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वनगन्ध-8
यहाँ
आकर बार-बार मेरे मन ने
चाहा बुला लूं
उसे
यहाँ
उसके अपने इस घनेरे जंगल
में। जो
सपना उसने देखा था,
दो यायावरों के जंगल दर जंगल भटकने का,
उसे संक्षिप्त कर उसे दे
दूँ,
समेट कर सार्थकता के ओसिल,
रूमानी पलों को मन की मखमली डिबिया में रख कर उसे थमा
दूँ!
यह विचार टलता रहता है।
मैं काजीरंगा पर
एक किताब लिखने में पूरे दो महीने व्यस्त हो जाता
हूँ। फिर
एक महीना इस किताब के लिये पारदर्शियाँ
लेने में बिता
देता हूँ। दो
सप्ताह दिल्ली में छुट्टियाँ
काट और पारदर्शियाँ
बनवा कर लौटता
हूँ
और बस फिर एक रात इन
पारदर्शियों को
छाँटते हुए वह एक
स्वप्न, एक
विचार बन फिर मेरे आगे जलता-बुझता है।
कुछ चुनिंदा पारदर्शियाँ
एक बडे लिफाफे
में डाल उसे लिख ही देता
हूँ।
''
ये ट्रान्सपेरेन्सीज देख कर
भी क्या उस खूबसूरत सभ्रान्त से देश में रह सकोगी! इसी ज़मीन के मौसम क्या
तुम्हें ये जंगल आकर्षित नहीं कर रहे?
वही बंदर जो तुम्हें
लगते थे कि अभी अभी चॉकलेट खाकर मुँह गंदा कर आए हैं,
शैवालों और
जलपांखियों से भरी झीलें। बुध्दू गैंडे,
जो नाक पर एक सींग
लगाए खुद को यूनिकॉर्न समझते हैं।
''
''तो तुम आ रही हो?
यूँ भी बहुत कुछ
इकट्ठा हो गया होगा जो तुम मुझसे कहना,
बाँटना चाहती होगी।
भूली तो नहीं होगी,
जंगलों की ट्रिप के नाम पर
तुम्हें कभी किसी बंदिश ने विवश नहीं किया,
एक मैसेज पर अपना
सामान बाँधे तैयार मिलती थीं।
''
''जानता हूँ,
परिस्थितियाँ भिन्न हैं,
अगर मैं ने अपने
पैरों की बेडी क़ुछ देर के लिये उतार दी है,
तो तुम तो आज भी
यायावर हो। मैं प्रतीक्षा करूं या न करूं,
बस इतना ही लिख
देना।''
चाहता तो फोन कर देता।
लेकिन वह अच्छे
गहरे अर्थों वाले लिखे शब्द के प्रति अधिक संवेदनशील है।
पता व जरूरी
जानकारी लिख पत्र डाक में डलवा देता
हूँ।
पी एच डी अपने अंतिम चरण पर है,
व्यस्तता है कि कम होने की जगह बढती जा रही है।
चाहती
हूँ
एक बार थीसीस सबमिट हो
तो पूरी तरह अपने काम पर ध्यान
दूँ। गलती
मेरी है,
यहाँ
लंदन आते ही दो-दो
कश्तियों में पैर डाल दिये।
कल तक थीसीस के
आखिरी दो चैप्टर एडिट करने थे और अब तक मैं कम्प्यूटर पर बैठना तो दूर
उसके पास फटकी तक नहीं।
इधर एक परिचर्चा
नुमा कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करनी थी।
रात के ग्यारह तो अभी बज गए हैं,
कल सुबह नौ बजे यूनिवर्सिटी जाकर लास्ट चेप्टर सबमिट
कराने हैं, फिर ग्यारह बजे स्टूडियो में
परिचर्चा में भाग लेने वाली विदेश में बसी अविवाहित भारतीय कैरियरशुदा
युवतियाँ,
स्त्रियाँ पहुंच
जाएंगी,
कम से कम उनसे बीस मिनट तो पहले उसे
पहुँचना
ही होगा न,
नहीं तो प्रणव फिर चिढ ज़ाएगा।
अब क्या
करूं,
फिलहाल सो जाती
हूँ। अभी
टाईपिंग करने का मन नहीं,
सुबह जल्दी उठ कर
। सुबह
कहाँ
उठ सकूंगी?
देर रात तक दोनों काम पूरे करती
हूँ,
जैसे-तैसे।
व्यस्तता आती है
तो इतनी कि नाक उठाने की फुर्सत नहीं।
वैसे इस वीकेण्ड
पर कैरन के साथ उसकी ग्रेनी के कन्ट्रीसाईड आर्चड्स पर जाने का मोह त्याग
सकती तो आज इतनी देर न जागना पडता।
बिस्तर पर लेटते ही नींद आजाती तो बात ही क्या थी।
दिमाग में कल
होने वाला क्योस ही घूम रहा था।
परिचर्चा का
विषय ही अजीब सा है।
विदेश में बसी
भारतीय अविवाहित कैरियर वुमन क्या समस्या होगी,
एक आर्थिक, मानसिक तथा
शारीरिक रूप से स्वतन्त्र महिला को! जबसे इस हिन्दी कार्यक्रम जीवनव्यूह
से जुडी हूँ,
अजीबो-गरीब विषयों पर परिचर्चाएं,
इन्टरव्यूज लेती आ रही
हूँ। थोडे
सनकी हैं हमारे सीनियर प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव श्रीमान प्रणव कुमार
घोष स्वयं वे भी तो बडी उमर के अविवाहित पुरूष हैं,
किन्तु अपनी सम्स्याओं पर विचार नहीं करते,
ले दे कर महिलाएं और उनके विषय मिल जाते हैं।
विवशताओं और
जीवन की विसंगतियों से भरे ये कार्यक्रम भी खूब लोकप्रिय हैं।
प्रणव ने ये विषय कहीं जानबूझ कर तो नहीं चुना?
प्रणव वैसे बस उससे दो साल ही सीनीयर है।
हम दोनों में
जमकर मतभेद होता है,
एक पूरब है तो दूसरा पश्चिम,
पर मैं उसे बॉस नहीं समझती इसी बात पर चिढ ज़ाता है वह।
मैंने कई बार
हमारे सीनियर कन्ट्रोलर ऑफ प्रोग्राम्स से कहा भी कि मुझे प्रणव की जगह
किसी ओर को असिस्ट करने दें।
पर वे समझते हैं
कि चाहे कितने भी पूरब-पश्चिम क्यों न हों फाईनली वी विल प्रोडयूस बेस्ट।
खाक!
अँ...
!!
कैरन कहती है वैसे इतना क्रीप भी नहीं,
इन्टैलेक्चुअल बंदा है।
यूँ मैं उसके
काम करने के तरीके,
सोच, प्रोफेशनलिज्म से
प्रभावित रहती
हूँ,
कहीं एक प्रतिद्वन्द्विता है जो बार बार उससे विरोध
करने को उकसाती है।
मेरे
देखते-देखते उसके दो प्रमोशन्स हो गए,
मेरा एक भी नहीं, दरअसल
यहाँ
भी दो कश्तियों मैं साथ
चलने की सजा पाई थी।
पी एच डी के
चक्कर में कितनी तो छुट्टियाँ
ली हैं।
बस चार घन्टे ही सो सकी और ये नामुराद धूप चढ
आई।
भाग-भाग कर
तैयार हुई,
दो सैन्डविच बना कर
ठूँसे। पेपर्स
बैग मे डाले,
और चल पडी।
यूनिवर्सिटी से
स्टूडियो पहुँचने
की भागमभाग में भी मैं साढे ग्यारह बजे ही
पहुँच
सकी।
वहाँ सारी युवतियाँ,
महिलाएं पहले से आकर अपने ग्रुप में बतिया रही थीं।
मैंने आते ही
उन्हें इकट्ठा किया रूपरेखा समझाई,
प्रश्नावली पकडाईऔर आवश्यक निर्देश देने लगी।
मैं ऐसे व्यस्त
हो गई जैसे मुझे आए काफी समय हो चुका है।
प्रणव हतप्रभ सा
मेरी हरकत देख रहा था,
मैंने ढिठाई से
हँस
कर हलो कहा तो
उसने जवाब ही नहीं दिया।
उसकी बडी-बडी
क़ाली आँखे
ही जब देखती मुझे
डाँट
जातीं।
मैं उसे सॉरी
कहना तो दूर बडी ढ़िठाई से लगातार उपेक्षित कर रही थी।
अन्तत: रिकॉर्डिंग की तैयारी पूरी हुई और सबने
स्टूडियो के सेट पर कॉलर माईक लगा अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया।
अब प्रणव को एक
घण्टे तक मुझे मुस्कुरा कर झेलना ही था।
कार्यक्रम के
आरंभ के अभिवादन के बाद वह मुस्कुरा कर मेरी तरफ मुखातिब हुआ।
''
हाँ तो मानसी
,
आज हम...
''
पूरा
गिरगिट है। बस
यह सोचते ही मुझे
हँसी आ गई और
रिटेक करना पडा। फिर
तो बस उसने मुझे कोने में ले जाकर जो
डांटा
कि बस सॉरी तो
कहना ही था,
उसके बाद बहुत ही कम रिटेक में पूरा प्रोग्राम कब शूट हुआ पता ही नहीं
चला।
स्टूडियो से बाहर आ सबसे विदा ली,
मन बहुत बोझिल था, प्रणव
की डाँट
से नहीं यार वो
तो रोज क़ा किस्सा है।
हरेक स्त्री के
निर्वासन की अपनी कहानी थी,
अपनी पीडा, अपनी विवशता,
असुरक्षाएं और अलग-अलग तरह की अतृप्तियाँ
वे भी शारीरिक कम
मानसिक अधिक,
मातृत्व की, दाम्पत्य की,
सहजीवन की।
रात एडिटिंग के वक्त मैं असहज और बहुत चुप थी,
मैं और प्रणव
जहाँ
जरूरी था
वहाँ
डबिंग कर रहे थे।
प्रणव तो
यूँ
भी कम बोलता है,
आँखों
का ही इस्तेमाल ज्यादा
करता है। काम
करते-करते आठ बज गए।
प्रणव ने उठते हुए पूछा,
''क्या कोई प्राब्लम? ''
'' नहीं तो! ''
'' लगता है, सुबह से कुछ
खाया नहीं है।
चलो कहीं खा-पी
लेते हैं। मैं
क्रुएल हूँ
ना,
काम करवाता
हूँ,
डाँट
देता
हूँ
उस पर भूखा भी रखता
हूँ।
''
अब चौंकने की बारी थी मेरी?
ये खुश्का सा आदमी आज बदला सा कैसे?
वैसे भी काम के बाद प्रणव के साथ मैं कभी नहीं रही,
आज भी नहीं होती अगर ये प्रोग्राम कल ही टेलीकास्ट न
होना होता तो।
हो सकता है यह
काम के मुखौटे से बाहर निकला सहज पुरूष ही हो।
मैं भी क्या सोच
रही हूँ,
मुझे क्या, भूख तो लगी है
ही। आज
महीनों की व्यस्तता से निजात मिली है,
थोडा सेलीब्रेट कर लें।
''
तो ये डिनर मेरी तरफ से,
किसी अच्छी जगह।''
'' कोई खास अकेजन?
''
'' हाँ! एक सनकी बॉस
के साथ काम का एक एपिसोड खत्म हुआ और मेरी थीसिस के सारे चैप्टर खत्म!
''
'' तो डिनर मुझे
देना चाहिये ना,
मेरी लेट लतीफ असिस्टेंट अब
समय पर आया करेगी,
और मुझे उसे आँखे नहीं
दिखानी पडेंग़ी। ''
हम
दोनों हँस
पडे।
पहली बार हमारे
बीच हल्का-फुल्का संवाद हुआ था।
डिनर अच्छा रहा
और पता चला प्रणव और मैं एक दूसरे को क्या समझते थे।
''
मैं सोचता था तुम एकदम
केयरलैस और अस्तव्यस्त किस्म की लापरवाह ही नहीं ढीठ लडक़ी हो,
बाद में पता चला कि
तुम पर पी एच डी का प्रेशर था। और स्नॉब लगती थी। किसी से बात ही कहाँ
करती थीं,
अकड में रहती थीं। सच कहूँ
,
मैं क्या सब मेल कलीग्स
तुमसे चिढते थे कि लिफ्ट ही नहीं देती यार। बस बूढे ख़ूंसट बॉसेज क़ो पटा
कर रखती है और छुट्टियाँ मैनेज कर लेती है।
''
'' अच्छा-अच्छा अब
आप भी सुनें हमने तो छुट्टियाँ मैनेज करलीं..आपने तो प्रमोशन्स मैनेज
किये हैं। मैं तो आपको हद दरजे का खुश्क और...
''
'' आज रिकॉर्डिंग के
वक्त हँसी क्यों थीं? ''
'' सच बता दूँ?
''
'' हाँ,
हाँ..
''
'' बुरा मान गए तो..
''
'' अरे! इतनी देर से
कभी सनकी,
खुश्क और क्या-क्या कहे जा
रही हो अब एकाध एडीशन और कर दोगी तो क्या हो जाऐगा।
''
'' तो सुनो आज सुबह
तुम मुझसे बुरी तरह नाराज थे और जब रिकॉर्डिंग शुरू हुई तो एकदम टोन बदल
कर बोले ''हाँ
तो मानसी हम आज की परिचर्चा में..
''
तो मेरे मन ने कहा...मानसी इतना बडा गिरगिट कहीं देखा है!
'' ठीक ही तो था,
तब मुझे बता देतीं
कि क्यों हँस रही थी तो मैं भी हँसता न कि डाँटता।''
'' कोई बात नहीं
प्रणव.. ''
और हम
दोस्त न सही,
सही मायनों में सहकर्मी बन गए।
मुझे अपने
अपार्टमेन्ट तक छोड प्रणव अपनी कार की ओर बढा ही था कि मुड क़र बोला-
''
मानसी एक पत्र है तुम्हारा
भारत से,
अभी देता हूँ कार में
ब्रीफकेस में रखा है। ''
पत्र क्या था छोटा-मोटा
पार्सल ही था।
रात का तापमान
दिन से काफी कम हो चला था,
मैं ठिठुर रही थी, प्रणव
से विदा ले मैं लिफ्ट की ओर भागी।
मैंने जानबूझ कर
प्रणव को कॉफी का आग्रह नहीं किया,
एक तो पहला मौका, दूसरे
रात काफी हो गई थी तीसरे मेरे कमरे में निखिल का अहसास कई सूरतों में
बसता है, प्रणव जैसा तेजतर्रार व्यक्ति
भाँप
लेता और मुझे मूर्ख और
भावुक समझता।
पत्र को उपर आकर उल्टा-पुलटा तो यकीन ही नहीं हुआ कि
अजीब सी बात है अरसे बाद ये पत्र मेरे किन किन लिखे अनलिखे पत्रों का
उत्तर है? खोलकर रहस्य खत्म नहीं करना चाहती
थी।
देर तक उसे रखे रही, जब
कपडे बदल लिये, अपने छोटे से फ्लैट के बिखराव
को सहेजा। थीसीस
लिखने के दौरान इकट्ठी हुई रद्दी को लोफ्ट में पटका।
सारी ज़रूरी,
गैरज़रूरी किताबों को बुकशैल्फ में लगाया और कपडे
अलमारी में जमा चैन की
साँस
ली कि अब इस साफ कमरे
में कल देर तक सोउंगी।
जानबूझ कर पत्र
को उपेक्षित कर रही थी जैसे पत्र नहीं स्वयं निखिल हो और उससे जमकर बदला
ले रही हूँ
मैं कभी कभी अपना खुद का
व्यवहार स्ट्रेन्ज लगता है तो दूसरों को कितना लगता होगा।
इस बेजान पत्र
से नाराज़गी खोला तो जाना ये बेजान पत्र बहुत सजीव पत्र था।
एक प्राकृतिक
आग्रह, न
उपदेश, न शादी कर लेने की सलाह,
बस एक चिरपरिचित आग्रह जैसे पहले हुआ करते थे पन्ना
नेशनल पार्क चल कर प्रकृतिस्थ हों ?और वह अपना
बैग तैयार कर लेती थी, नए बहाने के साथ।
इस बार प्रस्ताव
था काजीरंगा के लिये
जहाँ
वह पोस्टेड था।
आग्रह को मात्र आग्रह समझ ड्रॉअर में समेट कर रख दिया।
इस पर विचार
करना व्यर्थ है। आग्रह
मीठा है बस इसी का मूल्य है।
निर्णय के बारे
में विचार करने को अब क्या रखा है?
अब शेष ही नहीं वह उष्णता।
बस वो
ट्रांसपेरेन्सीज़ प्रोजेक्टर में लगा कर देखती रही।
बहुत मोहक थीं...अतीत
को लौटाती सी। सच
ही इसे जिया जाता तो साझा सा स्वप्न होता,पर
अब वह उत्साह ही चुक गया।
थीसीस सबमिट हुई उस पर चर्चा और मूल्यांकन शेष था।
इस सब में आगे
दो महीने लगेंगे। सोचती
हूँ
यही वक्त है छुट्टी लेने
का,
मम्मी-पापा से भी मिलना ही है।
कब से अवचेतन
में उस पत्र का आग्रह जो कुलबुला रहा है।
स्वयं को बहुत
बहाने-उलाहने दिये मगर सब उल्टा पड ग़या,
मौका भी है...फुरसत
भी है दस्तूर भी है।
इन मूर्खता पूर्ण विचारों से छुटकारा पाने के लिये,
इस इतवार को मैंने प्रणव को लंच पर आमंत्रित किया।
उस ढीठ ने एकदम
ही स्वीकार कर लिया।
उस दिन मैंने
नितान्त भारतीय भोजन तैयार किया था।
गोभी की सूखी
सब्ज़ी,
अरहर दाल-चावल और आलू के परांठे और दही बडे।
स्वयं मेरा मन
किया कि साडी पहनूँ,
तो लाल बंधेज की शिफॉन साडी
बाँध
ली,
बालों को एक
ढीले
जूडे में
बाँध,
सुर्ख लाल कार्नेशन का एक फूल वाज में से निकाल लगा
लिया। छोटी
सी लाल बिन्दी लगा तो ली पर बाद में लगा ये अकारण सज्जा क्यों?
मैं बिन्दी हटाती उससे पहले ही डोर बैल बजी और मैंने
दरवाजा ख़ोला तो प्रणव हाथ में
यहाँ
की फेमस इण्डियन
स्वीटशॉप से गुलाबजामुन लिये चला आ रहा था।
हलो कह कर वह
अन्दर चला आया।
डिब्बा मेज पर रख वह मेरी और मुडा और मेरे चेहरे पर
नज़रें जमा दीं...उसके
जैसे शुष्क और संयत पुरूष से ऐसी अभद्रता की उम्मीद न थी मुझे।
'' प्रणव
बैठो।''
मैंने
उसका ध्यान बंटाया।
'' हाँ!
कह कर वह सोफे में
धँस गया।''
मैं सोच रही थी
, हाय! गलती मेरी
थी ये सब नहीं करना था।
ये असहज हो रहा
है और औपचारिक सा बैठा है,
ना जाने मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा,
कि पहले आमंत्रण फिर ये सज्जा।
उसने मेरा
असमंजस भाँपा
और बोला-
''
अलग सी लग रही हो!
लडक़ियों और उनके पहनावे पर कम ध्यान देने वाला प्रणव ही था ये।''
'' अलग यानि हमेशा
से बुरी? ''
'' ऐसा कब कहा मैं
ने! ''
'' अच्छा चलो खाना
ठण्डा हो रहा है।''
'' वाह! शुध्द
भारतीय... आज मैं डायटिंग भूल कर खाउंगा।''
'' अच्छा शुरू तो
करो। मैं ने प्रणव को प्लेट पकडाई।
''
'' मैं तो सोच रहा
था कि तुम सूप,
सैंडविच जैसी ही कुछ चीज
ख़िलाओगी,
तुम्हें आता था ये सब?
''
'' तुम बस मेरे बारे
में नेगेटिव ही तो सोचते रहे हो।
''
'' अभी तक तो कुछ
खास नहीं सोचा ,
कहो तो अब कुछ पॉजिटिव सा
सोच लूं! ''
'' प्रणव... मतलब
क्या है तुम्हारा हाँ?
हाथ पकड क़े पहुँची पकड रहे
हो! मार खाओगे।''
''
खैर मजाक मत करो...सुनो मैं इस महीने छुट्टी लेकर भारत हो आऊं?
तुम्हें परेशानी न
हो तो,
अगला जीवनव्यूह नैना
के साथ कर लो! ''
'' तो क्या
गलत कहते थे हमारे दूसरे कलीग कि तुम बस बूढे ख़ूंसट बॉसेज क़ो पटा कर रखती
हो और छुट्टियाँ मैनेज कर लेती हो। अब तो ये लजीज़ खाना खा चुका ये खूंसट
बॉस,
भई छुट्टी तो देनी ही होगी।
वैसे क्या मम्मी पापा ने शादी करवाने के लिये बुलाया है क्या?
मेरे साथ यही होता
था पहले,
अब तो रिश्ते आना बंद हो गए
हैं। क्योंकि भारत के हिसाब से मेरी शादी की उमर बीत गई।''
'' आज क्या बात है
प्रणव?
मैंने तो कुछ ऐसा सर्व नहीं
किया जो तुम्हें बातूनी बना दे वैसे एकाध तलाकशुदा या आडी-टेडी लडक़ी भारत
में तुम्हारे लिये जरूर बैठी होगी।
''
'' तुम भी तो कम
आडी-टेडी नहीं ,
कहो तो।''
'' प्रणव बस भी करो
इस बार मैं नाराज थी।''
'' सॉरी,
मानसी मैं सोचने लगा
था कि हम दोस्त हैं।''
'' हम दोस्त हैं
प्रणव। पर मैं उलझ रही हूँ,
भारत जाउं या
नहीं... ''
'' जरूर जाओ,
ऐसे में तुम्हें
जल्दी जाना चाहिये,
आकर तुम्हारा वायवा,
डिसकशन भी तो है।
हाँ शादी करके वहाँ रूकने का इरादा हो तो बता देना,
नहीं तो मैं इन्तज़ार
करता रह जाउंगा बेचारा।''
''
फिर वही मैंने इस बार कुशन
उठा कर उसे मारने की चेष्टा की तो उसने हाथ पकड लिया। मैं जरा सी पिघली,
पिघला वह भी होगा पर
पल बीतते ही हम सहज संयत होने का चतुर अभिनय करने लगे थे।''
मेरे टिकट प्रणव ने
बुक करवाये परसों शाम जाना था मुझे। प्रणव नाटकीय रूप से उदास सा मेरे
आस पास घूम रहा था। मैं अपने अधूरे काम निबटा रही थी।
आगे
पढें
बाकी
अंश - | 1 |
2 | 3 | 4 | 5
| 6 | 7 | 8 | 9
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