दहेज के खिलाफ जरूरी है जंग
भारत की आधी आबादी के सशक्तितकरण और मुक्ति की परिभाषा गढ़ने में कोई कसर बाकी नहीं रही है। पुरूष प्रधान समाज के आँकड़ें और विसंगतियों के साथ बौद्धिक कवायदों का सिलसिला लाचारगी से लेकर प्रतिरोध के स्वरों तक बढ़ते-घटते रहा है परंतु सरजमीन पर आज भी औरतों के हक में बने सरकारी कानूनों को न तो सही तरीके से अमल में लाया गया है और न ही उन पर सामाजिक स्वीकृति की मुहर लगी है। बिहार के 'सुशासन` में महिलाओं को पंचायत चुनावों में पचास फीसदी आरक्षण देकर उन्हें सबल बनाने की दिशा में नीतीश कुमार की सरकार ने अच्छी पहल की है लेकिन यदि महिलाओं से संबंधित दहेज निषेध अधिनियम, बाल विवाह अधिनियम, मादा भ्रूण हत्या से संबंधित कानूनों को तत्परता से लागू नहीं किया गया तो आने वाले समय में बिहाार में भी पंजाब राज्य की तरह हर उस गाँव को पुरस्कार दिया जाएगा जहाँ प्रत्येक एक हजार की आबादी पर नौ सौ पचास लड़कियाँ होंगी।
भारत की जनगणना, २००१ के आँकड़ों के मुताबिक बिहार में प्रत्येक एक हजार पुरूष जनसंख्या पर नौ सौ इक्कीस महिलाएँ हैं। निम्नमध्यमवर्गीय मानसिकता वाले बिहार में विकराल दहेज समस्या के कारण आज लड़कियों का जन्म लेने का मतलब है जीवन की कमाई के एक बड़े हिस्से का जाना। हाल में ही एक महिला आई पी एस अधिकारी ने टिप्पणी की है कि ''बिहार में गाय को लोग संपत्ति मानते हैं क्योंकि वह दूध देगी, बछिया या बछड़ा जनेगी लेकिन जब एक कन्या पैदा होती है तो मातम पिट जाता है क्योंकि वह तो जाएगी पर साथ में ले जाएगी पूरे जीवन की कमाई का एक बड़ा हिस्सा। यही कारण है कि यहाँ दहेज उत्पीड़न, मादा भ्रूण हत्या, बाल विवाह जैसी कुरीतियों में समाज जकड़ा है।`` यूँ तो तकरीबन सैंतीस कानूनी प्रावधान प्रभावी हैं पर इन्हें लागू करने की न तो सरकार के पास इच्छाशक्ति है और न ही कोई सामाजिक-सांस्कृतिक पहल ही हो सकी है।
एक तरफ यह देखा जा रहा है कि आज लडकियाँ काफी तेजी के साथ विकास की ओर अग्रसर हैं और उनकी उपलब्धियों से समाज भी आशान्वित लगता है; पंचायत चुनावों के नामांकन को जुटती महिलाओं के चेहरे इस बात के गवाह हैं किंतु दहेज जैसी सामाजिक कुरीतियों के कारण लगातार घटता महिलाओं का प्रतिशत आने वाले समाज के लैंगिक असंतुलन की गवाही भी दे रहा है। वसंत ऋतु से ही बिहार में शादियों का मौसम शुरू हो जाता है। लड़की चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी समझदार क्यों न हो उसके पिता को अपनी अंटी में मोटी रकम रखकर ही अपनी औकात के मुताबिक दामाद ढूँढना होगा। इसके लिए बाकायदा रेट तय है; सिपाही/फौजी दूल्हे के लिए तीन लाख, स्कूल टीचर-क्लर्क के पाँच लाख, पी० ओ०, इंजीनियर, डाक्टर के पंद्रह लाख और यदि लड़का आई ए एस/आई पी एस जैसी सेवा में हो तो लड़की के बाप का करोड़पति होना जरूरी है। बिहार के लिए यह कोई चोरी-छिपी बात नहीं है; ऐसा नहीं है कि सरकार इसे नहीं जानती पर सवाल ये है कि आखिर सामाजिक सुधारों में हाथ डालकर अपने हाथ जलाना कोई नहीं चाहता।
सरकार यह मानती है कि दहेज प्रथा हमारे समाज की सबसे बुरी कुरीतियों मे से एक है जिसका निराकरण भी समाज के हित में जरूरी है। इसके लिए भारतीय दंड विधान संहिता के प्रावधानों के अलावे विशेष रूप से दहेज निषेध अधिनियम, १९६१ लागू है जिसके अन्तर्गत प्रबंध निदेशक, राज्य महिला विकास निगम को राज्य दहेज निषेध पदाधिकारी एवं जिला कल्याण पदाधिकारी को जिला दहेज निषेध पदाधिकारी घोषित किया गया है। हर माह में हरेक जिले के डी एम एवं एस पी को एक दिन दहेज विरोधी दरबार लगाने के साथ-साथ क्षेत्रान्तर्गत आयोजित विवाह समारोहों की सूचना संधारित की जानी है एवं दहेज निषेध अधिनियम के उल्लंघन की स्थिति में निकटतम थाने में प्राथमिकी दर्ज किया जाना है। ग्रामीण क्षेत्रों मे पंचायत स्तर पर एवं शहरी क्षेत्रों में वार्ड स्तर पर आयोजित विवाह समारोहों के रिकार्ड रखने के लिए बाजाब्ता प्रपत्र परिचालित हैं जिनमें वर-वधू को प्राप्त उपहारों की सूची बनाकर वर-वधू एवं गवाहों का हस्ताक्षर लिया जाना है। सरकार ने दहेज-निषेध पदाधिकारी को यह भी निर्देश दे रखा है कि दहेज-निषेध के कतिपए प्रावधानों के उल्लंघन की स्थिति की बाद में सूचना मिलने पर भी थाने में एक आई आर दर्ज करें। भारतीय दंड संहिता की धारा- ३०४ बी, ४९८ ए एवं दहेज निषेध अधिनियम की धारा- ३,४ एवं ६ (२) के अन्तर्गत थाने में दायर इन मुकदमों की पैरवी भी सरकारी स्तर से थाने से लेकर राज्य सरकार के स्तर तक समाज कल्याण विभाग को ही करना है।
बिहार सरकार ने तो बिहार राज्य दहेज निषेध नियमावली- १९९८ में ही संबंधित दहेज निषेध पदाधिकारियो को दहेज प्रथा के विरूद्ध जन चेतना जागृत करने के लिए सभी उपलब्ध संचार माध्यमों के व्यापक उपयोग करने के साथ-साथ कम-से-कम महीने में एक बार महिलाओं के कल्याण हेतु गठित जिलास्तरीय सलाहकार समिति की बैठक आयोजित कर समीक्षा करने की जिम्मेवारी सौंपी है कि अधिनियम के प्रावधानों का सही ढंग से अनुपालन हो रहा है अथवा नहीं। इस सलाहकार समिति में महिलाओं के कल्याण, अथवा स्वरोजगार के चल रहे सरकारी कार्यक्रमों के कार्यान्वयन की स्थिति, महिलाओं के विकास की योजनाओं, कार्यस्थलों पर महिलाओं के उत्पीड़न की शिकायतों, दहेज अधिनियम का उल्लंघन जैसे मामलों पर चर्चा होनी है। पर वस्तुस्थिति यह है कि शायद ही बिहार के किसी जिले में इन सलाहकार समितियों का गठन हुआ है। मासिक दहेज दरबार की खबरें भी पिछले कई सालों में अखबारों में नहीं आई हैं।
समाजशास्त्री भी मानते हैं कि भारत में बाल-विवाह एवं स्त्री भ्रूण हत्या के पीछे मूल रूप से दहेज की कुप्रथा है। गौरतलब है कि भारत में ८.९ प्रतिशत लड़कियाँ १३ वर्ष की उम्र से पहले ब्याह दी जाती हैं जबकि अन्य २३.५ प्रतिशत लड़कियों की शादी १५ वर्ष की आयु तक हो जाती है। जाहिर है लड़की जितनी पढ़ेगी-बढ़ेगी उतना ही उपयुक्त वर तलाशना होगा और उसके रेट के मुताबिक दहेज जुटा पाना सबके बूते की बात नहीं है इसलिए कम उम्र की कम पढ़ी-लिखी लड़की ब्याह कर कन्यादान का पुण्य प्राप्त करना अधिकांश लोग बढ़िया मान लेते हैं। दहेज के दानव के भय से ही पूरे देश में गैरकानूनी अल्ट्रासाउंंड क्लीनिकों में हर रोज लाखों लड़कियाँ माँ की कोख में ही मार दी जा रही है। लड़कियों के पोषण से संबंधित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रत्येक पैदा हुई १००० लड़कियों में से ७६६ लड़कियाँ ही समाज में जीवित रहती हैं। लड़कियों की उपेक्षा का आलम ये है कि संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों ने भी यह समझना नहीं चाहा है कि परिवार में बेटियों का जन्म नहीं होगा तो इसी परिवार में बहुएँ कहाँ से आएँगी।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा में भी कहा गया है कि बालिग पुरूषों और महिलाओं को जाति, राष्ट्रीयता अथवा धर्म के किसी बंधन के बिना विवाह करने और घर बसाने का अधिकार है। उन्हें विवाह करने, विवाह के दौरान और विवाह विच्छेद के मामले में समान अधिकार है। इसी क्रम में यह भी कहा गया है कि विवाह के इच्छुक पति-पत्नी की स्वतंत्र और पूर्ण सहमति से ही विवाह होंगें। इस तरह से दहेज के कारण हुए बेमेल विवाहों, दहेज के नाम पर नित हो रहे शोषण, दहेज उत्पीड़न एवं लड़कियों के जन्म, शिक्षा एवं पोषण में हो रहे सामाजिक पारिवारिक भेदभाव को भी मानवाधिकारों के उल्लंघन के दायरे में रखा जा सकता है। केन्द्र सरकार सहित कई राज्यों में सरकारी नौकरी ज्वाईन करने वालों को अपने विभाग के प्रमुख को लिखित रूप में यह घोषित करना होता है कि उन्होंने कोई दहेज नहीं लिया है। बिहार में भी दहेज प्रथा के विरूद्ध कई कानून/नियम लागू हैं पर इनके लागू रहने की स्थिति बेहद ही चिंताजनक है जिसका नतीजा है कि बेटी की शादी में शहनाई बजवाने से पहले ही न जाने कितने लोगों की अर्थी उठने की नौबत आ जाती है। यह शोध का विषय हो सकता है कि बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश में दहेज के व्यापार में कितनी बड़ी राशि का लेन-देन हरेक साल होता है? सर्वेक्षण के उपरांत यह चौकाने वाला तथ्य सामने आ सकता है कि दहेज उद्योग में लगी राशि का शिक्षा स्वरोजगार जैसे सार्थक कार्यों में हो तो सूबे की तस्वीर बदल सकती है।

राणा गौरी शंकर
अप्रेल 1, 2006
 

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