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इधर सुनो : कुछ कविताएं

।। एक ।।

इधर सुनो

सच तो यह है कि

झेंपता हुआ चांद

कभी अपने आकार में मुस्‍कराता

हम दोनों के बीच

लगभग अकेला

हमेशा मिलाता है हमें

 

हमारी दूरी को

हमेशा अपने होने से पाटता

छेड़ता कभी तुमको

कभी मुझ संग अठखेलिया करता

 

इधर सुनो

इस ब्रम्‍हाण्‍ड में

किसी और की नहीं

केवल हमारी मध्‍यस्‍थता के लिए

तैनात रहता है वह

बेनागा..........

 

।। दो ।।

इधर सुनो

कुछ शब्‍द भटक गए थे कल

नहीं पहुंच पाए थे तुम तक

उन्‍हें ढूंढ कर

ध्‍यान से सुन लेना तुम

रास्‍ते में मिल गए होंगे वे

तुम्‍हारे कहे शब्‍दों से

झिझकते हुए

पहचान बढ़ा रहे होंगे परस्‍पर

 

र को ठंड में कांपता देख

स ने ओढा दी होगी अपनी मात्रा

क को भीगता हुआ पाकर

के ने लगा दी होगी छतरी

 

इधर सुनो

ठीक नहीं

इतना हमारे शब्‍दों का मिलना

डर है मुझे

अकेला न कर दें

हमारे ही शब्‍द हमें

      -राकेश श्रीमाल

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