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आत्मचिन्तन
कुछ देर हमारे साथ चली वह
हाथ हिला–हिलाकर
ओझल होने तक
देती रही शुभकामनायें

मिल गयी वह जब दोबारा
देखकर आँसू हमारे रूक न पाये
चाहकर रूकना हमारा
मानो स्टेशन पर आज गाड़ी
बिन रूके ही चली गयी

बन्द कर नयनों को यह समझा दिया
दिखते जो वह नाते होते नहीं
घूँघट में चाँद ही है..
सोचकर
पलकों में छिपे सपनों के
माले सदा बुनते रहे

दहेज की दहलीज पर
सपने दफनकर
हाथ बाँधे बंधुआ मजदूरों की तरह
दुलहन– दूल्हे बन रहे लाखों युवा
यह मिलन
कैसा सृजन है प्रेम का

अर्थ की
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
मुक्ति होना चाहता जो प्रेम से
क्या स्मृति क़ो त्याग पाता है कभी

सबके अपने–अपने सच हैं
उनकी अपनी सीमायें
सिद्धान्तों के लिए सदा क्यों
हम अपने सच को
सहानुभूति–सम्मान–मान को
किन मूल्यों से आँकें?

– शरद आलोक
 


 

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