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निष्ठुर
तेरा प्यार न हो
मधुकर! चुम्बन दे कलिका को
निष्ठुर तेरा प्यार न हो
तू खोया किस गम में रोता?
यूँ पगले बेज़ार न हो
कल जिसको चूमा वह टूटी
वह कलिका मधुवन से छूटी
मिट्टी को अपनाया उसने
तेरी स्नेह–सुराही लूटी
कीमत क्या हो बोल प्रणय की
यदि ऐसा व्यापार न हो?
मधुकर! चुम्बन दे कलिका को
निष्ठुर तेरा प्यार न हो
तेरे मुख पर सजा रँगोली
खेल कनक–कण की मृदु होली
निशिगंधा ने स्वप्न जगाया
तूने मधु–कल्पना सँजो ली
यूँ छलना का छल न रहे तो
कहने को संसार न हो
मधुकर! चुम्बन दे कलिका को
निष्ठुर तेरा प्यार न हो
छवि का जग में खेल पुराना
पास बुलाना फिर ठुकराना
मानस की क्यारियॉं सजाकर
स्नेह–सुमन पर विष बरसाना
वह क्या दिल पर मरे कि जिसको
ज्वाला अंगीकार न हो!
मधुकर! चुम्बन दे कलिका को
निष्ठुर तेरा प्यार न हो
– सुनीतीचंद्र मिश्र
सूर्य कण
छींट मृत विश्वास के आधार पर
आज हर संशय जलाकर क्षार कर
ऑंख में भरके विभा पुलकित रहो
पे्रम का चिर पंथ जीर्णोद्धार कर
झोंक दो दुर्भाव के झंखार वन
सूर्यकण!
क्र्र्रांति की भठ्ठी सुलगने दो नई
जीर्ण जग में आग लगने दो नई
मुक्त होने दो खरे कंचन जरा
टेरकर चिनगार जगने दो नई
पूर्ण होने दो सरल नूतन सृजन
सूर्यकण!
कालिमा की पीठ पर ही तेज है
कल जलेगा आज जो निस्तेज है
इस अंधेरे में उठो स्वागत करो
ज्योति की सजती निशा में सेज है
कल खुलेंगे ये मुँदे उन्मन नयन
सूर्यकण!
फूटने दो वृंत पर नूतन कली
लो तुहिन लेकर उषा सिर पर चली
खोलकर उन्माद से मीठे अधर
भृंग की टोली स्वनन करती चली
हो सकेगा जड़ पुन: चैतन्य मन
सूर्यकण!
– सुनीतीचंद्र मिश्र
हंसी कुटिलता
तेरे नश्वर प्रेम की स्मृतियों के बीच
याद है … याद है …
तुम्हारे चेहरे पर
हँसी की एक लहर फैल गई थी
उसदिन … उसदिन …
जब मैं रो पड़ा था
छलने !
तुम्हारे गुलाबी चेहरे पर
हँसी बहुत अच्छी लगती है
तो क्या मतलब?
मेरी बेबसी पर हँस दो?
बहुत अमृत पिलाया
तो क्या मुनासिब है
चौराहे पर डँस दो?
– सुनीतीचंद्र मिश्र |
भावी
विप्लवकारी की मां
सितकेशी, सरि की पावन जलधारा–सी
हा! मोदमयी, वह स्नेहभरी कारा–सी
वह मन:पूत, वह धीरोदात्त पुजारी
कल के विप्लवकारी की मॉं वह नारी!
उसकी सूनी ऑंखों में तप पलता है
अथवा कोई निर्वाक दीप जलता है
यद्यपि उसका जीवन समग्र ही श्लथ है
विश्रांतिहीन पर उसका सारा पथ है
जाने उसकी गति में कैसी लाचारी?
कल के विप्लवकारी की मॉं वह नारी!
बॉंहों में नन्हे शिशु का भार उठाए
वह चली जा रही अविरत कदम बढ़ाए
झुकता–झँपता चैतन्य विकल होता है
उसकी बूढ़ी हड्डी पर वह रोता है
किसलिए सतत चलती है वह बेचारी?
कल के विप्लवकारी की मॉं वह नारी!
वह बनी भिक्षुणी ग्राम–ग्राम पलती है
पग–पग पर दुत्कारें, ठोकर सहती है
रोटी के जो टुकड़े फेंके जाते हैं
उससे पहले कौए उड़ ले जाते हैं
फिर भी न कहीं पर उसने हिम्मत हारी
कल के विप्लवकारी की मॉं वह नारी!
अपने दुर्दिन पर नहीं कभी रोती है
वह भावशून्य सबकुछ सहती होती है
तूफॉं में भी आशा–प्रदीप जलता है
अंधड़ में भी उसका पौरुष पलता है
करनी है उसको निर्मिति की तैयारी
कल के विप्लवकारी की मॉं वह नारी!
वह नहीं कभी कुछ भी लेने आई है
भावी के हित बस एक ज्योति लाई है
कल लाल क्रांति की समर–रेणुका होगी
वह उस आगत की पूर्वभूमिका होगी
कल के नभ की ज्वाला की वह चिनगारी
कल के विप्लवकारी की मॉं वह नारी!
कल जब उसकी गोदी का लाल बढ़ेगा
वह नहीं चैन से तुझे बैठने देगा
वह पूछेगा : ‘‘थी कौन व्यवस्था तेरी?
क्यों बनी रही यायावर माता मेरी?
क्यों रहे भाग्य मुझ मॉं–बेटे के खोटे?
तेरे घर के कुत्ते क्यों इतने मोटे?’’
फिर एक लपट उसकी ऑंखों से आकर
तेरी ख़ूनी दुनिया में आग लगाकर
कर देगी तेरी भष्म व्यवस्था सारी
कल के विप्लवकारी की मॉं वह नारी!
– सुनीतीचंद्र मिश्र
लेखनी!
तुम क्यों लिखती गान
लेखनी! तुम क्यों लिखती गान
क्या तुम जब गहरी डुबकी ले
भाव सिन्धु में जाओगी
अतल गर्भसे बद्धहस्त तुम
मुक्ता लेकर आओगी
याकि अकेले मंथन कर
लोगीविचार का सित सागर
सिर पर डाल लिए आओगी
संजीवनी भरा गागर
बार गोते लेने को
क्यों अकुलाते प्राण
लेखनी तुम क्यों लिखती गान ?
पंख खोलकर उड़ जाती हो
मुक्त अनादि दिगंचल में
कौन सुधा रस छलकाओ गी
इस मरघट के अंचल में
खोज रही किस देवदूत को
मृत्ति निमंत्रण देने को?
तम के सिर से उठ जाती हो
कौन ज्योति घट लेने को ?
सदा किसी आत्मेतर
चिन्तन में करती अवसान
लेखनी तुम क्यों लिखती गान
जीर्ण जगत के शुष्क हृदय पर
क्यों मंजीर बजाती हो ?
थकी हुई ऑंखों के पीछे
कल के स्वप्न सजाती हो ?
पग से अनुनादित करती हो
क्यों उल्लास भरा शिंजन ?
क्या इस लय की घूंट पिलाकर
जड़ को कर दोगी चेतन ?
जाग उठेंगे क्या तेरे
छंदों से ये पाषाण ?
लेखनी तुम क्यों लिखती गान ?
– सुनीतीचंद्र मिश्र |
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