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वनगन्ध-2
उपरी
तौर पर चाहे वह कुछ क्षीण सम्पर्क
सूत्रों से
बँधी
हो मुझसे,
किन्तु आत्मा के भीतर उस अजीब सी,
पगली लडक़ी का स्थाई निवास है।
अकसर यह विश्वास
प्रसन्नता देता है कि उसके साथ बिताए वे आधे-अधूरे पल मेरे जीवन को बहुत
पहले ही सम्पूर्णता प्रदान कर चुके हैं और अब जो जीवन और उसके संघर्ष शेष
हैं उनसे कोई शिकायत नहीं मुझे।
बस एक ही बात
कचोटती रही है मुझे,
उस श्रापित यक्षिणी का स्वनिर्णित निर्वासन।
मेरी स्वर्णा की
सगाई के बाद उसकी म्लान आकृति को देख मैंने कहा था,
'मानसी
,
ये जन्म किसी तरह बिता लो।
अगर पुर्नजन्म होता होगा तो उस जन्म में फिर मिट्टी में साथ खेलेंगे और
उसी पेड क़ी डालें हिला-हिला कर भीगा करेंगे। उस
दिन वह मेरे वक्ष से लग फूट-फूट कर रोई थी।
रोया मैं भी था
मगर सबसे छुपकर,
मानसी से भी।
आज भी अकेली है वह।
लंदन में,
बी बी सी में कम्पेयरर है।
मेरी शादी के एक
साल बाद ही यह एकान्तवास उसने अपने लिये चुन लिया था।
अजनबी देश,
अजनबी लोगों के बीच वह अपनी पीडाओं की पोटली उठा कर
खो गई। यही
पीडा तो आज उसके स्वरों का स्थाई प्रभाव है,
जिसे महज मैं ही अनुभूत कर पाता
हूँ,
औरों को यह प्रभाव उसकी आवाज क़ी कशिश ही लगता होगा।
उसके जाने के
बाद उसके दो संक्षिप्त पत्र मिले थे कि वह बी बी सी में कम्पेयरिंग के
साथ भाषा - विज्ञान में शोध भी कर रही है।
मानसी अपने-आप में एक विस्तृत अर्थ रखती है;
प्रतिभाओं का वैविध्य,
भावों के अजूबों से भरा उसका व्यक्तित्व।
उसने क्या चाहा
मुझसे, यह
आज भी अस्पष्ट है।
बस स्वप्न ही
स्वप्न जानता हूँ
उसके,
यथार्थ की तो थाह ही नहीं पा सका।
उसने
वहाँ
तक
पहुँचने
ही कहाँ
दिया?
बस स्वप्नजाल के महीन धागों में ही उलझा रहा जब तक
यथार्थ उस तिलिस्म से मुझे अर्धचेतनता में खींच कर नहीं ले गया।
दाम्पत्य नहीं
चाहा था उसने,
बस चाहा था मेरा साथ और घनेरे वनों की भटकन,
पेड, पंछी,
गीत, नज्में।
और मैं एक पलायन और पीडा के अतिरिक्त क्या दे सका?
उसी ने चाहा था कि जंगलों से जुडे अपने अनन्य शौक को
ही अपना व्यवसाय बना
लूं। उसी
की जिद और पापा की प्रेरणा से मैंने आई एफ एस दिया और चयनित भी हो गया।
अपना भविष्य तो
सुरक्षित कर ही लिया था मैंने,
आई एफ एस के सफल परिणामों के साथ ही सम्पन्न वैवाहिक
प्रस्तावों की लम्बी सूची पापा ने पकडा दी थी।
पता नहीं कब-कब,
कैसे-कैसे असमंजसों से गुजर,
स्थिर, प्रतिष्ठित सामाजिक
जीवन का आग्रह मुझे विवाह-वेदी तक ले ही गया।
मेरे हिस्से आया
एक अप्रतिम शान्त सौन्दर्य और सम्पन्नता।
मानसी के हिस्से
एकाकी पन छोडिये ये कहानी फिर कभी
।
यहाँ
और करता भी क्या
हूँ
मैं,
अपने सलोने अतीत की परतें उघाडता रहता
हूँ। आज
मैं भौतिकता से ऊब
यहाँ भाग तो आया
हूँ,
फिर भी स्थाई सत्य वहीं है,
जहाँ
से आया
हूँ। जीवन-सहचरी,
बच्चे और उनसे जुडा अटूट बंधन।
शुतुरमुर्ग की
तरह कब तक रेत में
मुँह छुपाउँगा।
मानसी मेरी बाल सखि थी।
बचपन से ही
हमारे परिवार कॉलेज कैम्पस में पास-पास रहा करते थे।
हम दोनों के
पिता शासकीय कॉलेज में प्रोफेसर थे।
वह बचपन से ही
हमारे घर खेलने आया करती जबकि
वहाँ
कोई भी उसका समवयस्क न
था। दीदी
कॉलेज में पढती थी,
मैं स्वयं उससे नौ वर्ष बडा था।
तब यह अन्तर
काफी ज्यादा था। मैं
इलेवन्थ के एग्जाम्स की तैयारी में था और वह उस वर्ष प्राईमरी सेक्शन में
थी। दीदी
कभी-कभी उसके क्राफ्ट्स के प्रोजेक्ट्स में उसकी मदद कर दिया करती थी।
उसकी मम्मी
शासकीय चिकित्सालय में चिकित्सा अधिकारी थीं और बहुत व्यस्त डॉक्टर थीं।
कितनी ही बार
अपने घर में ताला पाकर वह हमारे घर चली आती थी।
मेरी मम्मी
स्नेहवश उसे कुछ खिला-पिला देतीं फिर वह सीधे मेरे कमरे में चली आती और
अनर्गल बातों की झडी लगा देती।
या मेरी चीजें
छू कर उलट-पुलट कर देती।
मैं मम्मी पर
खीजता,
क्यों भेजा इसे मेरे कमरे में? मेरी उपेक्षा
पाकर उसने आना बंद कर दिया या शायद एग्जाम्स की तैयारी में व्यस्त हो गई।
गर्मियों की
छुट्टियों में उसका छोटा भाई मिलिन्द बोर्डिंग से घर आ गया और उसका आना
एकदम बन्द हो गया। मैं
भी पूरी गर्मियों की छुट्टियों में मटरगश्ती करता रहा,
कभी स्विमिंगपूल, कभी
क्रिकेट-क्लब।
जुलाई में पहली बरसात के
साथ ही स्कूल खुल गये।
मैं स्कूल जाने
के लिये अपनी साइकिल पौंछ ही रहा था कि मानसी के पापा उसे लेकर आ गये।
निखिल आज मानसी को अपने साथ ले जाओगे?
आज सीनियर सेक्शन में इसका पहला दिन है,
घबरा रही है , क्लास भी
नहीं मालूम है।
मेरे कॉलेज में
आज एम एस सी के प्रेक्टिकल एग्जाम्स हैं।
मुझे नागवार तो गुजरा पर ना कैसे करता अंकल पापा के
कलीग ही नहीं अच्छे मित्र भी थे।
साइकिल पर उसे
बैठा कर ले जाना मुझे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था।
मन ही मन सोच
रहा था कि कहीं रोज
ऐसा न करना पड
ज़ाए। पर
ये नौबत नहीं आई,
उसकी भी साइकिल आ गई और उसका अच्छा खासा ग्रुप बन गया
साथ जाने वाली लडक़ियों का।
उस ग्रुप में वह
लडक़ी भी थी जिससे मैं कुछ आकर्षित था,
वह हमारे ही स्कूल में नाइन्थ क्लास में पढती थी।
कनिका।
मानसी अब पहले से कम शैतान हो गई थी।
उम्र से अधिक
गंभीरता ओढ ली थी उसने।
मेरे कैशोर्य के
उन्मुक्त
दिन थे मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया।
किन्तु घर में
एक दबी-दबी सी चर्चा कानों में पडती रही कि मिनी के घर में तनाव है।
उसके मम्मी-पापा
अलगाव की कगार तक
पहुँच चुके हैं।
मिलिन्द पहले से
बोर्डिंग में था अब मिनी यानि मानसी भी।
मन अनमनस्क हो
उठा था। अभी
उम्र ही क्या है उसकी?
मुश्किल से ग्यारह वर्ष!
उस दिन न जाने क्यों जब शाम को उसे बाहर बरसात की
बूँदों
से लदे गुलमोहर
के पेड क़ो हिला-हिला भीगते देखा तो मैं भी उसके पास चला आया और उसके इस
कौतुक भरे खेल में शामिल हो गया।
उसके गहरे भूरे
बालों में बूँदे
मोती सी सज गईं
थीं। मैंने
धीरे से उसके बालों को छू लिया था।
उसका चेहरा एक
कातर निरीहता
से भर गया था। मैं
स्वयं उदास हो चला आया मगर अपना होने का संकेत देकर।
अब मैं उससे स्कूल में भी बात करता ,
उसका ख्याल रखता।
टेस्ट में उसे
पढा दिया करता। मुझे
याद है एक बार अंग्रेजी क़ा एक चैप्टर द डेज़ी पढा रहा था,
उसने अचानक कहा, निखिल
भैया कभी लगता है मैं भी एक शानदार लॉन की फैन्स के बाहर उगा जंगली डेज़ी
का फूल हूँ
जिसे माली कभी भी
उखाड फ़ेंकेगा। और
उससे सहानुभूति रखने वाली एकमात्र लार्क हो आप!
उस पल तो झिडक़ कर मैं ने चुप करा दिया लेकिन मन ही मन
स्तब्ध हो गया।
कितना गहरे तक
आहत है इस नन्हीं लडक़ी का मन! वह मुझमें विश्वास
ढूंढने
लगी थी। उसकी
कुछ छोटी जिम्मेदारियाँ
सहर्ष मैंने ओढ
लीं मसलन उसे सहेलियों के घर छोडने-लेने जाना,
उसकी साइकिल का पंक्चर जुडवाना वगैरह।
प्रतिदान में
उसने मेरे और कनिका के मध्यस्थ की भूमिका सहर्ष निभाई।
कनिका सीनियर
मेडिकल ऑफिसर की बेटी थी और मिनी के घर उनका आना-जाना था।
पर ये पहला
प्रेम शीघ्र ही धरातल पर आ गया जब कनिका के पापा का ट्रान्सफर हो गया।
मैं और मिनी
टूटा दिल लिये फिर पढने में व्यस्त हो गए।
ट्वैल्थ बोर्ड
जिस पर मेरे सम्पूर्ण भविष्य की नींव टिकी थी।
पापा ने मुझे
मेरिट में लाने के लिये दिन रात मेरे साथ स्वयं मेहनत करते रहे।
वह भी मेरे साथ
पढती रही ओर बडी होती रही।
मैंने ट्वैल्थ में अच्छे प्रतिशत लाकर मैरिट लिस्ट
में अपना नाम शामिल करवा ही लिया।
पापा बेहद खुश
थे और उन्होंने पुरस्कार में मुझे मोपेड दिलवा दी।
उस मोपेड पर मैं
और मिनी खूब घूमे। पूरा
शहर छानते कभी उसकी फ्रेण्ड्स के घर कभी मेरे दोस्तों के घर।
साथ ही मैं पापा
की महत्वाकांक्षा के तहत मैं पी एम टी की तैयारी करने लगा और बी एस सी
पार्ट वन में एडमिशन ले लिया।
मिनी मेरी दिनचर्या का हिस्सा बनती जा रही थी,
कभी पढते वक्त अपने अनभ्यस्त हाथों से चाय बना कर दे
जाती। कभी
दीदी की अनुपस्थिति में मम्मी के अस्वस्थ होने पर घर के छोटे कामों में
हाथ बटा देती। इस
बीच पापा से पता चला उसके मम्मी-पापा साथ रहने का समझौता कर चुके हैं।
पापा ने ही
बच्चों के भविष्य का वास्ता देकर मध्यस्थता की थी।
मैं तब मैं समझ
ही नहीं पाया था कि कोई भी अभिभावक अपना स्वाभिमान बच्चों से उपर रख कर
कैसे सोच सकते हैं अलग रहने की,
जरूरत तो बच्चों को दोनों की होती है।
इस खुशी में मिनी ने अपना बारहवां जन्मदिन मनाया।
शार्ट डेनिम की
र्स्कट और सफेद स्पेगेटी टॉप में मिनी मुझे बडी लगी।
लम्बी सुडोल
पिण्डलियाँ,
कहीं कहीं यौवन की मासूम दस्तक।
मैं चौंक पडा था।
बस फिर शुरू हो
गई थी मेरी रोक-टोक।
'' ये मत पहनो।''
'' यूँ
क्यों
हँस
रही थीं उस दिन रोड पर
फ्रेण्ड्स के साथ? ''
'' कोई हॉर्न बजाता है तो पीछे क्यों मुड क़र देखती हो
? ''
'' वो लडक़ा क्या कह रहा था तुम्हें उस दिन ?
''
हँस
कर वह सब मान लेती।
उसकी व्यस्त
मम्मी और भाई के कर्तव्य जाने-अनजाने मैं निभाने लगा।
उस बार मेरा पी एम टी में
सलेक्शन नहीं हुआ। वजह
जो भी रही हो मम्मी की लगातार अस्वस्थता या मेडिकल के प्रति थोडा कम
आकर्षण। किसी
तरह बी एस सी कर मैं अपने प्रिय विषय में एम एस सी करने जयपुर चला आया।
मिनी वहीं छूट
गई। अपने
भविष्य को निश्चित करने के प्रयास में मैं उसे भूल गया।
बीच में कई बार
घर गया था तब आंटी चीफ मेडिकल ऑफिसर बन गईं थीं और उन्हें वहीं हॉस्पिटल
के अहाते में बने बंग्लो में जाना पडा।
एक बार
वहाँ
मिलने भी गया तो वह भी
छुट्टियों में अपने ननिहाल गई हुई थी।
एम एस सी के बाद,
आरामदेह और अपनी रुचियों को जीवित रख कर जिन्दगी जीने
के लिये पापा के प्रोफेशन से अच्छा कुछ भी न था सो कॉलेज लैक्चरर बनने की
दिशा निर्धारित कर पी एच डी करने लगा।
उसी दौरान पापा का फोन आया कि मानसी को वहीं महारानी
कॉलेज में एडमिशन लेना है।
मैं चौंका।
''
कौन?
'' मैंने अपनी
आवाज ऊँची कर पूछा था।
'' अरे मिनी अपनी
मिनी ,
सिन्हा जी की बेटी मानसी।
''
'' वो इतनी बडी हो
गई कॉलेज में?
अच्छा मम्मी कैसी हैं
? ''
'' अब काफी आराम है।
डॉ सिन्हा ने ही उन्हें ऑपरेशन के लिये मनाया था,
नहीं तो बस टयूमर और
बढक़र तकलीफ देता और आखिर वैसे अमिता आ गई थी ससुराल से,
मानसी का भी बडा
सहारा रहा। अब वह वहाँ आ रही है अब तेरी जिम्मेदारी है वह।
''
'' ठीक है पापा।''
मैं हैरान-परेशान अपने
शान्त कमरे में लौट आया।
अपनी बालसखि
मिनी और कल आने वाली किसी मानसी सिन्हा (जो इतनी बडी हो गई है कि
यहाँ
आकर कॉलेज में एडमिशन
लेगी।
) का चेहरा मिला नहीं पा
रहा था। फिर
भी उस स्नेहिल सहृदया के लिये मन तरल और उत्सुक हो उठा।
आगे
पढें
बाकी
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