तयशुदा समय के अनुसार
मैं ठीक चार बजे
कृष्णबलदेव वैद जी के घर की डोरबेल बजा रही थी।
' मेड फॉर इच अदर' का साक्षात उदाहरण वैद दंपत्ति बहत ही मीठी और सम्मोहक
मुस्कान के साथ, दरवाजे
पर थे।
''
एकदम
समय पर पहुंची हो।'' स्नेह से मुस्कुराए थे कृष्णबलदेव वैद जी। घर की
सकारात्मक ऊर्जा दो पारदर्शी, संवेदनशील, सुंदर आत्माओं
के निवास का पता दे
रही थी। घर की सज्जा नितांत सुस्र्चिपूर्ण तरीके से की गयी थी...
हर चीज़ जैसे वैद दंपत्ति
की बुद्धिजीविता और संवेदनशीलता की खामोश गुनगुनाहट बिखेर रही थी। मेरे
भीतर का संकोच यूं भी उन स्नेहिल मुस्कानों ने पिघला दिया था शेष जो था वह
घर के आत्मीय व शांत वातावरण ने हर लिया।
''
कोई तकलीफ तो नहीं
हुई आने में।''
''
नहीं बस दूर है, पर ये
दूरियां तो दिल्ली में हैं ही।''
तब तक चंपा जी भी हमारे पास आ बैठी थीं उन्होंने भी वही सवाल किया। दूसरा
सवाल अप्रत्याशित था।
''
तुम्हें उन्नीस साल पहले आ
जाना चाहिये था।'' मैं चौंकी और मुस्कुराई इस दंपत्ति के बीच की पारदर्शी
निकटता को जान।
यह
सवाल
उस खत के
संदर्भ था जो मैं ने
''
`ख्वाब है दीवाने का'' पढ़
कर लिखा था...
कि
यह
उन्नीस साल पुराना खत है.
आपके लेखन की बरसों मुरीद रही हूं और यह खत पते के अभाव में अब कहीं जाकर
प्रेषित हो सका है
.''
वैद जी मुस्कुरा कर बोले
''
``पता तो प्रकाशक से
मांगा जा सकता था।''
मैं उन्हें क्या बताती कि लेखक उस समय बहुत दुर्लभ व सम्माननीय लगते थे।
लगता था कि वे हमारा पत्र क्यों पढ़ने लगे?
वे क्यों हमसे मिलना चाहेंगे?
सामान्य बातचीत के बाद, चंपा जी चाय बनाने के लिये उठ गयीं।
और हमारे बीच बात चल निकली जो कि साक्षात्कार तो नहीं थी, पर कृष्णबलदेव
वैद जी के लेखन से जुड़े कुछ तथ्य ज़रूर समेटे थी। मैं ने उनसे हिन्दी
साहित्य में उनके समकालीनों की तुलना में बढ़िया लेखन, नयी प्रयोगात्मक शैली,
उम्दा भाषा के बावज़ूद `उसका बचपन' की लोकप्रियता के बाद के लेखन की हुई
उपेक्षा का कारण जानना चाहा --
तो उन्होंने कहा, `` `
''उसका
बचपन' को मैं ने रीपीट नहीं किया। दूसरे बाहर जाने से लोगों ने देशद्रोही
करार कर दिया, उस दौर में जब बहत कम लेखक बाहर जाते थे। हालांकि जाना हरेक
चाहता था। अगली वजह किसी धारा से नहीं जुड़ने की थी। मसलन--
`
'उसका
बचपन' को उन्होंने प्रचलित धारा से जोड़ लिया था जो कि किसी धारा के लिये
लिखा नहीं गया था। मैं रोमेन्टिक रियलिज़्म से दूर रहा। गरीबी और गंदगी के
चित्रण में
...
यह तो वही हुआ कि
कीचड़ हो और कीचड़ में पांयचे उठा कर चलो।''
''मेरे
लेखन में यथार्थ था
जिसे मैं यथार्थ कहूंगा
यथार्थवादिता नहीं कहूंगा। हालांकि ढांचा यथार्थवादी था लेकिन संदर्भ
सांकेतिक थे। यथार्थ को फर्नीचर नहीं बनने देना था न। कि मामूली डीटेल्स से
पन्ने भरे हों वहां कहानी के गुज़रने की जगह ही न बचे। मेरा ध्यान पात्रों
पर अधिक रहता था। उनके मनोलोक पर, मेरी कोशिश उनकी रियेक्शंस पकड़ने की होती
थी। मैं ने आयरनी की इस्तेमाल किया है। आयरनी
--
क्रुएल बट नॉट जेन्टल।
सैक्स के सवाल पर--
''ऐसा क्यों हुआ
कि आपके उपन्यासों
-
कहानियों में लोगों ने
सेक्स तो देखा पर अण्डरस्ट्रीम बहते फलसफे को जानने की कोशिश ही नहीं की
?
''
''हां मेरे
उपन्यासों में सेक्स आया है, पर वहां फिर वह
'
रूमानी रियलिज़्म' नदारद
है। वहां वह आवरणहीन है, बिना लिजलिजाहट के है। मैं साहित्य में सेक्स
चित्रण सम्बंधी वर्जनाओं
का विरोधी हूँ...
हां कई जगह सेक्स एक
प्रतीक की तरह इस्तेमाल हुआ है। एक दर्शन की तरह भी...
''
''आपकी भाषाशैली
सदा विशिष्ट किस्म की और प्रयोगात्मक रही है।''
-''
मेरी भाषा संस्कृत और ऊर्दू मिश्रित रही। इस पर भी सवाल उठे पर मेरा प्रयास
एक खास किस्म की अलग भाषा अपने लिये कायम करने का रहा था। ऐसी भाषा जिससे
मौन,
ऊब,
पीड़ा भी पकड़ी जा सके। मेरा मिजाज़ आयरनीकल मिजाज़ है
--
वही मेरे लेखन में भी है।
आयरनी, रैडिकल--
बल्कि रैडिकल विडम्बना को
अपने लेखन से मैं ने प्रस्तुत किया है।''
''हाँ, जैसे `मेरा
क्या होगा.''
''यह आयरनी का
पेच है--``
मेरा क्या होगा। चाहे वह
'मेरा
दुश्मन' हो कि विमल
--यह
एक सेल्फ आयरन्ड परसन की पुकार है। जिस पुकार में आत्मदया ही नहीं,
आत्मप्रताड़ना,,
उदासी भरा व्यंग्य और हंसी है। एक किस्म का प्रलाप है। जिसमें विट भी है
पेन भी।''
''इस प्रलाप के
मीडियम को लेकर अर्तंकथा की खोज की गयी है। जैसे ` एक भिखारी' है वह चौराहे
पर खड़ा होकर...
तरह तरह के प्रलाप
के माध्यम से...
ज़िन्दगी के बारे में अपनी
बात कह रहा है। यानि कि भिखारी जैसे पात्रों में भी एक फिलॉसाफिकल तड़प
दर्शायी गयी है, इस उसके प्रलाप में भी उसका एक सर्टेन मीनिंग है। एक
फिलॉसॉफिकल तड़प है।''
''आपका अंग्रेज़ी,
उर्दू भाषा पर भी उतना ही अधिकार रहा है फिर हिन्दी में लिखना ही क्यों चुना?''
''मैं ने ऊर्दू
में भी लिखा है कहानियां
छपी भी हैं। इंगलिश में नॉनफिक्शनल भी खूब लिखा है। अंग्रेज़ी में फिक्शनल
लिखते ही मुझे लगने लगा कि मैं एक्सप्लेन करने लगता हूं, जैसा कि हरेक देशी
विदेशी लेखक के साथ दूसरी भाषा में लिखने पर होता है, फर्ज करो हिन्दुस्तानी
शादी है...
उसे लिखने के
लिये और संसार भर के पाठकों को समझाने के लिये मुझे छोटी छोटी रस्म को
एक्सप्लेन करना होगा...
क्या क्या
है। का मैं फैन रहा हूं उनके शुरुआती
दो उपन्यासों को छोड़ कर बाद में उन्होंने भी एक्सप्लेन करने की मुद्रा
अख्तियार कर ली।''
''अपवाद भी रहे
हैं।''
''हां क्यों नहीं।
बैकेट इसका अपवाद हैं। फ्रेंच के बाद उन्होंने अंग्रेजी में लिखा लेकिन बिना
एक्सप्लेन किये। वे मेरे पसंदीदा लेखकों में से हैं।''
अब तक चंपा जी चाय के साथ ढेर सारे स्नैक्स लेकर आ गयीं थीं। अब बात चंपा
जी की कविताओं
पर चल निकली।
``
''अच्छा है तुमने
लेखन की शुरुआत
जल्दी ही कर ली। मैं ने तो साठ वर्ष की उम्र के बाद कविताएं लिखना शुरु
किया।''
''पढ़ीं होंगी
तुमने?''
``''जी
हां, हंस और अन्य
पञिकाओं में पढ़ी
थीं।''
चाय के साथ चंपा जी की
कविताओं की पुस्तकें पलटीं अपने विशिष्ट लेखन के लिए मशहूऱ हमसफर के साए से
अलग
अपनी मुकम्मल पहचान बना
चुका,
वह
एक सजग,
सशक्त लेखन था।
चाय
के बाद वैद दंपत्ति
ने अपना खुशनुमा, पॉज़िटिव एनर्जी वाला,, किताबों
से तथा
राम
कुमार,
श्रीपत राय की पेन्टिंग्स, और
अन्य
चुनिंदा कलाकृतियों से सजा अपना घर दिखाया। चंपा जी ने पूछा क्या मैं वह
कमरा देखना चाहूंगी जहां कृष्ण बलदेव जी लिखा करते हैं।
''ज़रूर।
''
मैं ने सीढ़ियां चढ़कर वह कमरा देखा...
कृष्ण बलदेव
जी ने अपनी कुछ पुस्तकें
भेंट कीं...
शाम ढल चुकी
थी...
लौटने की
चिंता थी...
मन न होते
हुए भी...
स्नेह और
आत्मीयता समेटे लौट आई।
मनीषा कुलश्रेष्ठ
दिसम्बर1,
2005
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