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हे सत्तासीन स्त्रियों

पसरी हुई है मौन दूधिया रौशनी
डरी - सी बिछी हुई करीने से कटी हुई घास
ग्रेनाईट पत्थर से चकाचक अम्बेडकर पार्क में
जंगल के सबसे विशाल जानवर खड़े हैं पंक्तिबद्ध सावधान
राजमहिषी के अगले संकेत की प्रतीक्षा में !

अमरत्व की चाह सा उभरा तुम्हारा नाम शिलापट्टिका पर
जानती हो ...
भरता रहा हम में विजेता भाव
वह गौरव का दिन भूले नही हैं हम
कि जब तुम्हारे सामने शकुनियों दु:शासनों की हताश फौज ने
किया था आत्म समर्पण ....


२०६ का जादुई आंकडा बंद मुट्ठी में लिए
टहले तुम्हारे पाँव ५ कालिदास मार्ग पर
ठंडे चूल्हे वंचित आस बादलपुर के खेत खलिहान
गा रहे थे स्वगत गान ...
सच मानों दलित देवी की प्रतीक भर नही लगीं तुम
तुम में हमने महादलित स्त्री भी देखी.....


फिर एक बार हम पगला गये इस ख़ुशी में
कि जहाँ गंधाती थी हमारे खून पसीने की फसलें
जहाँ लाद दिए गये थे हमारे कन्धों पर दुत्कारे इतिहास
ठीक वहीँ, जरा सीधी- हुई हमारी टेढ़ी पड़ चुकीं पीठें,
निर्वस्त्र घसीटी गईं औरते,रसोईघर की लपटें और पिता की लाचारी
सभी, दबे पाँव इकट्ठे हुए और लगभग दौड़ते हुए .....
गले जा लगे अछूतों की बस्तियों,जूठन पर पलते भरत पुत्रों ,पवित्र कुओं और मंदिरों से भगाए गये देवताओं से


दुःख का भार कम होने तक चीख चीख कर रोते रहे हम
ठीक उन्ही दिनों की तरह मर्मभेदी थे हमारे आर्तनाद......
जिन दिनों दी गईं थी हमें समान नागरिक सहिंताएं या मौलिक अधिकार
हम डरे हुए तो थे
पर खुश थे
हाँ,चुप थे
इस ख़ुशी में हम फिर भूल गये कि स्मृति लोप राजरोग होता है
शीर्ष पर पहुंची हुई शक्तियाँ स्त्री या पुरुष नही होती
वे मात्र  असुरक्षा हैं, दर्प हैं लिप्सा हैं...
और हैं रेसकोर्स रोड पर पूर्ण होती महत्वाकांक्षाएं .....


हम भूल गये कि राजभवन की सीढ़ियों पर
किसी काम की नही होतीं संवेदनाएं
बल्कि इन रपटीले रास्तों पर इतना हल्का होना ही सुविधाजनक है
कि टोल टेक्स में ही पीछा छुडा लिया जाए अंतर्रात्मा के बोझ से
हमें यह भी याद नही रहा कि अंतर्रात्मा नर या मादा नही होती
हमें बताया गया कि बहुत जरुरी है राजपथों का सुरक्षित होना
गली मौहल्ले चौपालों के खतरों से ...
हमें समझाया गया कि राजा और प्रजा समानार्थी शब्द नही होते
आखिर में हमें सुनाये गये बेगमों और कनीजों के किस्से
हे सत्तासीन स्त्रियों
गलती तुम्हारी नहीं है
गलत थे हमारे आकलन
गलत थे हमारे उछाह...
असल में
आचार्यों द्वारा निर्मित शब्दकोशों के बाहर
सत्ता कभी स्त्रीलिंग नहीं होतीं !!

-वन्दना शर्मा

वन्दना शर्मा की अन्य कविताएँ

तुम्हारे प्रेम में हूँ...ये कुछ सबूत मुझको मिले हैं
धत्त्त ....
गर्म तवे पर जल की बूँद सी ये औरतें ....

और अब हम विरोध के लिए सन्नद्ध हैं
हे सत्तासीन स्त्रियों
मैं इसे यूँ सुनूँगी

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