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उस
रात : सृजन
हमने खगों की भाषा में बातें
की
हम बतियाते रहे तितलियों की भाषा में आपस में
हमने विविधवर्णी फूलों की गंध को बांटा रात भर
रात भर लेटे रहे हम झरनों के बिस्तरों पर
एक नदी बहती रही हमारे शरीरों पर
हमने वृक्षों की रात को ओढ़ा
और हमारे शरीर नृत्य करते रहे जंगल की चांदनी में
हमने एक दूसरे में आदम और हव्वा को टटोला
और पके सेबों को खाते रहे रात भर
यह दुनिया जहान और
उसके पवित्र नियमों की छाती पर मूंग दलती हुई
हमारे जिस्मों की रात थी
जहाँ पहली बार हमने अपनी आत्मा की आँखों में झांक कर देखा
यह एक उत्सव था दुनिया की आँखों से परे
जहाँ एक हो गये थे पुरुष और प्रकृति
उस रात मेरे अंदर के पुरुष ने अपने अंदर की प्रकृति को देखा
उस रात तुम्हारे अंदर की प्रकृति ने अपने अंदर के पुरुष को जाना
वह एक ऐसी रात थी‚
जहाँ पुरुष पुरुष नहीं था और न ही प्रकृति प्रकृति
उस रात हमारी देह के सपने साकार हुए
उस रात हमारी रूहों ने राहत की सांस ली
उस रात देह और रूहें लेटी रहीं आस पास
उस रात देह ने रूह को और रूह ने देह को टटोला सारी रात
वह रात कई जन्मों की एक रात थी
वह रात कई रातों की एक रात थी
उस रात बरसते रहे फूल रात भर आकाश से
उस रात लजाते रहे रातभर कामदेव
उस रात रति चूमती रही रात भर हमारे पांवों को
वह रात रति और कामदेव से मुक्ति की रात थी
उस रात हमने अपने आस पास एक जंगल का बिछौना खड़ा किया
उस रात हमने झरने बहाये एक दूसरे की ओर
उस रात लेटे रहे हम नदियों की तरह रात भर
उस रात मैं ने होंठों से कविता लिखी तुम्हारे समूचे जिस्म पर
उस रात उस सारी रात दहकते रहे पलाश के जंगल से होंठ
उस रात रात भर उड़ती रहीं तितलियां और तारे ज़मीन पर टपकते रहे
उस रात थिर रहा रात भर चाँद
वह रात एक जनम में कई जन्मों की रात थी
उस रात सुख–दुख पाप–पुण्य बह चुके थे
मिट गया था फर्क स्वर्ग–नरक का
वह रात हमारे सपनों के कई जन्मों के जुड़ने की रात थी
उस रात सारी रात में लिखता रहा एक कविता तुम्हारी पीठ पर
और लिखते लिखते जब थक गया तो ढांप लिया सिर कमर की गोद में
वह रात सभी छन्दों से मुक्ति की रात थी
उस रात मैं ने आकाश से तोड़े तारे और तुम्हारे बदन पर बिखरा दिये
उस रात चांद उतर आया और चुपचाप हमारे बीच और रेंगता रहा
रात भर धीरे धीरे हमारे बदन के आकाश पर
उस रात खिलखिलाती रहीं रात भर स्वर्ग कन्याएं
उस रात हम रचते रहे एक महाकाव्य रात भर
उस रात सारी रात में खेलता रहा शब्दों से
और थक गया तो रख दी कलम
वह रात एक कवि के कलम की मुक्ति की रात थी
उस रात साकार हुआ एक लेखक का स्वप्न
वह रात एक लेखक के कई जन्मों की रात थी
उस रात के बाद न कोई रात बची न सबेरा हुआ
न कोई दूसरा जन्म
वह रात जीवन और मरण से मुक्ति की रात थी
वह रात सभी कर्मों के तहस नहस हो जाने की रात थी
उस रात या तो बस पाप ही पाप था या पुण्य ही पुण्य
वह रात पाप और पुण्य दोनों के झंझटों से मुक्ति की रात थी
उस रात के बाद कहीं कोई सबेरा नहीं था
उस रात के बाद सबेरा ही सबेरा था
वह रात सबेरे की रात थी
उस रात की सुबह न पक्षी बोले न कलियां चटकीं न हवा चली
लेकिन एक सूरज निकला
उस रात की सुबह कभी न डूबने वाला सूरज निकला
उस रात हमने रात भर वेदों की रचना की
उस रात हम रात भर बुदबुदाते रहे ऋचाएं और मंत्र
वह रात जीवंत सृजन की रात थी
– संजय
कुमार गुप्त
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