद में जाने लगा। अभी वुज़ू बना ही रहा था कि सामने से दो-तीन लोग आते दिखे, उन्होंने उससे तो कुछ नहीं कहा लेकिन उसके मुस्लिम दोस्त को एक तरफ ले गए और कुछ देर बात करते रहे। जब दोस्त लौट कर आया तो उसने प्रश्न भरी नज़रों से उसकी तरफ देखा, दोस्त ने बड़ी हैरानी से पूछा
- तुम सुबह अपने घर के पास वाली मस्जिद में गए थे क्या?
- हाँ लेकिन तुम्हें कैसे मालूम?
उसने प्रतिप्रश्न किया
- जाने किस तरह के लोग हैं, अभी ये लोग मुझे शाबासी दे रहे थे कि मैं तुम्हें शियाओं की मस्जिद से निकालकर सुन्नियों की मस्जिद में ले आया।


दीपक मशाल
 

 जनवरी 2015


 


 

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