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प्रवासी
कवियों की कलम से
1
कभी – कभी
उदास लम्हों और
उभरते अंधेरों के बीच
मैं
बीते गौरव को
किसी महत्वपूर्ण अध्याय – सा
पढ़ने का अथक प्रयास करती हूँ।
कुछ अदृश्य अर्धजली उंगलियां
मृत आस्थाओं और सम्बन्धों की
गर्म राख कुरेदने लगती हैं
और मैं
अपने अन्दर उठते हुए
आदिम भावनाओं के ज्वार पर
अर्ध विराम लगाने का प्रयास करती हूँ
अचानक मेरे चारों ओर
ऊंची और खुरदुरी‚ दीवारें खड़ी हो जाती हैं।
दीवारों पर खुदी
क्षत विक्षत‚ निर्वसना‚ पत्थर की बुतें
पूरी ताकत से हिलती …
किसी अदृश्य जंजीर को
तोड़ने का असफल प्रयास करती हैं।
मैं दबाव और घुटन महसूस करती हूँ
दीवारें हरहरा कर
मेरे ऊपर गिरने को आतुर लगती हैं
मेरे जोड़ – जोड़ में ठहरा हुआ
सदियों का रौंदा‚ सप्तपदी का दर्द
रह रह कर करकने लगता है।
मुझे महसूस होता है
वंशजों के लिये
मैं बार बार‚ सदियों से
जीवन सुरा होंठों से सटाये
थरथराती
टुकड़ा – टुकड़ा‚ किश्तों में बंटी
पथराई ज़िन्दगी जीती रही …
2.
कल रात हुई बैठक में
कई बार तुम्हारा ज़िक्र हुआ
तुम्हें सशक्त लोगों ने
कई नामों से पुकारा
तुम्हारी शान में
कई ऊंचे लोगों ने सजदे पढ़े
मैं भी तुम्हें उन बड़े
विद्वानों‚ रईसों और सम्मानित व्यक्तियों के
सारगर्भित व्याख्यानों में खोजती रही
तुमसे न्याय पाने के लिये
कई मंजिलें पार करीं मैं ने
तुम पाषाण – से मुझे
सदियों की जंग लगी
तुला में
तोलते रहे।
यों कल फिर
बैठक होगी
जहाँ तुम्हारी शान में पढ़े जायेंगे
कसीदे
और मैं कालीन के नीचे
पड़ी‚ धूल सी पल भर में समेट दी जाऊंगी
अस्तित्वविहीन
प्रतिच्छाया तुम्हारी‚
कांपती दीपशिखा – सी
बूंद बूंद बहती अश्रुधार
नि:शब्द धोऊंगी तुम्हारे चरण
तुम पिघल कर भी
छलते रहोगे मुझे
मायावी रूप धर
कभी पति‚ कभी प्रेमी
कभी सृजक
और कभी बन्धु !
स्वयं बांधते रहोगे मुझे
मोह – पाश में
भोगते रहोगे
छल और बल से…
कैसा है यह अमानवीय दर्प…
तुम्हारा?
बदल देता है शिलाखण्ड में मुझको
भस्म कर देता है
जीवित अग्नि में
हार देता है जुए में
भुला देता है राज पाट के मोह में …
बदल जाते हैं युग के आईने‚
नहीं बदलते मेरे प्रतिबिम्ब
स्थितिग्रस्त‚ अभिशप्त हूँ आज भी
नहीं देखता कोई
पत्थर नहीं सम्वेदना हूँ मैं …
–
ऊषा राजे सक्सेना
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