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चितेरा
कागज बौना हो जाता है और
मेरे रंग कम पड़ जाते हैं
जब मैं आंकना चाहता हूँ इस
रेगिस्तान का चित्र ।
मेरी समझ छोटी पड़ जाती है
और नज़र धुँधली
जब मैं आकाश को देखता हूँ
पढ़ना चाहता हूँ दूर
नीले पट पर लिखे संवाद।
कई बार कोशिश की है मैंने
एैसा ही एक चित्र बनाने की
वैसी ही एक कविता घड़ने की
लेकिन
हर बार मेरी कल्पना
छोटी रह जाती है।
उस चितेरे
उस कवि के सम
मैं नत हूँ।

– निशांत कुमार झा

 

प्रकृति की विशालता और उसका खुलापन जो मैंने यहॉं देखा है उस में अथाह भयावहता और नैसर्गिक सादगी का नया मिश्रण पाया है। यही अनुभव इस कविता की प्रेरणा है ।

 

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