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अमलताश : 1

आज अपने उदास पलों में
अमलताश को चुपके से
एक कोने में
खिलते देखा
सोचती थी‚
मेरी वेदना का ये साथी
मेरे अलगाव–भरे दिनों में
भला क्यों खिलेगा?
मैंने क्यों ये विश्वास पाला
कि वो तब तक नहीं खिलेगा
जब तक कि मैं न खिल पड़ूं
पर आज‚
वह कोने में खिलता दिखाई दे गया
टप! से टपके कुछ पीले फूल
जैसे चोरी पकड़े जाने पर कांप उठा हो
हम टूटते‚ तन्हा दिनों के साथी जो है‚
पर‚
ठीक ही तो किया उसने खिलकर
और भी तो युवा प्रीत भरे दिल हैं
उन्हे देख बेचारा
खिल भी पड़ा तो क्या।

– मनीषा कुलश्रेष्ठ
 

अमलताश : 2

आज फिर खिला हूं
तमतमाते सूर्य की
तीखी दृष्टि को उपेक्षित कर
बिखेर दी है पतझड़ी हवा ने
सारी हरी पत्तियां
पर पीले फूलों को रोक रखा है
मेरी नम आतुर प्रतीक्षा ने
कि आज तुम लौटो
कॉलेज से घर को
और मैं तुम्हें
मेरी ओर देख मुस्कुराता पाऊं
जानता हूं‚
आज मुस्कुरा न सकोगी
किसी शहर को छोड़ना
इतना भी आसान नहीं
मैं तुम्हे क्या दूं आज?
ये गंधहीन पीले फूल?
आखिर हम‚
टूटते तन्हा दिनो के साथी रहे हैं
सच कहूं
तुम्हारा ये अमलताश
चुपके से हंस तो न सका
छुप कर रोया बहुत होगा
तुम्हारे अन्र्तद्वन्द ने
जब–जब विश्वास को छला होगा।

– मनीषा कुलश्रेष्ठ

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