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बोल री कठपुतली डोरी कौन संग बांधी

तीसरी में पढ़ने वाली इशाका गोरे का परिवार महाराष्ट्र के सागली जिले से है. जो गन्नों के खेतों में कटाई के लिए 6 महीनों के लिए बाहर जाता है. इशाका का सपना चौथी में आने का है लेकिन उसके पिता याविक गोरे अगले चार सालों में ही उसकी शादी करना चाहते हैं. मराठवाड़ा के ऐसे कई परिवार अपने बच्चों की शादियां कम उम्र में करते हैं. यहां जोड़ा (पति-पत्नी) बनाकर काम करने का चलन है. इन्हें लगता है कि परिवार में जितने अधिक जोड़ा रहेंगे, आमदनी उतनी ही रहेगी. इस तरह बाल-विवाह की प्रथा यहां नए रुप में उजागर होती है. फिलहाल इशाका गोरे का सपना काम और किताबों के बीच उलझा है.  

सरकार ने लड़कियों के हकों की खातिर 'सशक्तिकरण के लिए शिक्षा' का नारा दिया है. लेकिन नारा जितना आसान है, लक्ष्य उतना ही मुश्किल हो रहा है. क्योंकि देश में इशाका जैसी 50 फीसदी लड़कियां स्कूल नहीं जाती. यह 8 मार्च (अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस) के अर्थ से अनजान हैं.   

आखिरी जनगणना के अनुसार भारत की 49.46 करोड़ महिलाओं में से सिर्फ 53.67 फीसदी साक्षर हैं. मतलब 22.91 करोड़ महिलाएं निरक्षर हैं. एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है. 'चाईल्ड राईटस एण्ड यू' के मुताबिक भारत में 5 से 9 साल की 53 फीसदी लड़कियां पढ़ना नहीं जानती. इनमें से ज्यादातर रोटी के चक्कर में घर या बाहर काम करती हैं. यहां वह यौन-उत्पीड़न या दुर्व्यवहार की शिकार बनती हैं. 4 से 8 साल के बीच 19 फीसदी लड़कियों के साथ बुरा व्यवहार होता है. इसी तरह 8 से 12 साल की 28 फीसदी और 12 से 16 साल की 35 फीसदी लड़कियों के साथ भी ऐसा ही होता हैं. 'राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो' से मालूम हुआ कि बलात्कार, दहेज प्रथा और महिला शोषण से जुड़े मुकदमों की तादाद देश में सलाना 1 लाख से ऊपर है. 

देश में महिलाओं की कमजोर उपस्थिति मौजूदा संकटों में से एक बड़ा संकट है. समय के साथ महिलाओं की संख्या और उनकी स्थितियां बिगड़ती जा रही हैं. जहां 1960 में 1000 पुरूषों पर 976 महिलाएं थीं वहीं आखिरी जनगणना के मुताबिक यह अनुपात 1000:927 ही रह गया. यह उनके स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में गिरावट का अनुपात भी है. कुल मिलाकर सामाजिक और आर्थिक संतुलन गड़बड़ा चुका है. 

सरकार ने लड़कियों की शिक्षा के लिए तमाम योजनाएं बनायी है. जैसे- घरों के पास स्कूल खोलना, स्कॉलरशिप देना, मिड-डे-मिल चलाना और समाज में जागरूकता बढ़ाना. इसके अलावा ग्रामीण और गरीब लड़कियों के लिए कई ब्रिज कोर्स चलाए गए हैं. बीते 3 सालों में प्राथमिक स्तर पर 2000 से अधिक आवासीय स्कूल मंजूर हुए हैं. 'राष्ट्रीय बालिका शिक्षा कार्यक्रम' के तहत 31 हजार आदर्श स्कूल खुले जिसमें 2 लाख शिक्षकों को लैंगिक संवेदनशीलता में ट्रेनिंग दी गई. इन सबका मकसद शिक्षा व्यवस्था को लड़कियों के अनुकूल बनाना है. 

ऐसी महात्वाकांक्षी योजनाएं सरकारी स्कूलों के भरोसे हैं. लड़कियों की बड़ी संख्या इन्हीं स्कूलों में हैं. इसलिए स्कूली व्यवस्था में सुधार से लड़कियों की स्थितियां बदल सकती हैं. लेकिन समाज का पितृसत्तात्मक रवैया यहां भी रूकावट खड़ी करता है. एक तो क्लासरुम में लड़कियों की संख्या कम रहती है और दूसरा उनके महत्व को भी कम करके आंका जाता है. हर जगह भेदभाव की यही दीवार होती है. चाहे पढ़ाई-लिखाई हो या खेल-कूद, लायब्रेरी हो लेबोरेट्री या अन्य सुविधाओं का मामला. दीवार के इस तरफ खड़ी भारतीय लड़कियां अपनी अलग पहचान के लिए जूझती है. हमारा समाज भी उन्हें बेटी, बहन, पत्नी, अम्मा या अम्मी के दायरों से बाहर निकलकर नहीं देखना चाहता. दरअसल इस गैरबराबरी को लड़कियों की कमी नहीं बल्कि उनके खिलाफ मौजूद हालातों के तौर पर देखना चाहिए. 'अगर लड़की है तो उसे ऐसा ही होना चाहिए' ऐसी सोच उसके बदलाव में बाधाएं बनती हैं.  

एक तरफ स्कूल को सशक्तिकरण का माध्यम माना जा रहा है और दूसरी तरफ ज्यादातर स्कूल औरतों के हकों से बेपरवाह हैं. पाठयपुस्तकों में ही लिंग के आधार पर भेदभाव की झलक देखी जा सकती है. ज्यादातर पाठों के विषय, चित्र और चरित्र लड़कों के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं. इन चरित्रों में लड़कियों की भूमिकाएं या तो कमजोर होती हैं या सहयोगी. ऐसी बातें घुल-मिलकर बच्चों के दिलो-दिमाग को प्रभावित करती हैं. फिर वह पूरी उम्र परंपरागत पैमानों से अलग नहीं सोच पाते.  

कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जिनकी गली, मोहल्लों और घरों में महिलाओं के साथ मारपीट होती है. इसके कारण उनके दिलो-दिमाग में कई तरह की भावनाएं या जिज्ञासाएं पनपती हैं. लेकिन स्कूलों में उनके सवालों के जबाव नहीं मिलते. जबकि ऐसे मामलों में बच्चों को जागरूक बनाने के लिए स्कूल मददगार बन सकता है. दरअसल हमारी शिक्षा प्रणाली में ही अभद्र भाषा, पिटाई और लैंगिक-भेदभाव मौजूद है. इसलिए स्कूलों के मार्फत समाज को बदलने के पहले स्कूलों को बदलना चाहिए.  

उस्मानाबाद जिले के एक हेडमास्टर सतीश बाग्मारे (बदला नाम) ने फरमाया कि- ''लड़कियों की सुरक्षा के लिए चारों तरफ एक दीवार होना जरूरी है.'' दीवारों को बनने के बाद हो सकता है उन्हें गार्डो की तैनाती जरूरी लगने लगे. हमारा स्कूल उस समाज से घिरा है जहां लड़कियों को सुरक्षा के नाम पर कैद करने का रिवाज है. आज भी ज्यादातर लड़कियों के लिए शिक्षा का मतलब केवल साक्षर बनाने तक ही है. बचपन से ही उनकी शिक्षा का कोई मकसद नहीं होता. लड़कियों को बीए और एमए कराने के बाद भी उनकी शादी करा दी जाती है. इसलिए लड़कियों की शिक्षा को लेकर रचनात्मक ढ़ंग से सोचना जरूरी है.  

गांधीजी ने कहा था-''एक महिला को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार पढ़ेगा'' उन्होंने 23 मई, 1929 को 'यंग इण्डिया' में लिखा-''जरूरी यह है कि शिक्षा प्रणाली को दुरूस्त किया जाए. उसे आम जनता को ध्यान में रखकर बनाया जाए.'' गांधीजी मानते थे-''ऐसी शिक्षा होनी चाहिए जो लड़का-लड़कियों को खुद के प्रति उत्तारदायी और एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना पैदा करे. लड़कियां के भीतर अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह पैदा हो. इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा.'' इसलिए महिला आंदोलनों को तर्कसंगत प्रतिरोध के लिए अपने एजेण्डा में 'लड़कियों की शिक्षा' को केन्द्रीय स्थान देना चाहिए. महिलाओं की अलग पहचान के लिए भारतीय शिक्षा पध्दति, शिक्षक और पाठयक्रमों की कार्यप्रणाली पर नए सिरे से सोचना भी जरूरी है.

                                            - शिरीष खरे
'चाईल्ड राईटस् एण्ड यू (क्राय) मुंबई' के 'संचार विभाग' में कार्यरत हैं.

 

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