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दो मुक्तक

प्रतिकार नहीं तो
प्रतिक्रिया तो हो
जिजीविषा न हो तो
जीने की लालसा तो हो
उन्मादित जीवन से
आन्दोलित क्षणों का यदि
अनुभव नहीं तो
ज़िक्र तो हो !
हर पल मेरे वर्तमान से कुछ‚
टूटता जाता है
दूर अनन्त से कुछ आकर‚
नित नया जुड़ता है
लोग गिला करते हैं कि‚
ज़माना बदल जाता है
हम क्या कहें कि हमने …
खुद को बदलते देखा है
– रेखा मोदी‚ कलकत्ता

खारा पानी
सागर की लहरें
कितना चाहतीं हैं
बिखर जाएं
तोड़ दें किनारों को
ज़मीं को भिगो दें
आगोश में ले लें
समुचे जगत को
कि पानी ही पानी नजर आए
पर व्यर्थ जाता है
उसका युं तड़पना
बार बार उठना
और बिखरना
नहीं टूट पाती
ये रेत की दीवार
और सागर का पानी
खारा हो जाता है

– अखिलेश सिन्हा

गुजरात का अकाल
धूप तपती है
धरती की छाती दरकती है।
भूख से कलटते बच्चे
यहां अब सरेशाम सोते हैं।
और‚ हाथों पर हाथ धरे
किसान‚ अपनी किस्मत पर रोते हैं।
मुफ्त भोजन और सस्ती रोटी
की दुकानों के इर्द–गिर्द
'आदमियों'‚ 'कुत्तों' और 'कौऔं' की
भीड़ लगती है।
'आदमियों' का झुण्ड‚
स्तब्ध चुप है!
'कुत्ते' भौंकते हैं।
'कौओं' का दल‚
नाहक करता है कांव–कांव।
राजनीति लेती है करवट –
इस दांव से उस दांव।
और‚ देहाती सड़कों पर
'केअर'‚ 'युनिसैफ़' और 'रिलीफ़' की
दौड़ती–भागती गाड़ियों से
बचता–कतराता
'बूढ़ा अकाल'
घूमता है‚ इस गांव से उस गांवॐ
इलाकों में‚ जैसे आग लग गई हो।
गांव के गांव जलते हैं।
नेताओं‚ अफसरों और पत्रकारों के बीच‚
'डाकुमेन्टरी–फिल्म–युनिटों' के कैमरे
तेज़ी से चलते हैं!
खुशियां घर छोड़
कहीं दूर भाग गई हैं।
हर चेहरा उदास है।
अधनंगे नन्हें–मुन्नों का घर
आजकल‚
'फ्री–मिल्क–बूथ' के पास है।
लावारिस मवेशियों का दल‚
मुक्त बेचैन–
घूमता है‚ इस ठांव से उस ठांव!
और‚ ठहाके मारता‚
खांसता–खंखारता
'बूढ़ा अकाल'
घूमता है‚ इस गांव से उस गांव!

– डा . बजरंग वर्मा

आदमी – सुसभ्य नागरिक
कुत्ता – असभ्य अवाम
कौआ – राजनीतिज्ञ
आभार – हिन्दी जगत‚ न्यू योर्क
 

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