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ख़ैरियत
ख़ैरियत पूछते हो तुम
ख़ैरियत पूछ लेती हूँ मैं भी
लगभग सभी सभ्य जन
पूछते हैं ख़ैरियत अपनों से कम
बेगानों से ज़्यादा
मिलने पर
फोन पर
यूं ही रास्तों पर

यूं औपचारिकताओं के लबादों में
कितना आसान हो जाता है जीना
ज़िन्दगी की जद्दोजहद को
बर्फ सी जमी हंसी में
उत्तर होता है ठण्डा सा
' ठीक हूँ।' ' बढ़िया' ' फाईन! '
कोई नहीं खोलता भरे बाज़ार
अपने दुखों की पोटली
ढांपे रखते हैं खुशनुमा ख्वाहिशों को सभी
एक खोखली सभ्यता की फटी चादर में
हर कोई गुज़र जाता है
ऊपर ही ऊपर से तैरता हुआ
तल में नहीं झांकता
न जाने कितनी किस्म की
मरती इच्छाएं‚
उन मरी हुई इच्छाओं की यातनाएं
भावना – वासना – कामना के
परत दर परत दलदल
भीड़ लगी है
दुनियादार किस्म के रिश्तों की आस पास
मुखौटे ही मुखौटे
एक दूसरे से टकराते – झल्लाते
नकली नुमाइशें
मुस्कानों के रैपरों में लिपटी
फूहड़ किस्म की झूठी आत्मीयता
जानते बूझते भी
इन सर्वस्वीकार रिश्तों की दुनिया में
तल में मोती सा पड़ा
एक मासूम सा सच्चा रिश्ता झुठला आते हैं
भ्रम समझ कर!
या जाने डर कर!

-मनीषा कुलश्रेष्ठ
13 नवम्बर 2003


 


 

 


 

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