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मनहूस एक दिन रात को महाराज और मंत्री छद्मवेश में आम नागरिक बनकर भ्रमण पर निकले। घूमते घूमते वे गांव में पहुंचे। एक जगह पर चौपाल बैठी थी। परंतु सभी लोग शांत बैठे किसी का इंतजार कर रहे थे। महाराज और मंत्री भी चुपचाप चौपाल की मंडली में बैठ गए। तभी एक अधेड उम्र का आदमी अपनी मूंछों पर हाथ फेरते हुए चौपाल में आया। ''
राम राम मुखिया जी... '' सभी एक साथ बोल उठे। सुबह से ही ऐसी ऐसी अडचनें आती रहीं कि दोपहर तक तो दांतों की सफाई भी न कर सका। फिर किसी प्रकार साफ सफायी से फारिग हुआ। खाने के लिए जाने ही वाला था कि शहर के पटवारी साहब आ पंहुचे। अब उनके साथ पूरे गांव के विकास योजना पर चर्चा होने लगी। अभी अभी खाना नसीब हुआ। भाइयों मेरा तो आज बुरा हाल हो गया। आज मैं मान गया बुध्देसर पक्का मनहूस है। जो जो उसका चेहरा देखता है सारा दिन उसे खाना नसीब नहीं होता है। '' हाँ हाँ मुखिया जी.... '' सभी एकस्वर से बोल उठे। '' हुजूर आपको तो आज खाना मिल भी गया मैं तो एक बार सुबह सुबह उसका चेहरा क्या देखा कि दिन तो क्या रात में भी खाना नसीब नहीं हुआ था। '' '' मेरे साथ भी यही हुआ।'' '' मेरे साथ भी यही हुआ।'' क़ई लोग एक साथ बोल पडे। उस रात पूरी बैठक बुध्देसर के शकल के प्रातः दर्शन से भुगते कठिनाइयों की ही चर्चा चलती रही। महाराज व मंत्री दोनों ही चुपचाप सुनते रहे। बैठक उठते ही दोनों वापस चल दिए। रास्ते में राजा ने मंत्री से पूछा कि आखिर माजरा क्या है। मंत्री जी ने राजा को सारी बातें समझा दीं। अब क्या था। अगले ही दिन राजा के सिपाही बुध्देसर के दरवाजे पर पहुंच गये। बुध्देसर रोता रहा कि बिना कसूर ही उसे राजा क्यों पकडवा रहे हैं। पर किसी ने उसकी एक न सुनी। वह बंदी बनाकर राजा के सामने पेश हुआ। राजा ने मन ही मन सोचा कि सजा सुनाने के पहले क्यों न मैं स्वयं इसकी जांच कर लूं ताकि हकीकत का पता लग जाए और न्याय के चक्कर में अन्याय न होने से बच जाय। राजा के आज्ञा के अनुसार बुध्देसर उनके शयनकक्ष के दरवाजे पर सोया। परंतु उसकी आंखों में नींद कहाँ। इसी उधेडबुन में पडा रहा कि किस गलती के लिए वह यहाँ लाया गया है। अंत में सुबह उसे यह सोचकर झपकी आ गयी कि जो होगा देखा जाएगा। पर झपकी आती चली जाती। तभी उसे राजा के दरवाजे के तरफ आने की पदचाप सुनायी दी। वह खडा हो गया। राजा आये उसकी तरफ गौर से देखा और आगे बढ ग़ए। सारा दिन बुध्देसर वहीं पडा रहा। समय पर उसे खाना मिलता रहा। उस दिन हालात ऐसे बने कि राजदरबार में नागरिकों की समस्याओं को सुलझाते सुलझाते शाम हो गयी और राजा को खाने का समय ही नहीं मिला। सारे काम को निपटाकर राजा को बुध्देसर का ध्यान आया। उनके मन में भी यह बात घर कर गयी कि वास्तव में बुध्देसर मनहूस है। इसके इस मनहूस चेहरे के चलते न जाने मेरी कितनी प्रजा प्रतिदिन भूख से तडपती रहती है। बस क्या था राजा ने आनन फानन में दरबार लगाया। बुध्देसर को पेश किया गया। राजा के फरमान को मंत्री ने पढक़र सुनाया। ''चूंकि बुध्देसर का चेहरा मनहूस है और सुबह सुबह जो भी इसका चेहरा देखता है उसे दिनभर खाना नसीब नहीं होता है। अतः बुध्देसर को फांसी की सजा दी जाती है। अगर बुध्देसर के मन में मरने के पहले कोई इच्छा हो तो उसकी इच्छा पूरी की जाएगी। '' बुध्देसर चौंक गया। थोडी देर तक वो सोचता रहा फिर बोला मैं महाराज से अकेले में एक बात करना चाहता हूं। कानून के मुताबिक राजा और बुध्देसर एकांत में मिले। उसने राजा से कहा '' महाराज आपने मुझे सजा तो सुना ही दी है परंतु यह बात किसी को मत बताइएगा।'' राजा चौंके '' क्या.... '' '' हाँ महाराज। ठीक कह रहा हूँ। '' सुबह जब आपने हमें देखा उस वक्त मैं भी सोकर ही उठा था और मैंने भी आपका चेहरा देखा। आपको तो केवल खाना ही नहीं मिला परंतु मुझे तो फांसी की सजा मिल गयी। शायद आपका चेहरा मेरे चेहरे से भी मनहूस है। अगर प्रजा यह बात जान गयी तो डर के मारे आपको देखना भी पसंद नहीं करेगी। बस और कुछ नहीं कहना मुझे। अब आप मुझे फांसी लगवा दीजिए। राजा को मानो सांप सूंघ गया हो। वे आत्मचिंतन में लीन हो गए। फांसी की सजा माफ कर दी गयी। और राजा ने कहा ''मनहूस कोई नहीं होता है। मानव का स्वभाव है कर्म करना। सफल होने की धुन में भूख कहाँ और प्यास कहाँ। बुध्देसर का चेहरा कर्मयोग का प्रतीक है। '' सही में भगवान की बनाई कोई भी रचना तथ्यविहीन नहीं है। हमें उनका उपयोग करना आना चाहिए। - सुधांशु सिन्हा हेमन्त |
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