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एक बार फिर
एक बार फिर..
मकान में तब्दील होता एक घर
खिलौने समेटे.. थोडा सा बचपन खेलता रहा आस पास..
बर्तनों को पैक किया.. ज़रा सी खनक छुप गयी रसोई की दराज में..
कपडे तह करती रही.. सलवटों भरे लम्हे पीछे छूटते गए..
खिडकियाँ.. परदे उतरते ही.. लावारिस सी लगने लगीं..
कौन रह गया.. अब भला किसकी पर्दादारी है?
बागीचे के पौधे
अभी नए हैं.. संभल जायेंगे..
यंत्रचलित बूँदें सींचती रहेंगी.. जी जायेंगे..
पर बाद कल के.. छूने सहलाने.. मुझे कहाँ पाएंगे..
पिछवाड़े का पुराना दरख्त..
उससे लटका झूला.. अपनी उदास पेंगों
में बधीं किलकारियां सहलाता रहा..
लौटते वक़्त मन.. ऊँगली की पोर के साथ..
दरवाज़े में आ गया था..
चोट चुभी या ये भावुकता.. नहीं पता
परदे.. कालीन.. तस्वीरें..
सब की सब.. बेजान चीज़ें..
इन से भरा मकान.. कब घर बन जाता है..
चुपके से आकर हर तस्वीर का हिस्सा बन जाता है
और नहीं रुक सकती.. अब जाना है...
अभी एक और मकान को घर बनाना है.

-अपर्णा अनेकवर्णा
7 दिसंबर 2014

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