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वनगन्ध यह स्वप्न मानसी का था और
इस स्वप्न में
भटक मैं रहा हूँ,
एक श्रापित यक्ष की तरह।
पहाडों की
सर्पिल पगडंडियाँ
और उनके ढलानों
पर ढरकती सी महसूस होती झौंपडियाँ।
पेडों ही
पेडों
से होकर गुजर जाते
उच्छृंखल बन्दरों के झुण्ड।
मोड से घूमते ही
अचानक सामने आकर चौंका देने वाला अल्पवयस प्रपात।
यही तो था उस
वनकन्या का स्वप्न।
स्वयं के अच्छे सम्पर्कों
का लाभ न उठा कर मैंने अपना स्थानान्तरण स्थगित नहीं करवाया।
बस उखड ग़या था
मन। सो
घर, पत्नि,
बेटे को दिल्ली में ही छोड
यहाँ
चला आया,
इस सघन वन में बसे इस अभयारण्य काजीरंगा नेशनल पार्क
में।
लगभग सभी अधिकारी गौहाटी या
पास बसे कस्बे में बने वनविभाग के सरकारी आवासों में रहते हैं।
एक घर मुझे भी
आवंटित हुआ था किन्तु स्वर्णा ने
यहाँ
आकर रहने की अनिच्छा
प्रकट की तो मैंने जंगल के अन्दर बने एक पुराने गेस्टहाउस को ठीक करवा
वहीं डेरा डाल लिया।
वैसे यह बेहद
शान्त और निरापद जगह है।
यूँ भी यह
हिस्सा पर्यटकों के लिये निषिध्द है।
कभी ही कोई
विदेशी शोध-कर्ता विशेष अनुमति ले इधर चला आए तो चला आए।
पास ही गार्डस
के छोटे-छोटे घर हैं।
उन्हीं में से
एक मेरा काम कर जाता है।
हेडक्वार्टर
यहाँ
से
पाँच
कि मी दूर है,
इस नेशनल पार्क के पश्चिमी प्रवेश-द्वार के पास।
जीप से आता-जाता
हूँ। आने
के बाद से ही काफी व्यस्त रहा,
कुछ वी आई पी विजिट, कुछ
इनक्वायरियाँ।
वैसे भी नये
माहौल, नए
लोगों को समझने में कुछ समय तो लग ही जाता है।
हमारे चीफ
कंजरवेटर भले व्यक्ति हैं जिन्होंने मुझे
यहाँ
जमाने में हर संभव
सहायता की है और अब लगता है
यहाँ
रहना सुखद रहेगा।
मेरा यह सहचर एकदम अनोखा है।
यहीं का आदिवासी
युवक है,
अभी गार्ड बना है।
पूरी लगन से
सेवा करता है। बोलता
कम है,
आदिवासी गीत गुनगुनाता रहता है।
हिन्दी थोडी
ज़ानता है। मेरा
हर क्रियाकलाप बडे ध्यान से देखा करता है।
खाना ऐसा बनाता
है कि मेरी उत्तर भारतीय जिव्हा अपने खाने का स्वाद भूल चली है।
मेरा प्रयास
रहता है कि खाना जिव्हा पर कम से कम रहे,
सीधे गले में उतर जाए।
कभी-कभी मूड में
होता है तो अहाते में बने पोखर से मछली पकड क़िसी अपनी आदिवासी-पारम्परिक
रेसिपी से उसे पकाता है।
आज ऐसा ही हुआ
था, बस
खाना खाकर लेट गया था।
सालों बाद दोपहर
में यूँ
लेट पाने की फुरसत नसीब
हुई थी। आदत
नहीं थी सो नींद ही नहीं आई।
उठा और चला आया
इस ओर भटकने और खो गया अतीत के बीहड में,
जिसका भी इस जंगल की
भाँति
कोई ओर-छोर नहीं।
बहुत उलझ कर लौट
जाता हूँ। लौट
कर घने शीरीष की डालों से ढकी बॉलकनी में,
इज़ी चेयर पर जा बैठता
हूँ । शाम
ढलने तक यहीं
बैठूँगा और बस
मानसी के बारे में
सोचूँगा। अब तक
जो न कर सका समय ही नहीं होता था।
अगर कभी होता भी
था खाली समय तो जरा सा भी विचार मग्न देख स्वर्णा पूछ बैठती,
क्या सोच रहे हो? पास्ट....
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