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क्यों अच्छी लगती हो !

उस दिन तुमने
गोबर से आंगन लीपते हुए
आंखे झुका कर पूछा था
` मैं तुम्हें
इतनी अच्छी क्यों लगती हूं ?'

मैं तब कुछ कह नही पाया था
मैं
कहना चाहता था
तुम्हारी देह से फूटती है
मेरे खेतों की मिट्टी की महक
तुम गेहूं सी लहलहाती हो
मेरे आंगन में

और कि
मैं तुम्हारी आंखों में देखता हूं
दुनिया भर की धरती
जिसमें हिम्मत की फसल
लहलहाती है !


जिस्मों की कैद में

एक जिस्म है तेरे पास
एक जिस्म है मेरे पास
और हमारी व्याकुल आत्माएं
कैद हैं उनमें !

पता नही कब
ये संभव होगा
कि हम अपने जिस्मों की हिफाजत के बिना
ठीक से मिल पाएंगें
और अपने सुख-दुख की बातें और
फुर्सत के क्षण निकाल पाएंगे !

ये जिस्म
सिर्फ जिस्म नहीं
इनका समाज है
नियम
और कायदे कानून हैं
व्यस्तताएं और जरूरतें हैं !

ये जिस्म
जिसकी गर्म इच्छाएं
और स्वार्थ हैं
और इसमें कैद हैं
हमारी व्याकुल आत्माएं !

कब मिल पाएंगे हम
एक-दूसरे से
अपने जिस्मों के बिना !

मेरा व्यक्तिगत मसला नहीं है यह


तुम नही समझती मेरे शब्दों के अर्थ
तुम्हारा वो छटपटाना और बेबसी से तकना चुपचाप
डबडबाई आंखों से देख
अपने में ही खोकर रह जाना हमेंशा
जैसे चीखते हुए बार-बार कहती हो
कि यह हमारा व्यक्तिगत मसला है कि
मैं तम्हे प्यार क्यों नही कर पाता!

तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारे साथ
सपनों की बात करूं
आकाश के अन्तिम छोर तक
उड़ते जाने की बात करूं
तुम्हे आगोश में ले भूल जाऊं कि किसी दिन
हरिया के सामने गुंडों ने उसकी बीबी को रौंदा था
और कि कैसे चमड़े के कारीगर की हड्डियों से
मांस का एक-एक कतरा नौचा था!

तुम चाहती हो मैं वह सब भूल जाऊं
जो इसी तरह मेरे दिमाग की भट्टी में
सालों से हवा लग-लग के सूर्ख हुआ है
और जिसे सहेजते-सहेजते
मेरी नसें झनझनाने लगी हैं
सच! मैं तुम्हें कभी समझा नहीं पाउंगा
कि लम्बी बहस के बाद तुम्हे
न समझा पाने की झुंझलाहट का हथौड़ा
मेरे कितने सपनों को भरभरा कर गिरा देता है!

मेरी दोस्त!
आदमी के अस्तित्व बचाए रखने की
इस लड़ाई के बीच
`प्यार करना' मेरा व्यक्तिगत मसला नही हो सकता
मैं तुमसे लड़ते रहने की हिम्मत चाहता हूं
हर कदम पर साथ देखना चाहता हूं

 

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जब कोई रास्ता न मिले
बहुत बार
जब कोई रास्ता न मिले कहीं
विचार भटक रहे हों दिलों -दिमाग में
-ज़स्र्रत होती है अपने अन्दर झांकने की

यह तय है कि
हर समस्या
अपने समाधान के साथ पैदा होती है

ऐसे में
जब चल रही हों काली आंधियां
और अन्धेरा हमें डराने लगे
-ज़स्र्रत होती है भरोसा करने की
अपने आप पर

जिस दिन आप खड़े होते हैं
मज़बूती से धरती पर ऐड़ी जमा
आसमान आपकी बाहों में होता है और
चेहरे पर जहान भर का सुकून

लेकिन इससे पहले ज़रूरी है
एक दूसरे का हाथ थामना
और आंधियों के सामने
चट्टान की तरह अड़ जाना !

 

तुम्हारी सरकार

गंवाने को कुछ भी नहीं है मेरे पास
एक अदद नौकरी भी नही
सम्पत्ति नही
कागज पर लिखी मेरे पिता की विरासत नहीं
मैं किस लिए डरूं तुम्हारी सरकार से
चिल्लाहट से उसके कानों के परदे फाडूंगा
अखबारों में करूंगा उसका चरित्र हनन
सरे बाजार नंगा करूंगा
अपने फेफडों की तमाम ताकत लगा
उस के खिलाफ नारा बुलंद करूंगा

क्यों डरूंगा मैं तुम्हारी सरकार से
जो गुंडों से गर्भ धारण करती है
बेहयाई से जन्म देती है घृणा को
हमें आपस में लडवा कर
विदेशी कम्पनी के कदम चूमती है
मैं विरोध करता हूं

यह मेरी और हमारी सरकार नही
जो मेरी मजदूरी गिरवी रख
कोठे पर रात गुजारती है
सरसराती है हमारे कफन के लिए
अमेरिका से हथियार खरीदती है
हमारी सरसों पड़ी रहती है मंडियों में
इधर रात को रेस्ट हाउस में कार ठहरती है
यह तुम्हारी तुम्हारे अफसरों की
यह मेरी और हमारी सरकार नही !

 

ओ मेरे अफसानों के नायक
ओ मेरे अफसानों के नायक
कहां से ढूंढ लाओगे ज़मीन
दिन-प्रतिदिन बढती आबादी के बीच
प्रेम के लायक!

ओ मेरे अफसानों के नायक
पार्क अब नहीं रहे सुरक्षित
और ज़बान खुलते ही चलती है गोली
पीपल की छांव
और आज के
नफरत भरे गांव
कहां तलाशोगे ज़मीन
प्रेम के लायक

हां, फिर वो प्रेम भी कहां
और उसके प्रतिमान कहां
जिसे हम कहानियों में पढा करते थे


बरगलाने और भोगने के बीच
कहां तलाशोगे ज़मीन
प्रेम के लायक!

ओ मेरे अफसानों के नायक !
 

-रविन्द्र बतरा
 

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