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प्रेरणा श्रीमाली से कथक और वर्तमान परिदृश्य, कथक व कविता पर लिया गया साक्षात्कार - मनीषा कुलश्रेष्ठ

 “ मैं अपने कमरे में बैठी हूँ, खिड़की से बाहर देखती हुई, मैं देख रही हूँ पेड़ पर पत्तियों का नर्तन. हर पत्ती अलग ढंग से नाच रही है, मगर एक ही दिशा में. इस तरह से हम अमूर्त, अदृश्य हवा की उपस्थिति और दिशा दोनों को महसूस कर पाते हैं. इस धरा पर उपस्थित सारे नर्तक अपनी तरह से नृत्य करते हैं, अपने संगीत के साथ या बिना संगीत भी, मगर अभिव्यक्ति की ही दिशा में ही तो न! हम सब अभिव्यक्त होना चाहते हैं, जितना ज़ोरों – शोरों से हो सकें. जहाँ तक मेरा यक़ीन है कि नृत्य ही मानव सभ्यता की सर्वप्रथम अभिव्यक्ति रही होगी, जिससे वह संवाद कर पाया या कर पाई होगी. यह बहुत ही अजीब – सी बात नहीं कि हम अपने जन्म से मृत्यु तक कुछ न कुछ कहना चाहते ही हैं, चाहे माध्यम और मुहावरा हम कोई – सा चुनें.

मैं नर्तकी हूँ. नृत्य मेरी भाषा है. जीवन के इस बिन्दु और आयु में मैं सहज ही कह सकती हूँ कि नृत्य मेरे जीवन को निर्देशित करता है. मैं कुछ भी करुँ वह मेरी नृत्याभिव्यक्ति का ही दूसरा अनुभव बन जाता है. नृत्य महज नृत्य, एक सीखा हुआ हुनर मात्र नहीं हो सकता बल्कि जब एक नर्तक या नर्तकी अपनी मनो – मस्तिष्क की पूर्ण सजगता के साथ नाचता या नाचती है, वह नृत्य के रियाज़ के साथ आता है. क्योंकि उसे मुद्राओं, पद – संचालनों, गतियों और भावाभिव्यक्ति को हजार बार निरंतर दोहराना ही होता है. ताकि सम्पूर्ण अंग – संचालन में एक सहजता आ सके, और इस रियाज़ में नर्तक अपने शरीर के हर अंग के प्रति सजग हो ताकि वह नाचते समय अपने पूरे शरीर को भूल जाए. तभी संभव है कि दर्शक नर्तक को भूल नृत्य देखे. और साधना क्या है? - प्रेरणा श्रीमाली

           कथक के जयपुर घराने की जानी मानी नृत्यांगना प्रेरणा श्रीमाली का नाम आज कला के क्षितिज पर ध्रुव तारे की तरह हैं, अलस्सुबह की निस्तब्धता में दमकता, अपनी उपस्थिति से अभिभूत करता. दिशानिर्देशक की भूमिका निभाता.
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त, हमारे देश की कथक की महत्वपूर्ण व अग्रिम पंक्ति की नृत्यांगना प्रेरणा श्रीमाली, जयपुर घराने से सम्बद्ध हैं, जयपुर घराने के प्रसिद्ध नृत्याचार्य श्री कुन्दनलाल गंगानी उनके गुरु रहे हैं. प्रेरणा श्रीमाली न केवल जयपुर घराने का क्लिष्टतम व्याकरण और पेचीदगियों - बारीकियों में सिद्धहस्त हैं बल्कि वे कथक में कविता व संगीत के नए प्रयोगों तथा कल्पनाओं के माध्यम से अपने गुरु के प्रतिष्ठापित मील पत्थरों के बहुत आगे नए मील पत्थर लगाने में सफल रही हैं. वे नृत्त व अभिनय में समान रूप से सिद्दहस्त हैं. उन्होंने प्राचीन, मध्यकालीन तथा आधुनिक संस्कृत, हिन्दी, उर्दू के कवियों - कालिदास, अमरू, मीरा, कबीर, पदमाकर, ग़ालिब यहाँ तक कि फ्रांसीसी कवि ‘ईव बॉनफुआ’ की कृतियों पर नृत्य – प्रस्तुतियाँ तैयार की हैं और सफलतम तरीके से मंच पर प्रस्तुत की हैं. प्रेरणा कविताओं – गीतों को नए व विलक्षण ढंग से अपने नृत्त व सघन अभिनय द्वारा नृत्य में ढालती हैं.
उनका इस बात में गहरा विश्वास है कि कथक में प्रयोगों की असीम संभावनाएँ हैं. खासतौर पर पारंपरिक कथक के अन्दर ही नए और क्लिष्ट प्रयोगों की संभावना सदा रहती ही है. प्रयोग क्षणभंगुर न हो, अस्थायी न हो, न केवल प्रस्तुति के बाद नष्ट हो जाए बल्कि परंपरा के भीतर पनपे.
देश – विदेश में बहुत से कार्यक्रम कर चुकी प्रेरणा श्रीमाली, विश्व के सभी प्रमुख संगीत – नृत्य समारोहों, मसलन भारत का खजुराहो संगीत समारोह, फ्रांस का फेस्टिवल द’आविन्यॉ में शिरकत करती रही हैं.
बहुत से सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ी जा चुकी प्रेरणा श्रीमाली को उल्लेखनीय तौर पर रज़ा फाउण्डेशन पुरस्कार, तथा राजस्थान संगीत नाटक अकादमी सम्मान(1993) मिल चुका है. अभी हाल ही में प्रेरणा जी को केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (2009) से सम्मानित किया गया है. वर्तमान में प्रेरणा जी, श्रीराम भारतीय कला केन्द्र दिल्ली में कथक की अतिथि गुरु हैं.
 मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा प्रेरणा श्रीमाली से कथक और वर्तमान परिदृश्य, कथक व कविता पर लिया गया साक्षात्कार -


नमस्कार प्रेरणा जी! देरी के लिए क्षमा चाहूँगी, दिल्ली का ट्रेफिक आप जानती ही हैं ....खैर. शुरु करें बातचीत?

मनीषा, क्या जानना चाहती हो, ये साक्षात्कार जो है वह पूरा एक नृत्यांगना के दृष्टिकोण से होगा या एक व्यक्ति के तौर पर ...जानना चाहती हूँ कि इसका स्वरूप क्या होगा?

एक व्यक्ति के तौर पर और नर्तकी के तौर पर भी, दोनों जो मिलकर प्रेरणा श्रीमाली को सम्पूर्ण बनाते हैं, क्योंकि यहाँ एक तरफ साहित्यिक पहलू भी है। साहित्य में कला के साथ व्यक्ति की सजग उपस्थिति रहती है. इसीलिए दोनों, जिसमें आपका व्यक्तित्व आपके नृत्य की कला-साधना भी समायित हो, और एक आम स्त्री का भी एक पहलू रहे। ताकि पाठक तीनों आयामों में एक सम्पूर्ण कलाकार – व्यक्तित्व को जान सके.

ठीक है.

मैं बिल्कुल शुरूआत से ही शुरू करना चाहूँगी। यानी आपके बचपन से, बचपन की तालीम से, कहाँ पर पहली बार गति आई थी? बचपन की पहली थिरक से। मेरा अर्थ कि आप किस परिवेश में बड़ी हुईं? नृत्य की तरफ आपका रुझान कैसे आया?

याद भी नहीं है मुझे। मम्मी के हिसाब से मैंने अपना पहला कार्यक्रम किया, तब मैं पाँच साल की पूरी भी नहीं हुई थी. जिसकी तस्वीरें अभी भी उनके पास हैं। शुरू कब किया होगा, यह मेरी याददाश्त में नहीं है, क्योंकि उसके बाद की ही चीज़ें याद में बनती रही हैं, उसके पहले की नहीं और उसके पहले की कोई याद मुझे नहीं है, इसलिए वह मैं नहीं बता सकती कि कहाँ मैंने शुरू किया होगा। लेकिन शायद मंच पर साढ़े चार साल या पाँच साल से पहले नाच लिया, तो उसके एक साल पहले से ही तो सीखा ही होगा। उसे अगर मानें, तो मान लें मेरी पहली थिरक।
बाकि जहाँ से मेरी स्मृति बनना आरंभ होती है, वो है गुरुजी की स्मृति. मेरे गुरुजी कुन्दनलाल जी गंगानी। उन्होंने..... शायद वही पहले - पहल हमारे घर आए थे। ये भी मम्मी की बताई हुई बातें हैं जो मुझे याद नहीं हैं। मेरे दादा ज्योतिषी हुआ करते थे - पंडित किशनलाल श्रीमाली। गुरुजी उनके पास अपनी जन्मपत्री दिखाने आये थे और वहाँ उन्होंने मुझे देखा होगा। मैं पाँच-छ: वर्ष की रही होंऊँगी, तो उन्होंने कहा कि इसको आप नृत्य क्यों नहीं सिखाते हैं। मम्मी ने कहा- “करती रहती है स्कूल में।“
उन्होंने कहा- “ नहीं-नहीं, इसे कथक सिखाइये।“ मम्मी ने कहा- “कुछ भी करे। ठीक है।“ उन लोगों को भी मालूम नहीं था। वे लोग कथक के बारे में इतना नहीं जानते थे। खैर इस तरह से गुरुजी ने सिखाना तय किया बाकायदा गण्डा बाँधकर। इतना शास्त्रीय रिवाज़ तो आप जानती ही हैं न? उन्होंने गण्डा बाँधा, पूजा-ऊजा हुई और फिर गुरुजी ने सिखाना शुरू किया, वह सब तो मुझे बखूबी याद है। हम लोग जयपुर में जौहरी बाज़ार में रहते थे और छत पर सोते थे। गर्मियों में तब हम लोग छत पर ही सोया करते थे और सर्दियों में नीचे अन्दर बिस्तर लगते थे। उस ज़माने में ज़मीन पर ही बिस्तर लगाने का रिवाज़ था हमारे यहाँ। सुबह स्कूल जाते होंगे तो जल्दी सुलाती होंगी मम्मी लेकिन गुरुजी कभी – कभी रात में देर से भी आते थे. मुझे अच्छी तरह याद है, कई बार गुरुजी अचानक रात में आ गये हैं और मम्मी बिस्तर हटातीं, जगह बनातीं हमारे लिए, कि गुरुजी मुझे नृत्य सिखायेंगे। कभी-कभी सुबह-सुबह मम्मी उठातीं. मान लीजिए छुट्टी का दिन है, और हम देर तक सो रहे हैं, तो इतना बुरा लगता था न मुझे कि मैं मन ही मन कहती “- क्या आ जाते हैं, कभी भी।“ माँ कहतीं ‘बेटा! उठो गुरुजी आ गये।‘ बहुत खीज होती थी. दरअसल जब भी मन होता था गुरुजी का या फुरसत होती वे आ जाते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि तब तो मुझे बहुत बुरा लगता था कि नींद खराब कर देते हैं, कभी-भी आ जाते हैं, कभी सुबह आ जाते हैं, कभी रात में आ जाते हैं। ऎसी थी मेरी नृत्याभ्यास की शुरुआत एक बच्चे ही की तरह, तो यह शिक्षा जो शुरू हुई मेरी, यहाँ से मुझे याद है। गुरुजी आए, कुछ सिखाया और अपने आप अभ्यास करने का एक तरीका बता दिया, मतलब, वो अभ्यास के लिए बीज डाल देते थे कि फिर आप अपने आप रियाज़ करिये। दूसरे दिन या जब भी वे आएँगे तो जो चीज़ बताकर गये हैं वह याद होनी चाहिए। और बचपन में बड़ा तेज़ दिमाग़ होता है, सब चीज़ें जल्दी याद हो जाती थीं।

इस उत्तर के बाद तो यह सवाल बाकि ही नहीं रह जाता, पर फिर भी, किसी अन्य शास्त्रीय नृत्य की ओर आपका रुझान नहीं हुआ?

सच कहूँ तो, कभी नहीं हुआ। पहली बात तो कथक भी चुना नहीं मैंने, क्योंकि ऐसा कोई विकल्प तो सामने था नहीं जयपुर में। राजस्थान में, जयपुर में बहुत मज़ेदार बात थी उन दिनों - स्कूल और कॉलेज़ों में तब जितने बच्चे नृत्य करते थे, उन्हें कथक का मूल पद “ता थइ थइ तत – आ थइ थइ तत” आता ही था. वहाँ पर कथक इस तरह जन-जन में व्याप्त था उस समय में - जो आज नहीं है, दुर्भाग्य से । इसलिए वहाँ पर और कोई नृत्य विधा थी ही नहीं। और उस समय टी.वी. वगैरह तो शुरू ही नहीं हुआ था। दिल्ली में थोड़ा पहले शुरू हो गया था ‘सेटेलाइट टेलीविज़न’। वहाँ रेडियो होता था उस समय में, बस। तो ऐसा कोई माध्यम भी नहीं था, कभी-कभार बड़े नृत्य - कलाकार आते थे, तो उनको देखने पापा-मम्मी हमें उनके कार्यक्रम में ले जाते थे। इस तरह का एक संस्कार ज़रूर था घर में, तो देखी ज़रूर थीं अच्छी नृत्यप्रस्तुतियाँ, पर कभी - कभी। भरतनाटयम की मैं बड़ी नकल किया करती थी। सोनल मानसिंह जी तब भरतनाटयम करती थीं और मुझे वह बहुत सुन्दर लगती थीं। मैं उनके नृत्य की नकल किया करती थी - बिना जाने कि यह भरतनाटयम है, ऐसा-ऐसा करके, ( प्रेरणा हँसते हुए भरतनाट्यम की मुद्राएँ बनाती हैं) कुछ भी मुद्राएँ- भंगिमाएँ किया करती थी। अभी, कुछ साल पहले जब उनसे अच्छी भेंट हो गई और अब अच्छे ताल्लुकात भी हैं –तो उनको एक बार मैंने कहा भी था.. किसी एक शादी में मिलने पर कि “एक दिलचस्प रहस्य मैं आपको बताती हूँ, जब मैं छोटी थी तो मैं आपको बहुत कॉपी करती थी। आप मुझे मंच पर - ऐसी लगती थीं कि जैसे किसी शिल्प से सीधा निकल कर आ गयीं।“
उन्होंने आँख बन्द कर कहा- “एक बार फिर से कह दो। “
शायद आकर्षण भी नृत्य से ज्यादा उनके व्यक्तित्व का था। बच्चा सुन्दरता की तरफ आकर्षित होता ही है।
तो इस तरह खाली हम कथक से ही शुरु से वाक़िफ रहे थे। कोई लखनऊ घराना भी है, कथक का, ऎसा कोई भान भी नहीं था। इस तरह कथक का अपने आप ही चुनाव हो गया और अगर आपके सामने विकल्प भी नहीं हो, तो जो है वो ही है।

आप बहुत भाग्यशाली थीं कि जो विकल्प था, वह बहुत ही अच्छा था। बल्कि सर्वश्रेष्ठ था.

ये पता नहीं मुझको! लेकिन मुझे कथक से बहुत ही प्यार है। वैसे सभी विधाएँ बहुत अच्छी हैं अपनी-अपनी जगह, बहुत समृद्ध हैं, पर मेरा आकर्षण इसके अलावा कहीं नहीं हुआ। यह सच्चाई है।

प्रेरणा जी! आप जयपुर घराने की, न केवल जयपुर घराने की बल्कि देश की अग्रणी नृत्यांगना है, बल्कि आप अपनी विशिष्ट क़िस्म की नृत्य अदायगी के चलते पूरे देश का प्रतिनिधित्व सारे संसार में करती आई हैं। आप अपने जयपुर घराने की विशिष्टताओं को कैसे व्याख्यायित करेंगी?

जयपुर घराना मेरे हिसाब से?

जी हाँ, आपके हिसाब से, जो आपने आपके अन्दर आत्मसात किया है?

क्योंकि जो किताबी है, वो तो किताबों में उपलब्ध है, पर वह बहुत अधूरा है और ग़लत है। गलत इस अर्थ में है कि अगर ये कहा जाए कि जयपुर घराना केवल वीररस प्रधान है और लखनऊ घराना केवल लास्य प्रधान। तो दोनों ही बातें अपने आप में अधूरी हैं, क्योंकि दोनों रस एक दूसरे के पूरक हैं.

कथक की विशेषताओं के हिसाब से दोफाड़ कर रखा है? दोनों घरानों को.

हाँ, जो कि सम्भव ही नहीं है। आप नृत्य जानती है, इसलिए आपको मालूम ही होगा कि 'ताण्डव' और 'लास्य' को जब आप मिलायेंगे, तब ही बनेगी कोई बात। इनमें दोनों के अकेले होने से तो छवि बनती नहीं कोई। आप खाली लास्य ही लास्य करते रहिये, तो दस मिनट में बोर हो जायेंगे। एक सन्तुलन ज़रूरी है। वह प्रकृति का है। प्राकृतिक रूप से भी पुरुष और स्त्री का सन्तुलन ज़रूरी है। तो यह ...कहना कि जयपुर घराना केवल वीर रस प्रधान है और ये घराना लास्य प्रधान है, इस में भक्ति होती है, उसमें लास्य होता है या इसमें केवल चक्कर या पदसंचालन का कमाल होता है तो यह सब कहना गलत है। मैं इसे गलत इसलिए कह रही हूँ, क्योंकि जो किताबों में कहा गया है, वो बहुत ही मोटे तौर पर कहा गया है, उनमें कतई गहराई में जाने की कोशिश नहीं की गई है।
एक तो स्थायी तौर पर इतने सालों से मैं जयपुर घराने से सम्बद्ध हूँ, अब यह कह सकती हूँ कि कथक के जयपुर घराने की विशेषताओं को गहन तौर पर आत्मसात कर चुकी हूँ । यह तो तय है कि हर कला में आप गहराई में जाते रहिए, तभी आप ऊपर पहुँचते हैं आधारभूत रूप से जयपुर घराने की ख़ासियत जो मुझे लगती है -- जयपुर घराना अपने आपमें बड़ी परिपूर्ण ‘नृत्य विधा’ है। मैं ऎसा क्यों कह रही हूँ? इसलिए कि इसमें वो सारे तत्व हैं जो किसी भी एक प्रस्तुति को पूरा बनाते हैं। जैसे कि इसमें पदसंचालन पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता है। हम लोग ‘फ़्लैट फुट’ यानि पूरे पैर की तत्कार ही बचपन से सीखते हैं। एड़ी लगाना तो मैंने बाद में सीखा. मैं 1978 में दिल्ली आई हूँ और मैं उससे पहले वर्षों से नृत्य कर रही हूँ। मैंने दिल्ली आने के बाद ही एड़ी लगाकर तत्कार करना सीखा। एड़ी चलाना मुझे मुश्किल लगा। जबकि वह आसान चीज़ है। पूरे पैर की तत्कार से आपका पैर स्ट्रांग हो जाता है और कथक में तो हर बोल पैर से निकालना ज़रूरी होता है.
मेरे गुरुजी की जो शिक्षा है, मैं उसी को ही सर्वोपरि मानती हूँ कि हर बोल आपका पैर से निकलना चाहिए, क्योंकि यह परम्परा में है, इसकी वजह भी है कि कोई भी तबला वादक आकर आपके साथ बजा सकता है, तो वह तभी बजा सकता है जब आपके पैर से बोल निकल रहे हों। ठीक है आपने बोल पढ़ दिया, उसके बाद में वह परन पूरी तो याद नहीं रहेगी, आपका पैर ही है जो लय को बाँधकर रखेगा और बोल निकालेगा। बोल निकालना तो बहुत ज़रूरी है। तुलनात्मक रूप से आप लखनऊ घराने को देखेंगी, तो बहुत सारी चीज़ें ख़ामोशी – ख़ामोशी में निकल जाती हैं।
जब मैं कथक केन्द्र में थीं, तो एक साथी नृत्यांगना थी, उसने उसी दिन एक बोल सीखा था, जिसका अभ्यास वह मेरे कमरे में आकर कर रही थी। उसने बहुत से हस्तक कर लिए तो मैंने कहा- क्या कर रही हो? उसने बोल पढ़ा और नृत्य किया। मैंने कहा- एक भी बोल तो निकला नहीं पैर से!
तो यह बिल्कुल वर्जित है जयपुर घराने में कि आप बोल करें और वह पैर से न निकले। खामोश तो नृत्य हो ही नहीं सकता न! तो बोल आपका तभी निकलेगा, जब आपका पैर बहुत दम दारी से चलेगा। जितना सीधा पैर चलेगा, उतना उल्टा भी चलेगा। एक और दूसरी बात, अंग की खूबसूरती जो है, वह घरानों पर निर्भर नहीं करती। अंग की खूबसूरती गुरु से गुरु पर निर्भर करती है। क्योंकि एक ही घराने के दस लोग दस तरह से नाचते हैं।

जी, बिल्कुल। मैं भी यही मानती हूँ।

मैंने जब नृत्य सीखा। मेरे गुरुजी के बेटे मेरे साथ में सीखते थे। हम दोनों के नृत्य में आप बिल्कुल साफ- साफ एक फाँक देख सकती हैं, इतना फ़र्क़ है। जबकि सीखा एक ही साथ, एक ही समय में, एक ही गुरु से, क्योंकि गुरु जो बता रहे हैं, शिष्य उसे कैसे ग्रहण कर रहा है, इसका फ़र्क़ है।
एक तो पदसंचालन , फिर जो आपकी दैहिक गति है – बोल आपके अंग से कैसे निकल रहे हैं और आपका अभिनय कैसा होगा, ये देखने की बात है। यह भी व्यक्ति से व्यक्ति पर निर्भर करता है। कवित्त जो हैं, वह सिर्फ़ जयपुर घराने की ख़ासियत हैं। हम लोगों ने विलम्बित लय में गतें सीखीं, जो हमारे गुरुजी की ख़ासियत हैं, जो गुरुजी की ख़ासियत है, तो वह मेरे लिए जयुपर घराने की ख़ासियत है, क्योंकि मेरे लिए जयपुर घराना - मेरे गुरू हैं.
सिर्फ़ इस घराने में ही आप कई तरह से चक्कर लेते हैं। आपका पैर खुल जाता है। आपको कई तरह से चक्कर लेने के अन्दाज़ समझ में आते हैं। कुछ इतने स्पेशल गति हैं, जो सिर्फ़ जयपुर घराने के ही लोग करते हैं। ऐसा-ऐसा करके, ( बैठ कर ही नृत्य - भंगिमाएँ करके दिखाती हैं प्रेरणा) या इस तरह की जुम्बिशें हैं। तो इस तरह से अंग खुल जाता है।
‘कथक’ को अगर हम भाषा मानें तो तो इसका व्याकरण, जयपुर घराने में खासतौर पर इतना समृद्ध है कि आप उसे धीरे-धीरे खोल सकते हैं और यह सिर्फ विलम्बित लय में संभव है जो कि जयपुर घराने की अकेली ख़ासियत है।

मैंने जो सवाल तैयार किये थे, उनके कई सारे उत्तर आपने अपनी बातों में पहले ही दे दिये। यही मेरा सवाल था कि जयपुर घराने में आपके गुरुजी ने लास्य को कुछ विशेषताएँ दी हैं। जैसे विलम्बित लय को नये गत दिये, नये बोल दिये, नवीन तिहाइयाँ और परन दिये. अच्छा आप उनके द्वारा प्रतिपादित चलन और कायदा के बारे में बताइए न?

बिल्कुल। वह चलन गुरुजी ने शुरू किया, कि जैसे आप पहले पदसंचालन करते हैं। पहले तो ऎसा कुछ होता नहीं था, एक बार इस विषय पर मैंने गुरु कार्तिकराम जी से बहुत पहले बात की थी, लम्बी बात। जब वे भोपाल में थे तब मुझे मौका मिला था, और मैं खुद भी कथक पर कुछ लिखना चाह रही थी ( लिखना तो अभी भी चाह रही हूँ - जो कि अधूरा पड़ा हुआ है अब तक। समय ही नहीं मिला कि मैं उसे पूरा करूँ!) तो कार्तिकराम जी से बात करने में समझ आया था कि महफ़िल के अन्दाज़ में कैसे नाच होता था पहले। अब आपका एकतरफा नृत्य होता है कि आप यहाँ हैं और दर्शक वहाँ है, सामने। अब आपके तीन तरफ दर्शक नहीं होते। बहुत कम ही होता है। केवल मन्दिरों में नाचते हैं तब...तो आपका नृत्य भी उस हिसाब से बदलता है। अब सारे नर्तक - नर्तकियाँ अब सबसे पहले पदसंचालन करते हैं - जबकि यह चलन नहीं था पहले।
पहले पदसंचालन क्यों करते हैं? आज आप जब खजुराहो के मंच पर जाकर नाचते हैं, तो कई फीट दूर पर पहली पंक्ति है। इतनी दूर बैठे हैं लोग और आप यहाँ नृत्य कर रहे हैं। आपका पहली पंक्ति से ही दूरी बहुत है तो आपको उन तक पहुँचना है, आखिरकार आप कुछ प्रस्तुत कर रहे हैं, आप प्रस्तोता हैं, आप नृत्य प्रस्तुत करने मंच पर आए हैं - आप कमरे में तो नहीं नाच रहे हैं। तो आपको ख्याल करना पड़ेगा जो सामने बैठे हैं उनका। तो आपकी गति बढ़ जाती है। आपका मूवमेंट ब्रॉड हो गया, आप में एक विगर (जोश) आ गया. वीररस अब हर नर्तक करता है - क्योंकि उसके बिना आप आकर्षित नहीं कर पाते हैं लोगों को और वो आपका एक ध्येय बन गया है।

क्योंकि गति चाहिए दर्शकों को उसमें?

हाँ, गति चाहिए। इसीलिए पदसंचालन का चलन हुआ मेरे हिसाब से, - यह मेरा अपना सोचना है - क्योंकि मैं प्रस्तुतिकरण पर कुछ लिख रही थी, तो मुझे यह समझ में आया कि हर नर्तक या नर्तकी पहले आकर पदसंचालन क्यों करते हैं? यह सवाल मैं अपने से कर रही थी तो यह समझ में आया कि वह इसलिए करता है, क्योंकि घुँघरू और आवाज़ ऐसी चीज़ें हैं, लयकारी के साथ जो एकदम आपको आकर्षित करती हैं।
दर्शक बात कर रहे हैं, कोई मूँगफली खा रहा है, कोई चने चबा रहा है, कोई कुछ कर रहा है, सब लोग ऐसे बैठे हुए हैं। खुला हुआ ऑडिटोरियम है, खुली जगह है, जब आप घुँघरू से पाँच-सात मिनट तक झुनझुन करते रहते हैं, तो उस झनकार से हर एक का ध्यान आपकी तरफ आ जाता है, तो वहाँ आपकी ज़मीन तैयार हो जाती है। आपने पदसंचालन को खत्म किया और उसके बाद अब आप जो चाहिए उनको दिखाइए, इसीलिए यह चलन है। जब दर्शक को अपनी तरफ आकर्षित करने का सवाल पैदा होता है तो सब लोग पहले यह ‘उपज’ करते हैं। चाहे आप छोटे से लेकर बड़े कलाकार तक आ जाइए.
दूसरा अगर पारम्परिक रूप से उसको देखना चाहें, तो वो यह होता है, कि पहले के समय....... वो एक तरह का परिचय या भूमिका होती थी। मान लीजिए, तबलेवाला नया है, वह आपके साथ “ठेका” रखते चल रहा है, आप “उपज” करते चले जा रहे हैं, तो उसको भी आपका नृत्य – सामर्थ्य, ढंग समझ में आ जाता है कि आप में कितना दम है? फिर आप इशारा करते हैं तो तबलावादक बजाते हैं, तो आपको तबला समझ में आ जाता है। दर्शक को दोनों समझ में आते हैं। मुझे लगता है समय, परिस्थिति और परिवेश के अनुसार प्रस्तुतिकरण भी इस तरह बदलता जाता है। कुछ चीज़ें जो पहले नहीं थीं, मगर अब हैं, समय और परिस्थितियों के बदलाव के कारण.

आप कह रही हैं कि परिस्थितियों के हिसाब से बदलता है हर नर्तक का प्रस्तुतिकरण?

हाँ, परिस्थितियों के हिसाब से बदलता ही है, और आपका वातावरण आसपास का कैसा है, उससे भी बदलता है। तो वह चलन जो था, पहले खाली उपज करते थे, गुरुजी ने ऎसा किया, कि उपज करिए फिर लय को, मतलब नगमे को खोलिये, ताल को खोलिये और थोड़ी देर के बाद में एक छन्द ले लिया - कायदे की तरह, जो तबले का “कायदा” होता है - उस तरह का कोई बोल 'धा धाति धागेन धाति घागे तिन गिन” ऐसा करके ( सुन्दर मुद्रा बनाते हुए) और फिर उसी की एक लड़ी जैसी बन गई तो वह बिल्कुल एक बँधा हुआ छन्द बना। जिससे आपने एक गति भी पकड़ी और उसके बाद आपने एक तिहाई लगाकर खत्म कर दिया।
मुझे लगता है इस तरह एक बहुत अच्छा फिनिश आता है उससे, या आपने 'तधा – तधा धा-धा-धा' करके छोड़ दिया, वो भी ठीक है, पर गुरुजी ने यह एक नया ढंग इज़ाद किया, इसमें मुझे एक बड़ी सुन्दरता इसलिए नज़र आती है कि इसमें आपका खुद का ‘वार्मअप’ भी होता है।

कलाकार स्वयं भी तो एक मूड में आते हैं.

आपकी लय आपके अन्दर उतर जाती है और आप एकदम से पूरी तरह नृत्य के साथ जुड़ जाते हैं। तो यह मुझे समझ में आया . - और यही जयपुर घराने की ख़ासियतें रही है - छन्द , कवित्त, कवित्त में विलम्बित लय का इतना विस्तार, बहुत लम्बे, उलझे हुए बोल हैं अलग-अलग गतियों में। लय में बोल हैं, तीन लय के तिपल्ली जा रहे हैं, फिर चौपल्ली, फिर पाँच पल्ली भी जा रहे हैं।

प्रिमलू हैं...

प्रिमलू तो बहुत सारे हैं। उसके बाद आपके अलग-अलग परने हैं। गत परन है, तो गणेश परन है, तो सिंह की परन है। तो ढेर सारी ऐसी... बाघ परन कहते हैं। बेदम चीज़ें हैं। यह सारी जो विविधता है, आपको जयपुर घराने में ही ख़ासतौर से मिलती है. बड़े-बड़े कवित्त मिलते हैं। लम्बे कवित्त है बहुत सारे। कलियादमन, गोवर्धनलीला बड़ा लम्बा कवित्त है। सिंह के लिए कवित्त है। प्रकृतिके लिए कवित्त है। ढेर सारे कृष्ण के अलग-अलग क्षणों के कवित्त हैं। जबकि कवित्त में पूरी कहानी नहीं होती। एक क्षण होता है।

हाँ, छोटा-सा एक क्षण।

जब आप ठुमरी करते हैं, अभिनय पर जब आते हैं - किताबों में यह लिखा गया है कि सिर्फ़ भक्ति करते हैं, जबकि ऐसा सम्भव ही नहीं है। आप सिर्फ़ भक्ति कब तक कर सकते हैं। केवल समर्पण तो नहीं हो सकता है।

अभिमान भी तो है... श्रृंगार में.

सब कुछ होता है। श्रृंगार ऐसा रस है, जिसके अन्दर सारी चीज़ें समाहित हो जाती हैं। श्रृंगार में समर्पण भी आ जाता है।
भक्ति तो आ ही जाती है और आप हर तरफ से ट्रेवल ( संचरण) करते हैं। फिर श्रृंगारिक ठुमरियाँ भी बहुत हैं। गुरुजी ने एक और नई चीज़ इज़ाद की थी कि ठुमरी के पहले छन्द करवा दें। वह छन्द ऐसा, जैसे आप अभी यह लेख लिख रही हैं और आपने कहा कि शुरू में मैं आपका परिचय दूँगी - तो वह वही बात है कि ठुमरी का परिचय होता है , छन्द में और छन्द में एक ज़मीन बनती है। मान लीजिए, जैसे एक छन्द चल रहा है ' एक समय गृह सौं निकसी, आलि पहन के चीर कुसुम्भी सारी’ और वहाँ छेड़छाड़ हो गई, तभी ठुमरी शुरू होती है 'छाँड़ो जी बिहारी नगरी देखे सगरी'।

वहाँ रूठे थे छन्द में और यहाँ पर कवित्त में मनाने का दौर शुरु हुआ!

ये जो छन्द है शुरू का, इसे बिना ताल के नाचेंगे- क्योंकि छन्द की अपनी गति है वह अलग है - पर उसे ताल में बाँधा नहीं गया है। बिल्कुल मुक्त छोड़ा है। हर ठुमरी के पहले मैंने नया छन्द सीखा।

हर बार नया, नवीन?

हाँ। कोई न कोई नया छंद । क्योंकि जब सीखते थे तो आप सीख ही रहे होते हो. अपने दिल से सीखते हो – व्याख्यायित तो बाद में करने की छूट मिलती है। वैसा होना भी चाहिए। बाद में जब गुरुजी पर काम कर रही थी, तो मुझे समझ में आया कि गुरुजी ने ये क्यों करवाया? तो वह एक तरह का ‘इण्ट्रोडक्टरी नोट’ है कि आप लेख लिख रहे हैं तो उसकी एक भूमिका बन गयी। वैसे ही इस एक ठुमरी में, जैसे मैं करती हूँ -- पहले छन्द - यानि राधा और कृष्ण एक दिन अचानक आपस में मिल गये हैं.
“इत सौं हम जात हतीं, उतसौं आवत श्याम बजावत बैना'। भेंट भई हम सकुचि फिर घूँघट कीन्हा
प्रेम भयो लिपटाय लयो, चोली के बन्द चुआत पसीना’
गाज पड्यो ऐसी लाज पे, भर आँखन श्याम को देख सकी ना, “
“आज मोहे कुँअर कान्ह बरजे।“
अब यहाँ से ठुमरी का सम शुरू होता है कि “आज मोहे कुँअर कान्ह बरजे।, मुझे रोक रहे हैं कान्ह जाने से। तो यह ठुमरी को इतना खूबसूरत विस्तार देती है इस तरह की बात - जो किसी और गुरु ने कभी नहीं की। तो मुझे लगता है कि इस तरह की चीज़ें सिर्फ़ जयपुर घराने में हैं - और कहीं पर भी नहीं हैं। ये पक्का है। आप मुझे बीच में रोक भी दीजिए, क्योंकि मैं बहुत ज्यादा बोलती हूँ।

नहीं-नहीं, मैं रोकूँगी नहीं, हाँ तो आप कह रहीं थीं कि कुल मिलाकर जयपुर घराना प्रयोगों के लिए चारों तरफ से उदार रहा है और आपके गुरुजी ने आपको लास्य, अभिनय, ताण्डव तीनों के ही सम्मिश्रित संस्कार दिये हैं। मैं यह जानना चाहूँगी कि क्या वे स्ट्रिक्ट थे आपके साथ?

गुरुजी बहुत सख्त थे अनुशासन के मामले में, और ख़ासतौर से मैं जब जयपुर में सीखती थी तब हम लोग बहुत डरते थे गुरुजी से। गुरुजी मुझे प्यार भी बहुत करते थे, क्योंकि मैं उनकी कक्षा में सबसे छोटी थी एक समय में, पर गुरुजी काम के लिए उतने ही सख़्त भी होते थे। यह बात तबकी है, जब शायद मैं सातवीं-आठवीं में रही होंऊँगी, तो ‘समर कैम्प’ होता था जयपुर में, सुबह साढ़े सात से लेकर दस बजे तक हम सिर्फ़ पदसंचालन करते थे। साढ़े सात से बारह बजे तक का कैम्प होता था। गुरुजी ठीक समय पर आ जाते थे- गुरुजी समय के प्रति प्रतिबद्ध थे, जोकि बाद में नहीं रहे, जब दिल्ली आ गये और कथक केन्द्र में काम सँभाला । मैंने जब दिल्ली आकर सीखना शुरु किया गुरुजी से तब तक गुरुजी का वो तीखापन खत्म हो गया था। एक व्यक्तित्व की तीक्ष्णता होती है न, वे तेवर सारे चले गए.

उसकी वजह? नई जगह या दिल्ली और कलागत राजनीति.

हाँ, कह नहीं सकती लेकिन कुछ यह भी होता है न कि आप कहाँ काम करते हैं और किस तरह का माहौल आपके पास है। जो भी हो, मुझे नहीं मालूम! पर ऐसा हुआ था। लेकिन गुरुजी हमारे प्रति तो सख्त इतने ज्यादा थे कि साढ़े सात बजे तबला बजाने खुद बैठ जाते थे, तो उनके पहले शिष्यों को तैयार होना ही होना है और सात बजे हमें घुँघरू बाँधकर खड़ा हो जाना है - मतलब पन्द्रह मिनट पहले आना चाहिए और आकर खड़े हो जाना चाहिए। और हम खड़े हो जाते थे पूरे पैर से। अगर एड़ी लगाते तो गुरुजी ऐसे हथौड़ी खींचकर मारते थे। हमें लिखने की इजाज़त नहीं थी कक्षा में। गुरुजी को सख्त चिढ़ थी लिखने से, रिकॉर्डिंग वगैरह तब होती ही नहीं थी. हम खाली समय में बस रियाज़ करते, याद करते. तालें, तोड़े, परण....सब कंण्ठस्थ करो क्योंकि उनको उनके हिसाब से सब चीज़ें बिल्कुल हृदयंगम हो जानी चाहिए, उसी वक्त याद हो जानी चाहिए। बहुत बुरा भी लगता था, पर वो ऐसी आदत शुरू से थी, इसलिए तब सोचा तो नहीं, पर दिमाग बहुत झगड़ा करता था इस बात के लिए, लेकिन उसका फायदा अब बहुत हो रहा है कि कुछ चीज़ें रह-रहकर याद आ जाती हैं, वे भूलती नहीं हैं। उन्हें गुस्सा बहुत जल्दी आता था। आप उनसे कोई सवाल नहीं कर सकते थे, क्योंकि गालियाँ बोल देते थे . कक्षा में एक बोल सिखा रहे हैं और अगर कक्षा से उठकर बाहर चले गये, तो यह तय मानना चाहिए था कि जब लौटेंगे तो पैर में एक और कुछ बोल जुड़ जाना चाहिए।

अपनी तरफ से?

हाँ, अपनी तरफ से। तो यह उनका तरीका था सिखाने का और मेरे लिए बहुत स्ट्रिक्ट थे। क्योंकि पापा से उन्होंने कहा था- आप प्रेरणा को भेजिए यहाँ दिल्ली. पापा ने कहा- वहाँ कोई है ही नहीं और अभी ये पढ़ाई कर रही है और फिर जब मैं दिल्ली आ गई, तो वह गुरुजी को मैं उनकी अपनी जिम्मेदारी लगती थी। यहाँ पर कथक केन्द्र बहावलपुर हाउस में है, वहाँ पर मेरा हॉस्टल था, अगर उन्हें यह पता लग जाता था कि कल मैं साढ़े सात के बाद गेट के बाहर गई थी, तो वे बहुत नाराज़ हो जाते थे। और कोई न कोई ऐसा होता था, सीनियर स्टूडेण्ट, जो कि मेरी शिकायत उसी वक्त कर देता था, अगर मैं थोड़ी देर भी बाहर गई, तो-पूछा जाता क्या हो रहा था बाहर? और बहुत बुरी तरह डाँटते थे।
वे भोले भी बहुत थे मगर कान के बहुत कच्चे थे. किसी ने कह दिया कुछ कि इसने गड़बड़ कर दिया, ऐसा कर दिया, तो वह आपसे बिना कहे ही नाराज़ हो जाते थे। एक बार मुझसे किसी बात पर नाराज़ हो गये थे और मुझे पन्द्रह दिन तक उन्होंने पैर छूने ही नहीं दिये। मतलब, मैं नमस्कार भी उनको नहीं कर पाती थी। तो यह किसी भी शिष्य के लिए बड़ी तकलीफ की बात हो जाती है कि अगर गुरु इतना नाराज़ हो जाए और तब जबकि आपको लगता है कि वह बात ही नहीं है जिस पर नाराज़ होना चाहिए। और फिर अम्मा जी ने उनको समझाया, गुरुजी की पत्नी जो थीं, उनको हम ‘अम्मा जी' कहते हैं, तो मैं अम्मा जी के पास जाकर रोई और छोटी भी थी बहुत, उम्र में, समझ में नहीं आता था. अम्मा जी ने मेरा पक्ष लिया फिर गुरुजी में और अम्मा जी में झगड़ा हुआ। आखिरकार अम्मा जी की बात उन्होंने मानी। तो इस तरह का उनका व्यवहार रहता था मेरे प्रति।
कई बार होता कि वे बहुत नाराज़ हैं कार्यक्रम के पहले, आपको रियाज़ भी नहीं करवा रहे हैं, मगर उसके बाद जब आप मंच पर हैं और कार्यक्रम शुरु होने को है तब अचानक गुरुजी की आवाज़ नेपथ्य से सुनाई देती है कि वे आकर संगतकारों के पास में बैठ गये हैं – और विडम्बना ये कि जिसके लिए हम तैयार ही नहीं हैं। हम तो मज़े में हैं कि चलो, आज तो गुरुजी आएंगे ही नहीं। इस तरह से उनके मूड का एक ‘अप एण्ड डाउन’ चला करता था। यकीनन, उनकी सख्ती मेरे बहुत काम आई।

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