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ईद के अर्थ…

आज इक बात नई सुनलो मैं सुनाता हूं
ईद के अर्थ नये सब को मैं बताता हू ।

 

सारे संसार में भूखा न सोए आज कहीं
ईद की ख़ुशियां इसी सोच में पा जाता हूं।

 

ईद का अर्थ सिर्फ़ रोज़ा या नमाज़ नहीं
रोती आंखों में चमक प्यार की जगाता हूं।

 

ज़लज़ले ने जिन्हें बेघर किया बरबाद किया
उनकी इमदाद करके ईद मैं मनाता हूं।

 

बारिशों में भी रहे प्यासी आत्मा जिनकी
ऐसी रूहों की प्यास ईद पर बुझाता हूं।

                                             तेजेन्द्र शर्मा

मैं हूं
मिलना चाहते हो मुझसे
मिलो
मैं हूं
देखो मुझे
ऐसे क्या देखते हो
घृणा से नहीं थोड़ा प्यार से देखो
मेरे इन मैले कपड़ों को नहीं
इन नंगे पॉंवों को नहीं

अगर वाकई देखना चाहते हो तो
इन आखों को देखो
इस वक़्त खुश चेहरे को देखो
क्या ऑंखों में कोई डर देखा
या कि चेहरे पे दर्द की कोई रेखा

नहीं
तुमने ज़रूर देखी होगी
उम्मीद की एक किरन
क्योंकि मैं हूं
एक गति
बोलो गाओगे मुझे
संभावनाओं का पुलिंदा
अपनाओगे मुझे
फिर

आओ मिलो मेरे परिवार से
वो खाट पे लेटा नशेबाज़ बाप
ये बीमार मॉं
और मेरे दो भाई तीन बहनें

मुझे नहीं चाहिए
सहानुभूति तुम्हारी
क्योंकि मुझे पता है
मैं हूं
पेट पालने लायक
आठ जनों का
मैं हूं ख़त्म करने के काबिल
सिलसिला ये उलझनों का

बस यही है मेरी कहानी
बोलो
छापोगे कहीं लिखकर
मैं हूं

                                                  प्रबुद्ध जैन

लड़कियां प्रेम में

लड़कियां जब प्रेम करती हैं
तो वे अपने भीतर खिला पाती हैं हर मौसम
तब वे चुपके से उतर जाती हैं
खुश्बुओं की किसी नदी में
या फिर पर्वतों की हथेलियों में चमचमाती किसी झील में
तैरती रहती हैं देर तक

उन्हें लगता है धरती और आसमान के बीच
जो इन्द्रधनुष खिलता है
वह उन्हीं का प्रतिबिम्ब है

लड़कियां अपने भीतर उगे मौसम से वशीभूत
लिखती हैं लम्बे-लम्बे खत
वे जानती हैं सबकी नजरों से बचाकर लिखा गया वह खत
पहुंचेगा जब गंतव्य तक
तब स्वर्ग में बैठे देवता उनकी राह में एक और फूल रख देंगे

लड़कियां मानती हैं कि उनके प्रेमी
आयेंगे उनकी अंगुली थामने
प्रलय और झंझावातों के बीच भी

लड़कियां जो आकंठ डूबी हैं प्रेम में
वे नहीं मानतीं
कि विदा भी होते हैं मौसम ।

                                             -गुरमीत बेदी

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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कटघरे में मौसम
मी लॉर्ड
कटघरे में खड़ा मौसम
रहम का नहीं, सजा का हकदार है
इसे बेकसूर ठहराने की तमाम दलीलें
एकमुश्त खारिज की जाएं
और इसे तब तक
फंदे पर लटकाने का हुक्म सुनाया जाये
जब तक जिंदा हो इसके जिस्म में साजिशों का आखिरी कतरा

मी लॉर्ड
इस मौसम ने झुलसा डाले कई पहाड़
लील ली चांदनी की तमाम शीतलता
रौंद डाली धरती की तमाम हरियाली
और नदी के पैरों में पहना दीं
हजार-हजार बेड़ियां

मी लॉर्ड
इस मौसम के कहर से
धरती भीतर ही भीतर कसमसाती रही
हवा किसी खौफजदा हिरनी सी
लहूलुहान छिपती रही
एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी
और पेड़ जड़ों से बंधे होने का संत्रास झेलते रहे

मी लॉर्ड
कटघरे में खडे इस मौसम ने
हड़प रखीं हैं न जाने कितनी रौशनियां
कितनी ही चीखों के रक्तबीज
आज भी मौजूद हैं इसके भीतर
मी लॉर्ड
हमें सचमुच नहीं चाहिए ऐसा मौसम
जो इस धरती के सपनों को
कब्रिस्तान में बदलता रहे
और व्यवस्था हाथ बांधे खड़ी रहे
गुलाम की तरह।



कवि के भीतर

अगर आप उतरें किसी कवि के भीतर
कहीं गहरे तक
तो आपको सहज ही दिखेंगे
वहां धूप-छांव के रंग

वह किस तरह कोहरे की दीवारें गिरा
रोशनियों से करता है संवाद
और खंजरों के बीच भी
नहीं पाता कभी खुद को निपट निहत्था
यह जिजीविषा  भी दिखेगी
उसकी धमनियों में दौड़ती हुई

वह कितनी बार आदमकद शीशे के सामने
मंद-मंद मुस्कराया है
कितनी बार अलसुबह उसने
दीवार पर उभरी किसी आकृति से गुफतगू की है
कितनी बार रात को खिड़कियों के परदे गिराने
और बत्ती बुझाने के बाद
नाजुक हथेलियों के स्पर्श के बीच
वह चुपचाप अंधेरे में निकल गया है सफर पर
यह एक दृश्यपट की तरह
आप देखेंगे उसके भीतर

यह भी देखेंगे
किस तरह एक कवि विचारों से मुठभेड़ करता है
कुछ दलीलों के आगे नतमस्तक होता है
और कुछ दलीलों को कर देता है
सिरे से खारिज
आप कवि के भीतर
लहरों का स्पंदन तो महसूस कर सकते हैं
हवा को धड़कते भी सुन सकते हैं
लेकिन आपको वहां नही दिखेगी कोई मुखौटाशाला।




हो सके तो

तुम्हारे पास जितने भी रंग हैं
और जितनी कल्पनाएं
तुम इस कैनवस पर उडेल दो इन्हें
में कोई एक रंग चुनकर
किसी सपने में भर लूंगा

मैं जब भी खुद को पाऊंगा किसी वीराने में
तुम्हारी किसी कल्पना की उंगली थाम
शामिल हो जाऊंगा उस उड़ान में
तब मैं अकेला नहीं हूंगा
मेरे साथ होगी तुम्हारी पदचाप
तुम्हारी हंसी-ठिठोली
तुम्हारी स्वर लहरियां
और सबसे बढ़कर तुम्हारी धड़कनों का संगीत

जब भी किसी घाटी के शिखर पर चढ़ते हुए
तेज हवाएं मुझे नीचे धकेलने को दिखेंगी आतुर
मैं इस कैनवस पर से ही एक उड़नखटोला उठाऊंगा
और हवा में तैरते हुए शिखर पर जा विराजूंगा

जब भी मुझे लगेगा
मौसम के झंझावातों ने
फीके कर दिये हैं धरती से तमाम रंग
इस कैनवस से उठाकर रंग
मैं हवा में बिखेर दूंगा
इसी कैनवस से उठाकर खुशियां
मैं फुटपाथों पर बसी झुग्गी झोपड़ियों में जाऊंगा
जहां बरसों से हवा में नहीं गूंजा कोई गीत
अगर तुम इस कैनवस पर
पंछियों का सदाबहार राग
और चहचहाट भर दोगी
तो हवाएं कभी नहीं होंगी बोझिल
हो सके तो !

                                  -गुरमीत बेदी

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