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योगमाया

मुझसे मत करना सहानुभूति
यह अस्तित्व बचाने की लड़ाई
नई तो नहीं
तीसरी बेटी हूँ‚
कोख ही से सीख कर आई हूँ
बेज़मीन ही सही
पर मेरे पैरों के नीचे
मेरे साथ साथ चलती है
एक वर्ग ज़मीन
चलते चलते भी जो मेरी ही रहती है
यूं भी मैं चलती कब हूँ?
उड़ती हूँ

मैं हूँ कहाँ इस लोक की
मैं तो योगमाया हूँ
कृष्ण के साथ
बदल दिये जाने के लिये जन्मी हूँ
कहीं से बह कर आई हूँ
कहीं उड़ जाऊंगी

एक दिन रीत जाऊंगी कतरा कतरा
बीत जाऊंगी रेशा रेशा
पर मेरे कहे‚ गुनगुनाए
लिखे शब्द यहीं कहीं छूट जाएंगे
पंखों की तरह‚
तो कभी सन्नाटे भरी दुपहरी में
रोशनदान से आती कबूतर की
गुटरगूं की तरह
कभी लाख फें दिये जाने के बाद भी
फिर फिर इकट्ठे किये चिड़िया के घोंसले में
तिनका दर तिनका

और मेरा अस्तित्व
एक नमी सा
हवाओं में घुला रहेगा
लौटेगा फिर फिर मौसम बन कर

– मनीषा कुलश्रेष्ठ



 

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