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एक गज़ल

इस ज़िन्दगी की हम परवाह क्यूं करें
मौत आने का इन्तज़ार क्यूं करें

बीत जायेगी यह रात भी लमहा लमहा
भोर के तारे की हम चाह क्यूं करें

आ रहे होंगे वो आहिस्ता आहिस्ता
हम उनके आने का इन्तज़ार क्यूं करें

वो गुनहगार हैं तो मुझे परवाह क्या
हम उनके गुनाहों का हिसाब क्यूं करें

जलते ही रहते हैं परवाने शमा पर
वो मेरे मरने पर फिर आह क्यूं भरें

– लक्ष्मीनारायण गुप्त

मइया मोहिं
डाऊ बहुत खिझायो

मइया मोहिं डाऊ बहुत खिझायो
भोरहिं ते कम्प्यूटर ऊपर याने मोहिं बिठायो
नीचे जावत तो दम निकसत उपर गयो मस्तायो
कौन स्टाक जाय गो नीचो ऊपर कौनहि जायो
मइया…।।
बिधनौ ना जानैं एहि कै गति पंडितन मोहिं भरमायो
डरत डरत मैं नैसडैक माँ पैसो कछुक लगायो
बेयर मार्केट आन खड़ी अब रातिन नींद न आयो
रक्तचाप बढ़ि रह्यो दिनैदिन माखन जात न खायो
मइया…।।
घाटे माँ स्टाकहिं बेच्यो साँझ भई घर आयो
स्टाकन का धन्धा छोड्यो सी डी कछु खुलवायो
बाकी पैसन से 'लक्ष्मीगुप्त' खातो बचत खुलायो
नींद हमैं फिरि आवन लागी बहुरि बहुरि जस गायो
मइया…।।

– लक्ष्मीनारायण गुप्त

नोट : इस कविता का किंचित भिन्न संस्करण न्यू जर्सी से प्रकाशित हिन्दी साहित्यिक पत्रिका 'विश्वा' के अप्रैल 2000 अंक में छप चुका है।

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