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वनगन्ध-9

इस पराये देश में अपने हमवतन प्रणव से मुझे मोह सा हो चला था।  उसकी उदासी की वजह भी शायद यही हो।  हालांकि वह नितान्त बंगाली था, उसकी बडी-बडी आँखें, स्निग्ध सांवलारंग, बंगाली उच्चारण उसे वही पहचान देते थे और कहाँ मैं एकदम ही उत्तर भारतीय फिर भी कहीं एक स्वाद, एक महक से हम जुडे थे

अगले दिन मैं सामान बाँधने और मित्रों, परिचितों, मम्मी-पापा-मिलिन्द के लिये उपहार खरीदने में व्यस्त हो गई।  निखिल को कैसे भूल जाती?

प्रणव ने एयरपोर्ट तक छोडने की जिम्मेदारी ले ली थी।  अतिरिक्त उत्साह में सामान बाँधने का काम कम समय में ही पूरा हो गयापर सामान काफी बढ ग़या था, सालों बाद लौट रही थी।  अब पूरे चौबीस घण्टे काटना कठिन हो रहा था।  निखिल का पत्र बार-बार पढा, ट्रान्सपेरेन्सीज भी कई बार देख लीं।  फिर धीरे-धीरे मन भीगने लगा, निखिल को लेकर एक बार फिर बुरी तरह भावुक हो उठी

अगर निखिल जिन्दगी के उन कठिन पलों में साथ न होते तो, मैं कहीं भी नहीं पहुँच सकी होती, बचपन ही में टूट कर बिखर गई होती या आज तक हालातों से समझौते ही करती रहती।  वही तो मेरे हताश-उदास बचपन के एकमात्र सखा थे।  कितना ही कठोर क्यों न कर लूं मन को किन्तु उन्हें अवचेतन से विस्मृत कर पाना जीवन भर संभव न होगा।  उनके दिये जीवन मूल्य मेरी जडों में हैं।  आज जो भी गढा या कहीं कहीं गढने से छूट गया ये जो गढा-अनगढा व्यक्तित्व है, वह उनके ही प्रयासों के अधूरे अवशेष हैं।  जो सम्बन्ध हमने जिया उसमें अनुबंध या तो थे नहीं, थे तो हमेशा अदृश्य-अनकहे रहे।  दाम्पत्य का निराधार सा स्वप्न भूले से हमने भी पाल लिया था, पर वह अलौकिक सी बात कैसे सच होती? उस अलौकिकता में तो मन जन्म-जन्मान्तरों के फेरों से बँधा था।  सामाजिक दबाब न होता तो दाम्पत्य का निराधार प्रश्न उठता ही नहीं, बस ऐसे ही समानान्तर चलते चले जाना चाहते थे हम तो!

अच्छा ही तो हुआ विवाह कर उन्होंने असमंजस की हिमशिला अपने और मेरे हृदय से हटा दी।  बाहर भीतर से एक भय उनके व्यक्तित्व को क्षरित करता जा रहा था, परिवार का दबाब और मेरा भविष्य, इस दोराहे पर उन्होंने एक राह चुन ली और मुक्त हो गए, मेरे भविष्य का क्या था व्यर्थ ही चिन्तित थे देखो न आज मैं सैटल हूँ।

हालांकि जिस पल निखिल की मम्मी ने सगाई की खबर उत्साह से मुझे बताई थी, मैं हतप्रभ थी।  निखिल ने कभी संकेत तक नहीं दिया कि कब उन्होंने लडक़ी देखी, कब सगाई हुई।  क्या अपनी अन्तरंग सखि को सच बताने का साहस तक नहीं कर सके? बस तौलिया उठा कर बाथरूम में चले गए।  उस दिन घर लौटते हुए लगा कि पैरों के नीचे जमीन ही नहीं है।  मम्मी ने नहीं सँभाला होता तो उस अल्पवयस में कुछ कर-करा लिया होता।  मम्मी ने उँगली पकड क़र दिखाया दुनिया का विस्तार।  कि जहाँ सब रास्ते बंद होते हैं वहीं किसी कोने से गुजरती है एक कच्ची मगर कँटीली पगडंडी, अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखो तो।  कँटीली पगडंडी भी कहीं पहुँचाती तो है।  उन्होंने कहा,

'' मानसी ऐसे सम्बंधों में दोष किसी का नहीं होता।  अपने जीवन के अधूरे पन का दोष किसी पर मत डालना, इसे तुम्हें ही अपने जीवन-कौशल से पाटना होगा।  निखिल ने सदैव तुम्हें संरक्षक की तरह सहेजा, इसलिये नहीं कि उसके हटते ही तुम भरभरा कर टूट जाओ। ''

बस वही एक दृढता का सूत्र-वाक्य लेकर यहाँ चली आई।  आज भी निखिल के कुछ पत्र मेरे पास रखे हैं।  जब बहुत सी पीडा मन में जम जाती है तो उसे पिघलाने के लिये इन्हें पढा करती हूँ।  ये पत्र ही तो हमारे सजीव अतीत की बेतरतीब मगर जीवंत पहचान हैं।  इनमें सब कुछ है, पहले उपदेश, आग्रह, गज़लें, जंगल, मेरे स्वप्नों की परछाईयाँ, असमंजस भी है और विवश पीडा भी, क्या जाने कैसी दारुण विवशता थी कि उन्होंने बेइन्तहां चाहकर भी मुझसे अलग होने का रास्ता चुना

प्रिय,
तुम्हें न लिख कर मैं अपने ही नहीं तुम्हारे साथ भी अन्याय करता
हूँ, पर पत्र लिखना बेकार ही है, तुम तो कितना भी बडा पत्र लिखो संतुष्ट ही नहीं होतीं, क्योंकि तुम्हें जो चाहिये उसे मैं पत्रों के जरिये कैसे दूँ, मेरी निकटता, जम कर बहस, जिद, पूरा अधिकार, तुम्हें चाहिये अपना सहज सुलभ पुरूष

''सारस वाली टाई पिन मिल गई।  अब ये सारस तो हमारे स्नेह का प्रतीक हो गया है।  अब इसी पक्षी पर अपना काम, रिसर्च और लेखन करूंगा।  तुमने इसे महिमामण्डित कर डाला है।  टाई पिन पहन कर शीशे में देखा तो हँसी आगई कि कैसे तुमने मेरे कपडों की पसंद को बदला और मेरी उम्र कम कर दी।  आज अट्ठाईस की उम्र में भी तुम मुझे शौकीन लडक़ों जैसा रखना चाहती हो।''

'' तुमसे बहुत जुड ग़या हूँ और जुडता ही जा रहा हूँ।''

तुम्हारा निखिल

प्रियस्व,

इस बार जब से तुम मेरे पास से लौटी हो, सुरूर बन कर छाई हुई हो और मैं नहीं चाहता कि ये सुरूर उतरे।  कल्पना अब भी तैर रही है आँखों में कि गर्मी भरी दोपहर में, ड्राईंग रूम के हल्के अँधेरे में नीचे बिछे कालीन पर सोफे के सहारे बैठी हो और शरारत से ताश के पत्ते छीन रही हो और कह रही हो, हमेशा बेईमानी करते हो, अब नहीं खेलूंगी और की तो

''मैं कहता हूँ तो कोई और बेईमानी
तुम कुशन उठा कर मारती हो और
.. ''

तुम्हारा पहला ही पत्र पाकर उत्तर दे रहा हूँ, लिखती रहना... अपने सपनों के बारे में जहाँ तक संभव हुआ पूरा करने का प्रयास करूंगा।  आज भी नहा-धो कर प्रार्थना की तुम्हें वह सब मिले जो तुम चाहती हो, हो सके तो मैं भी।  तुम्हारा ही तो विश्वास था कि जिसने युवा बने रहना सिखाया और अब भी उम्र बढने के साथ आत्मविश्वास बढा ही है।  बस बंद करूं, नहीं तो बह जाऊंगा भावनाओं मैं और पता नहीं क्या क्या आशाएं बँधा दूं कि जिन्हें पूरा ही न कर सकूँ।  तुम ही हो स्थाई मन में शेष सब नश्वर है

तुम्हारा निखिल

सुखदा( कभी कभी दुख भी देती हो)

कल शाम लौटा तो एक लिफाफा मिला, घर में लाईट न होने की वजह से बाहर शाम के धुंधलके में जाकर पढने की उत्कंठा इसलिये थी कि जानता था कि ये सुघड अक्षर तुम्हारे हैं

हाँ वही सच है जो तुम महसूस करती हो, मस्तिष्क चाहे जो संकेत दे, मन तो तुम्हारे अनुसार चलता है।  तुम्हारे न होने से सभी काम यंत्रचलित से होते हैं पर जीवन उनमें से उत्सर्जित हो जाता है

निखिल

मिनी,

इस बार मैं अपने एक नवविवाहित मित्र के साथ केवला देव गया तो अमावस्या की रात थी।  हम उसी गेस्ट हाउस में रूके जहाँ उन्नीस सौ पिचासी में फरवरी की ठण्डी रातों में चौकीदार अलाव जलाया करता था, और उसी सुनसान सडक़ पर घूमे जहाँ चाँदनी रात में तुमने और अविनाश ने कविताएं सुनाईं थीं।  ठीक उसी तरह हम पैदल घूमे, जहाँ मेरे मित्र और उसकी पत्नि के विवाह का पहला वर्ष, उन घडियों को रोचक बना रहा था वहीं मेरा मन उन पलों की पुनरावृत्ति को छटपटा रहा था।  जानती हो अब इस गेस्ट हाउस का नाम सारस है।  मैंने कैसे रात निकाली कहना मुश्किल है।  ठीक वैसे ही किराये की साईकिल ले कर उस पक्षी विहार में घूमे।  फिर वही पुराने दिन याद आए जब तुम बार बार अपनी बाल सखि की छवि से निकल मेरी प्रिया होने का संकेत दे रही थी और मैं निरा बुध्दू! जब पीयूष अपनी दोस्त को साईकिल पर बिठा कर केवलादेव घुमा रहा था, तब मुझे स्पष्ट न था कि मैं भी ऐसा कर सकता हूँ, आज है तो तुम नहीं हो, व्यस्त हो अपने इम्तहानों में

निखिल

प्रिय,

इस सारस वाले लैटर पैड पर लिखने का अर्थ यही है कि मैं अपनी भावनाएं उसी अंतरंगता के साथ प्रेषित करना चाहता हूँ, जो कभी साथ-साथ हमने उडते सारस के जोडे फ़डफ़डाते पंखों के नीचे महसूस की थी

तुम्हारा पत्र आते ही यकीन मानो यहाँ का मौसम बदल गया(पहले मेरे मन का)।  सच मौसम तुम्हारे मूड की तरह यूँ बदला कि काली घनघोर घटाएं छा गईं और इससे पहले की बरस पडें मैं ने अपनी दूसरी प्रिया बाईक को उठाया और कहा ले चल वहीं जहाँ मैं अपनी प्रिया के साथ गुजारे ऐसे ही पलों का स्मरण कर सकूँ।  भटकता हुआ घर पहुँचा, वही बेडरूम का एकान्त, खिडक़ी में गूँजती बूँदों की सरगम।  मैं थोडा उदास हो गया, जब कुछ विचार एकत्र हुए तो लिखने बैठा

खूब बरसात हुई, मिट्टी और समृति की गंध का ऐसा नशा चढा कि देर तक तुम्हारा पत्र जिस जेब में रखा था उसके अलावा सब में ढूंढता रहा।  फिर यह सोच कर हँस पडा कि, बेवकूफ इतना अच्छा पत्र पा लिया, कब का पढ लिया, अब क्या अपनी प्रिया को ही जेब से बरामद करके मानेगा क्या!

तुम प्रकृतिस्थ रहना चाहती हो ना! मैं भी, सारे बंधन व्यर्थ हैं।  जबसे तुमने उन दैविक प्राकृतिक सम्बंधों से मेरा परिचय करवाया तब से सारी कृत्रिमताओं से परे रहना चाहता हूँ, संभव होगा? न सही जब तक तुम तुम हो, मैं मैं हूँ तब तक।  हे वनदेवी, तुम्हारी सान्निध्य में बिताए पल आकुल कर रहे हैं

बस ज्यादा लिखा तो फेल ही हो जाओगी तुम

निखिल

प्रिय,

कैसी हो? यहाँ बैठे-बैठे पता नहीं क्यों लग रहा है अच्छी ही हो।  उसकी वजह यह है कि मैं अनिश्चित मानसिकता में नहीं हूँ, तुम्हारे साथ मिल कर अपने जीवन का अगला कदम सुनिश्चित करना चाहता हूँ।  क्या एक साधारण से लैक्चरर के साथ जीवन बिताना पसंद करोगी? तो शुभकामना दो कि मैं तुम्हें तुम्हारा मनचाहा जीवन दे सकूँ।

एक बात और यदि अब भी भविष्य को लेकर मन में संशय हो तो, तुम्हें अपना निर्णय लेने की पूरी स्वतन्त्रता है।  मिनी एक बात पर ध्यान देना कि जीवन की कोई भावना जटिल नहीं होती, जटिल होती है भावनाओं से उपजी प्रतिक्रियाएं और उनस जुडी असुरक्षाएं।  इनके लिये ही कई सामाजिक बंधन बनाए गए हैं, समाज सुरक्षा देता है, आत्मविश्वास देता है।  समाज से कट कर रहना बहुत कठिन होता है

जानता हूँ तुम्हें मेरे उपदेश नागवार लगते हैं, क्योंकि तुम्हें मेरे अतिरिक्त किसी की भी परवाह नहीं।  तुम सोचती हो तुम्हारा सरोकार बस अपने और मेरे जीवन से है।  किन्तु जब परिवार बसाओगी तब शायद समझ सको, समाज का महत्व

शेष सभी कुछ वैसा ही है।  घर में जम कर शादी की बातें हुई, मैंने प्रतिरोध नहीं किया, चुप रहा व्यर्थ ही सबका निशाना बनता।  विश्वास रखना तुमसे छल नहीं करूंगा।  पापा और तुम्हारे कहने से आई एफ एस का फार्म भरा था मगर लगता है असफलता कसैला स्वाद छोड ज़ाए दूँ ही नहीं

निखिल

प्रिय मानसी,

उस दु:स्वप्न के बाद आज नींद टूटी है तो उसी पीडा का आभास हो रहा है जो तब तुम्हें बिखरता देख हुई थी।  अब तो स्वप्न देख सकूँ इतना भी नहीं सो पाता, बुरे खयाल मन पर हावी रहते हैं।  चल रहा हूँ क्योंकि समय रूकता नहीं

मैं अब भी चकित हूँ, न चाहते हुए भी कितना कुछ घट गया।  मैं किसे दोष दूँ? परिस्थितियों ने ही ऐसा व्यूह रचा कि वही सब करता चला गया, जिसका आदेश नियति ने दिया।  मैं वचन देकर भी नहीं निभा सका।  तुमने लिखा जनकों का ही श्रृण चुका लूं, यकीन करो बस वही कर रहा हूँ।

मैं तुम्हें स्नेह करता हूँ, यह सच है मगर यह भी सच है कि विवश हूँ।

निखिल

प्रिय,

पता था पत्र मिलेगा, पर भाषा बडी अजनबी सी थी।  मेरी तुमसे प्रार्थना है कि भाग्य पर तो मेरा वश नहीं, पर मेरी प्रथम अभिव्यक्ति को दुर्भाग्य में बदलने से रोक लो।  ठीक है हम समानांतर न चल सके पर मेरा तुम पर अगाध विश्वास का, बालसखि का सम्बंध वही है।  पहले तुम मेरी हाँ में हाँ मिलाती थीं अब तुम्हारा विरोध और तुम्हारी मौलिकता एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं।  मैं चिन्तित हूँ वह लडक़ी खो रही है जिसका मुझसे निस्वार्थ नाता था

याद है वही लडक़ी टूटी सी, बिखरी, जिसकी पढाई में कम ही दिलचस्पी हुआ करती थी, जिसके जीने का कोई मकसद नहीं था।  मैंने प्रयत्न किये, पहले तुमने निराश किया फिर मेरे प्रति श्रध्दा से भर कर स्वयं में संभावनाएं ढूंढ लीं।  आज मैं गर्व करता हूँ कि तुमसे जुडा हूँ तो अवमानना करती हो, क्या एक ही वजह से सारे समीकरण बदल गए।  मैं तुम्हारा कुछ नहीं! या तुम्हारी डायरी के पीछे लिखी ये पंक्तियाँ सच कह रही हैं, माफ करना इस बार बिना पूछे तुम्हारे घर से उठा लाया हूँ।

'' उर्वर मन जब तुझमें कोई थाह न पा सका तो हार कर तेरे मेरे बीच में मैंने ही तनावों, अस्थिरताओं का झीना नकाब डाल लिया...''

मेरे जीवन में पहली बार होने वाली बहुत सी घटनाओं से तुम जुडी हो, पहला प्रेम तो है ही, पहला दिन उस साधारण सी नौकरी का जिसे तुमने बहुत खास बना दिया था।  तुम हमेशा ही मेरी भावनाओं से जुडी रहोगी

जानता हूँ पत्र का उत्तर पाने का अधिकार मैंने नहीं खोया

निखिल

इसके बाद अंतिम पत्र मुझे उनकी शादी से जरा पहले मिला था

प्रियस्व,

मुझे जीवन के बेहतरीन पाँच साल देने के लिये मैं तुम्हारा आभारी रहूँगा।  मुझसे इस दौरान जो भी ज्यादतियाँ हुई हैं, उनके लिये क्या कहूँ, पर माफ कर देना।  अच्छी जिंदगी बिताना, अगर भटकोगी तो मेरी आत्मा को कष्ट होगा।  मस्तिष्क तरंगों से हम सदा से जुडे रहे हैं

जैसा कि तुम चाहती हो इस निर्णय के बाद हम कोई संबंध न रखें, तुम भी कोशिश करना पर कभी ऐसा मत कहना कि मैं अपने स्नेह वृक्ष की छाया हटा लो ये मुझसे न होगा

अब जा रहा हूँ तो हर छोटी-छोटी बात महत्वपूर्ण लग रही है।  मेरे पत्र, मेरे उपहार अपने पास रखोगी तो कैसे जी सकोगी? अपने से दूर हटा देना।  कभी मेरी जरूरत हो तो बुला लेना, मैं तुम्हारा अहसान मंद रहूँगा।  शुभकामनाएं, सूचनाएं मिलती रहेंगी तो अच्छा लगेगा, यदि न चाहो तो रहने देना।  तुम्हें बाध्य किये बिना जा रहा हूँ, अब कोई आरोप मत देना

निखिल

नीम के फूलों से ये पत्र पहले तो मीठी गंध देते हैं, गहरी साँस ले कर देर तक सूंघने पर कडवाहट छोड ज़ाते हैं

उनकी शादी से पहले सताया बहुत था मैंने।  सगाई के बाद जब भी आते मुझसे व्यंग्य, शुष्क व्यवहार पाते, मैं क्या करती, न चाह कर भी मोह उनसे छूटता न था।  मैंने भटकाव की उनकी आशंका को खूब हवा दी, दो चार पुरूष मित्र बना लिये।  क्या उन्हें पता था कि सूरदास की राधा की तरह मेरा भी एक ही मन था और वह चला गया था श्याम संग

उधो मन ना भए दस बीस
एक हुतो सो गयो श्याम संग
कौ आराधे ईस!

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