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सागर
बन गई वह औरत
1 बस इतना ही चाहा उसने एड़ियाँ उचका बादलों को छू ले नारियल की फुनगी पर चोंच रगड़ ले ब्जिली की चमक को अंजुरी में भर ज़मीन पर उतर आए वह उड़ी किन्तु पंखों पर नहीं बादलों पर भी नहीं बिजली की धार पर भी नहीं धुनी हुई रुई की तरह देह का रेशा–रेशा हल्का हुआ तार–तार बन धागों में बदल गया फूल पत्तियों की बुनावट बुनती हुई आँगन में कसीदे सी बिछ गई वह 2 बीज से निकली रेशमी जड़ भीतर तक चली आई कोख खुजला जम बैठी वह चाहने लगी पेड़–पौधे उस पर घिर आएँ कीड़े सतह कुरेदने लगे साँप–बिच्छु सुरंग बना लें जंगली भैंसें सींग की नोक से तार–तार कर दे भीतरी गुठलियाँ नरक से निकल सिसकियाँ स्वर्ग पहुँच जाएँ बन जाए वह जमीन बाहर से भीतर तक 3 वह आसमान थी ज़मीन बनी अब बन रही है सागर हिलोड़ती लहरें घूंट–घूंट पीती पहली आई धीमे से खटखटाया वह जाग मुस्काई ही थी दूसरी आ पहुँची तीसरी चौथी पाँचवीं उफ लहरें ही लहरें एक के बिलाते दूसरी दूसरी के बाद तीसरी सागर बनी वह औरत जूझ रही है बारूद पर रखी देह होंठों को चबाता दर्द रेशा–रेशा डूबती अंधेरे में वह न जमीन रही न बादल बस बन गई सागर लहर दर लहर दर्द से जूझती मोती की आस में…… |
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