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सूर्यास्त

जैसे व्याप गया हो तेज
नारंगी रंग में
और बढ़ गया हो आकार
कई गुना

धीरे धीरे छिप रहा है सूर्य
अरावली पर्वत श्रृंखला के पीछे
शान्त आकर्षक यह रूपॐ
होते हैं जितने तेजस्वी
अस्त होते हैं
उतनी ही गरिमा के साथ

महाभास्कर प्रविष्ट हो गये हैं
पश्चिमी गोलार्ध में
प्रकाशित है धरा उस तरफ

इस तरफ
नारंगी के भीतर से
निकल आई हैं कई फांकें
बांटती सौरमण्डल को
अनेक भागों में।

सूर्य बांटता है रस
निरन्तर – अनवरत।

– शैलेन्द्र चौहान


 

डगर पतली सी

मौन कितना बोलता है
बदगुमानी‚ तोलता है

हर तरफ जंगल हरे हैं
पेड़ कांटों से भरे हैं
पगडंडी कोई गहो
शूल बिखरे पड़े हैं

हर दिन
भेद नित नये खोलता है
मौन कितना बोलता है

कुआं है इस तरफ
उस तरफ खाई
बीच में
इक डगर पतली सी

भयातुर
मन डोलता है
मौन कितना बोलता है
..

– शैलेन्द्र चौहान

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