मुखपृष्ठ  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | फीचर | बच्चों की दुनिया भक्ति-काल धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | डायरी | साक्षात्कार | सृजन स्वास्थ्य | साहित्य कोष |

 Home |  Boloji | Kabir | Writers | Contribute | Search | FeedbackContact | Share this Page!

You can search the entire site of HindiNest.com and also pages from the Web

Google
 

 

ज़रा सोचें

पिछले दिनों एक संगीत कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला. कलाकार बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय थे अत: बावज़ूद इस बात के कि टिकिट बहुत महंगे थे, श्रोताओं की भारी भीड़ थी. इस कार्यक्रम में कुछेक बातों से मैं बहुत व्यथित हुआ. हालांकि प्रवेश कार्ड में यह लिख दिया गया था कि श्रोता सात बजे तक अपना स्थान ग्रहण कर लें, श्रोताओं का आगमन रात दस बजे कार्यक्रम के समाप्त होने तक चलता रहा. यहां मेरी शिकायत समय की पाबन्दी को लेकर नहीं है. मेरी शिकायत की वजह यह है कि इन श्रोताओं के आवागमन के कारण शेष लोग संगीत का वैसा आनन्द नहीं ले पाये, जैसा वे ले सकते थे, अगर ये लोग इस तरह से नहीं आते जाते. इस तरह को भी ज़रा खोल दूं. बा आवाज़े बुलन्द अपने साथियों से बातचीत करते हुए, या अपने मोबाइल का पूरा-पूरा उपयोग करते हुए. अब यह मोबाइल तो एक ऐसे महारोग का रूप लेता जा रहा है कि कुछ पूछिये ही मत. भले ही आयोजक यह अनुरोध कई-कई बार दुहरा दें कि कृपया मोबाइल बन्द रखें, हमारे माननीय अतिथिगण भला इस अनुरोध को क्यों मानने लगे? किसी भी गम्भीर गोष्ठी या महफिल के बीच मोबाइल की घण्टी बज उठना अपवाद नहीं नियम ही बन चला है. न केवल घण्टी का बज उठना बल्कि मोबाइल धारक का वहीं सम्वाद में रत हो जाना भी, भले ही इससे आस-पास वालों को कितनी ही कोफ्त या असुविधा क्यों न हो.

कुछ समय पहले पण्डित रविशंकर के एक कार्यक्रम में ऐसा ही कुछ देखने को मिला. पण्डितजी के महत्व और उनके कार्यक्रम की प्रकृति को देखते हुए न केवल आयोजकों ने मोबाइल न लाने या बन्द रखने का अनुरोध कई-कई बार कर दिया था, आयोजन स्थल पर भी कम से कम पांच जगहों पर मोबाइल बन्द रखने की हिदायत दे दी गई थी. इसके बावज़ूद भी कार्यक्रम के बीच अनेक श्रोताओं के मोबाइल घनघना कर रस भंग करते ही रहे.

माना कि ये सब लोग बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, और उनके लिये ज़रूरी होता है कि वे जहां कहीं भी हों, उनसे सम्पर्क साधा जा सके, इसलिये अपना मोबाइल छोड़ कर तो वे नहीं आ सकते. पर ज़्यादातर मोबाइल यंत्रों में यह सुविधा भी तो होती है कि उसकी घण्टी न बजे, वह केवल थरथरा कर आपको यह सूचना दे दे कि कोई कॉल है!  और अगर उस कॉल को सुनना आवश्यक ही हो तो सभागार से बाहर जाकर भी यह काम किया जा सकता है. लेकिन ऐसा तो कोई तब करे जब उसमें नियम-कानून-कायदे-व्यवस्था के प्रति सम्मान का ज़रा भी भाव हो. इस लेख का प्रारम्भ मैंने जिस संगीत आयोजन के ज़िक्र से किया, उसीमें एक बात और देखने को मिली. इस कार्यक्रम में तीन तरह के टिकिट थे. 750/-, 1000/- और 1500/- के.  स्वभावत: सबसे अधिक मूल्य चुकाने वाले लोग मंच के सबसे निकट और सबसे कम मूल्य चुकाने वाले मंच से सबसे दूर बैठें, ऐसी व्यवस्था थी. मैं लगातार देखता रहा कि जिसके पास 750/- का टिकिट है वह व्यवस्थाकर्मी की आंख बचाकर 1000/- वाले बाड़े में घुस जाता. व्यवस्थाकर्मी भी कम चौकन्ने नहीं थे. वे तुरंत जाकर उचित बाड़े में जाने का आग्रह करते. पर ये लोग भला इतने से मानने वाले कहां? किसी को वहां अपनों से बात करनी थी, किसी का अपना वहां बैठा था, उसके साथ संगीत का आनन्द लेना चाहते थे, और अगर कुछ नहीं तो यही कि वहां बैठें या यहां क्या फर्क़ पड़ता है? ज़ाहिर है इससे अन्य श्रोताओ के संगीत रसास्वादन में खासा व्यवधान उत्पन्न होता था. पर उन्हें इससे क्या मतलब? वे तो शुद्ध 250/- की बचत करने का सुख लूटना चाहते थे. मुझे नहीं लगता कि इस मानसिक-काल्पनिक सुख के अलावा कोई और आकर्षण रहा होगा? आप मंच से 100 गज की दूरी से कार्यक्रम देखें, सुनें या 110 गज की दूरी से, क्या अंतर पड़ता है?  ध्वनि व्यवस्था तो उम्दा थी ही, बड़े पर्दे पर कलाकार का क्लोज़ अप भी लगातार दिखाया जा रहा था, और दरियां गद्दे सब जगह  एक से ही थे. लेकिन अगर इनमें से कुछ बातों मे फर्क़ होता भी तो ? आखिर आपने खुद ही तो चुना है कि आप कौन सी श्रेणी में बैठेंगे? क्यों यह हसरत कि दूसरे दर्ज़े का टिकिट लेकर पहले दर्ज़े में सफर करें?

उधर सभागार के बाहर भी कुछ ऐसा ही नज़ारा था. एक बडी भीड़, जैसे-तैसे बिना टिकिट भीतर घुसने की जुगाड़ में जद्दोजहद कर रही थी. सुरक्षा प्रबंध बहुत अच्छे थे. इन लोगों को सफल नहीं होने दे रहे थे. पर अगले ही दिन एक अखबार ने इन सुरक्षा प्रबंधों पर ही उंगली उठा दी - यह कहते हुए कि इससे संगीत रसिकों को बहुत असुविधा हुई. जैसे व्यवस्था बनाये रखना भी कोई अपराध हो.  जिस तरह की भीड़ थी उसे देखते हुए यह अन्दाज़ आसानी से लगाया जा सकता है कि अगर वैसे सुरक्षा प्रबंध न होते तो कोई बड़ा हादसा तक हो सकता था.

आखिर क्यों हम किसी व्यवस्था का आदर नहीं करते? क्यों व्यवस्था को बनाने में नहीं, बिगाड़ने में ही हमारी सारी दिलचस्पी होती है? क्यों हम दूसरों की सुविधा-असुविधा का ज़रा भी खयाल नहीं रखना चाहते? क्या हममें ज़रा भी नागरिक बोध नहीं है?

आप ज़रा किसी कतार में खड़े होकर देखेंजैसे रेल्वे स्टेशन पर टिकिट खरीदने के लिये. आप जाते हैं और कतार के अंत में लग जाते हैं. आखिर आप एक ज़िम्मेदार नागरिक जो ठहरे. कतार धीरे-धीरे आगे सरकती है. तभी कोई महापुरुष आते हैं और सीधे खिड़की पर ही पहुंचते हैं. कतार मानों उन्हें दिखाई ही नहीं देती. आप उन्हें टोकते हैं तो वे खा जाने वाली निगाहों से आपको घूरते हैं, जैसे आपने कोई बहुत ही अवांछनीय हरकत कर डाली हो. अपने कृत्य पर वे क़तई शर्मिन्दा नहीं होते. अलबत्ता आप पर नाराज़ भरपूर होते हैं. रही सही कसर आपकी कतार का कोई बन्दा भी पूरी कर देता है, यह कह कर कि क्या हो गया? अब आपको लगता है कि आप ही बेवक़ूफ थे जो कतार में लगे!

कभी किसी बस में सफर करते हुए अगर ऐसे कंडक्टर से आपका सामना हुआ हो जिसने पैसे ले लिये हों लेकिन टिकिट नहीं काटा हो, और आपने अगर उससे आग्रह कर के टिकिट मांग लिया हो, तो यह पक्की बात है कि आपकी बस में आपका साथ देने वाला कोई मिला हो या न मिला हो, कंडक्टर का साथ देने वाले अनेक मिले होंगे. यानि सही बात का कोई समर्थन तक नहीं करता.

आखिर यह सब क्यों होता है? क्या हम शिष्ट नहीं हैं? क्या हममें ज़िम्मेदारी का कोई भाव नहीं है? क्या हम केवल अपने ही बारे में सोचते हैं? क्या यह ज़रूरी है कि बहुत सारी ऊर्जा हमसे सही काम करवाने में और हमें गलत काम करने से रोकने में ही नष्ट की जाती रहे? अगर कोई देख या रोक न रहा हो तो हम कुछ भी सही और उचित नहीं करेंगे? अगर यही सब चलता रहा तो एक देश के रूप में हम कितने विकसित हो पाएंगे? और देश की छोड़िये, एक इंसान के रूप में ही हमारा जीवन कितना सुगम होगा?

अगर सोचें तो शायद कुछ बदलें भी !

   -डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

top

मुखपृष्ठ  |  कहानी कविता | कार्टून कार्यशाला कैशोर्य चित्र-लेख |  दृष्टिकोण नृत्य निबन्ध देस-परदेस परिवार | बच्चों की दुनियाभक्ति-काल डायरी | धर्म रसोई लेखक व्यक्तित्व व्यंग्य विविधा |  संस्मरण | साक्षात्कार | सृजन साहित्य कोष |
 

(c) HindiNest.com 1999-2021 All Rights Reserved.
Privacy Policy | Disclaimer
Contact : hindinest@gmail.com