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घर

घरों को छोड़ा नहीं जाता

या इसे ऐसे समझो वामा,

के ..

घर छूटते ही नहीं..

दीवारों की सफ़ेदी छूट जाती है

सीमेंट पर पड़ जाती हैं झुर्रीयां

इंट की जो उपर की पंक्ती है न

उनमें कुछ जगहें बन जाती हैं

जैसे आजी के दातों में बन गई थी..

अंतिम क्षणों में आजी

तुम्हारे कंगन से भरे हांथों

को देख कैसी शांत सी सो गई थी..

….

शाक़ में अक्सर दिखते हैं उसके

सुनहरे बाल,

अब झटकता नहीं हूं थालियां

वो आती भी नहीं

दालान की दीवार के किसी

बहोत पोशीदा से सुराख से

देख कर मुस्कुराती है...

घरों को छोड़ा नहीं जाता..

वे छूटते ही नहीं....

....

लाओ, वामा

मुझे मेरी ऐनक पकड़ाओ

पास बैठो ...

देखो डूबते हुए सूरज

की आहट पा कर

सभी पंछी अपने घरों की ओर चल पड़े हैं.......

 -गार्गी
जनवरी 2015

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