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गायतोंडे के चित्रों का समकालीन पुरातत्व

किसी चित्र का अवलोकन करते हुए अमूमन हम उसके विषय से ही उसमें पैंठने का प्रयत्न करते हैं और अगर कोई चित्र किन्ही जानी पहचानी आकृतियों का संयोजन न हो तो ठिठक कर बड़ी आसानी से उसे 'अमूर्त' की श्रेणी में रख देते हैं ! हमें अमूर्त और अमूर्तन के अर्थों को समझना चाहिए ! अमूर्तन और अमूर्त में वही अंतर है जो रज़ा और गायतोंडे में है ! एक अच्छा अमूर्तन चित्र अगर विषय, विचार और चित्र-शास्त्र के परस्पर मिलान से बना व्यंजन है तो अमूर्त चित्र व्यंजना है ! हम अधिकान्शतः अपनी सुविधा के लिए जाने अनजाने में ही चित्र के समक्ष एक ऐसी निर्णयात्मक स्तिथि में पहुचना चाहते हैं, जहाँ हम यह मान लें की हमने चित्र के चरमोत्कर्ष को महसूस किया, और अब इस बोध के बाद उसपर पलटके देखने की कोई ज़रुरत नहीं हैं. इस तरह यहाँ इस बोध के साथ चित्र की मृत्यु से भी जुड़ा है. एक आलोचक अधिकांशतः चित्र को यूँ ही देखने की कोशिश करता है. वह दृश्य सुरागों के सहारे अदृश्य को खोजता हुआ, जो किसी रूप, रंग, आकर से कहीं अचानक प्रगट हो सकता है, जहाँ चित्र में हर चीज संकेत है, जो किसी ऐसी कहानी की और इशारा करती हो जो फिलहाल आँखों और स्मृति से ओझल हो. ओझल अतीत और ज्ञात को अनावृत्त करने में ही आलोचक का अहंकार होता है. लेकिन गायतोंडे के चित्रों के समक्ष ऐसा कुछ नहीं हो पाता. इस अर्थ से यहाँ साफ़ है, की, आलोचक के इस अहंकार अनावृत्तता के पीछे चित्र को मृत मान लिया गया है, जो की गायतोंडे के चित्रों या उनके अमूर्त वर्तिता के सामने निरर्थक हो जाती है.
इस लेख का उद्देश्य गायतोंडे के चित्रों के सहारे अपने उन खंडित विचारों की परिक्रमा व प्रतिक्रमण करना है जो मुझे उनके चित्रों में भी एक खंडित बिम्ब-लोक का अहसास कराते है. इस परिक्रमा के दौरान मैं कई बार मूल विचार से भटकता हूँ किन्तु गायतोंडे के चित्र हमें विचरने की वह पगडण्डी देते हैं जहाँ मैं इन दोनों खंडित घटकों के सहारे एक अखंड युग्म को स्थापित करने का प्रयास करता हूँ और जिसके विन्यास से धीरे-धीरे हम उनके चित्रों की इन पगडंडियों के सहारे कला के पूर्ण-लोक में प्रविष्ट हो सकते हैं. कहने की कोशिश सिर्फ यही है कि उनके चित्र हमें 'विशेष' के ओर ले जाते हैं न कि उस 'विषय' की ओर जो कला के मर्म में गैरज़रूरी तर्क ही है. जहाँ चित्र उस लोक का दरवाज़ा बनते हैं जिसके समक्ष हम अवाक् और रिक्त होते हैं. वह रिक्तता जो चित्र से विषय-भ्रम के झरते ही प्रगट होती है -- अमूर्त है. वह 'पूर्ण-लोक' जहाँ स्वयं को अदृश्य कर एक मान्यता के रूप में खुद को ही निरूपित करने का सम्मोहन नहीं होता, जहाँ प्रतिक्रमण अपनी खंडित थाप को पहचानने और फिर उसे समर्पित करने की क्रिया हो जाती है. एक चित्रकार कैनवस के सफ़ेद 'रण' पर चलता है, वह रण जो दृश्य और दिग्भ्रम के बीच फैला रेगिस्तान है. उसकी इस यात्रा में लालित्य का विधान भी है और मर्यादा की उत्पत्ति भी. वह दृश्य-मिथ्या की आजमाईश पर अपने रंगों और आकारों की आंतरिकता खोजता है जहाँ से लालित्य जन्मता है और जिसकी शुचिता को बचाने की लिए वह उस दिग्भ्रम से भी जूझता है जिससे मर्यादा की उत्पत्ति होती है. लालित्य और मर्यादा की इस समकालीनता से एक अमूर्त चित्र प्रगट होता है, जिनकी संधि पर उस कला के पूर्ण-लोक का धर्म केन्द्रित है. लालित्य और मर्यादा की इस संधि-निधि के पहले कोई भी रचना पूर्ण रूप से उपज नहीं है बल्कि पूर्ण लोक के इस दरवाजे पर दस्तक की प्रक्रिया में ही वह 'शुद्ध' उपजता है जिसे हम रूप कहते हैं -- शुद्ध -- रंग, रेखा, आकारों के विलास को वैविध्य, गति, प्राण और प्रवाह देता हुआ. चित्रकार और दर्शक दोनों ही दरवाजे के इस ओर अपने अतीत और अपनी विस्मृतियों के संकेत-सूत्रों के साथ हैं -- और ज्यूँ ही कोई तर्क, और उस तर्क को ढहानेवाली अप्रतिम चुनौती सामने आती है तब दरवाज़ा खुल जाता है और तब हम अपनी अनुभूतियों संग इस देहरी को लांघकर उस पूर्ण लोक में दाखिल हो जाते हैं जिसे हम रचना-लोक कहते हैं.
उनके रचनालोक में आगम महत्वपूर्ण है जिनसे वे रूपाकार बनते हैं. ज़रूरी नहीं की कोई अनूभुती या दक्षता प्रज्ञा की इस परिधि में आकर चित्र का एक घटक हो जाए किन्तु चित्र की शुरुआत या उसे शुरू करने की जिज्ञासा इसी आमंत्रण से शुरू होती है जहां एक कलाकार उन रूपाकारों की खोज करता है, जो अदृश्य, ओझल होने के बावजूद हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं. वे अपने चित्रों में सिर्फ उस 'प्रतीक्षारत' का इंतज़ार करते हैं. वे आहवान करते थे, शुद्ध रूप का.
उनके चित्रों का बिम्बलोक और रंगालोक इसी परिधि के भीतर पनपे बाहरी यथार्थ के त्याज्य अंश हैं, जैसे एक पेड़ से गिरा रंग या वर्षों से अदृश्य कोई आकार - असंदिग्ध, अगोचर और अपरिभाष्य. यह परिधि उन्हें गति, प्रवाह और आकारों का वैविध्य देती उसे अपनी वैयक्तिक वेदना से दूर एक ऐसी समवेत अनुभूति का और ले जाती है जहाँ वह यथार्थ तर्कहीन, आकारहीन नहीं रहता बल्कि वो एक आतंरिक संघर्ष के रूपक में बदल जाता है -- अपने व्यक्तिगत को एक ऐसी समवेत अनुभूति में बदलने का संघर्ष -- जो स्वभावतः अमूर्त है.
अक्सर दर्शक कलाकार से आशा करते हैं की वह उन्हें अपने कथन से उस निजी व स्वाभाविक अनुभवों से साथ जोड़ेगा जिस से वह चित्र बनता है. कलाकार तो अपनी आलब्धि में नितांत अकेला ही है लेकिन अपनी स्मृति में नहीं, वह तो अपनी इस परिचितता से कृति-प्रक्रिया में शिरकत करती ही है और जिस से एक कलाकार दूसरों से भी जुड़ता है. व्यक्तिगत आलब्धि से समवेत स्मृति की ओर यह यात्रा व उसका गंतव्य ही रचना-लोक को प्रदीप्त करते है जिसके आलोकन में कलाकार की किवदंती भी बनती है. रचना-लोक, जिस के मंडल में संयम से कलाकार अपने सामाजिक यथार्थ का सामना करता है अन्यथा जिसके उल्लंघन से और जिसकी सीमा पार करते ही चित्र का चैतन्य, रूप की रौनक व बिम्बों की बहुलता विक्षिप्त हो जायेगी ! रचना-लोक का यही मंडल अज्ञेयता और विलोभन के तनावों से भरी नींव पर चित्र को 'प्रगटन' के साथ एक ऐसे "प्रस्थ-प्राण" से स्थापित करता है जो अपने अगम संयम से हमें हमारी समय-चेतना दूर एक शांत बिम्ब पर ले जाता है तो वही दूसरी तरफ अपने प्रवाह संचरण से हमारा निजी नीरस मद और अक्रियता के तिमिर को तोड़ हमें एक ऐसी अपरिग्रहता से जोड़ता है जहाँ से हमें उस चित्र का चैतन्य, रूप की रौनक व बिम्बों की बहुलता को एक साथ देख सकने का सामर्थ्य मिलता है.
स्मृति में विगत को जागृत करना एक प्रकार से अपने भीतर उस खोये हुए समय के प्रतीक को पुनः प्राप्त करना हो सकता है जो एक चित्र से संभव है, संभवतः, इसीलिए हमारे आलोचक उन पर कुछ विशेष लिख नहीं पाए हैं, gaitonde के चित्रों से कला के पुरातत्व को अपने भीतर के उन वलयों में अनुभव करना है जो बहार की दुनिया में बीत रहा है.
 

मनीष पुष्कले
10 दिसंबर 2014


 

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