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मैं बाज़ार में ज़िंदा रहने की कोशिश कर रहा हूँ - महेश भट्ट

मधु - महेशजी, आज तक पत्रकार आपसे आपकी फ़िल्मों, इंडस्ट्री में चल रही गॉसिप या फिर किसी विवाद के बारे में पूछते रहे हैं। मेरा सवाल सबसे हटकर है।
महेश भट्ट- बेहतर है कि गॉसिप से हटकर सवाल पूछ रही हैं। गॉसिप वालों के लिये मुझ जैसे आदमी के पास कुछ होता नहीं है। न कोई रोमांस है, न ऐडवेंचर! एक स्ट्रगल है जो लगातार चलता जाता है।

मधु -हिन्दी फ़िल्म जगत ने बांग्ला, तमिल, पंजाबी, अंग्रेजी साहित्य रचनाओं पर तो अच्छी और बड़ी फिल्में दी है, पर ऐसा क्यों है कि किसी भी बड़े फिल्मकार ने हिन्दी साहित्य की किसी भी कृति पर ऐसी कोई फिल्म नहीं बनाई, जैसे कि अंग्रेजी में Gone with the WindWar and PeacePlays of ShakespeareWithering HeightsNovels of DickensJane Austen and others  बनाई हैं।

महेश भट्ट - वह एक दौर था जब साहित्य की कृतियों पर फ़िल्में बनती थीं। अंग्रेजी, रूसी और बांग्ला कृतियों पर बहुत फ़िल्में बनीं। उस समय सिनेमा का इतना कमर्शियलाइज़ेशन नहीं हुआ था। फिल्मों की लागत भी कम होती थी। उस दौर में हिन्दी की कृतियों पर भी फिल्में बनीं। कम बनीं, मगर बनीं ज़रूर। `चित्रलेखा' पर फिल्म बनी और बाद में प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों पर भी फ़िल्में बनीं। लेकिन आज के दौर में एक ज़बरदस्त मॉडर्नाइज़ेशन आ गया है। ज़िंदगी बहुत ज्यादा भौतिकवादी और भोगवादी हो गयी है। कमर्शियल एक्सपोज बहुत बढ़ गया है। लागत बहुत बढ़ गयी है। बाज़ार में ज़िंदा रहने की जद्दो - जहद बढ़ गयी है। कॉम्पिटीशन बहुत है। इधर साहित्य में भी ऐसा कुछ बेहतरीन लिखा नहीं जा रहा है जिसका अपना कोई शाश्वत मूल्य हो - या बोध हो। मैं जानना चाहता हूँ कि इस समय हिन्दी की ऐसी कौन सी कृति है जिस पर फ़िल्म बना कर मैं बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा कर सवूँ गा, एक तेज़ कॉम्पिटीशन में अपने आपको खड़ा रख सकूंगा। मुझे तो ऐसी कोई कृति नज़र नहीं आती।
मधु - आपके साथ जगदम्बाप्रसाद दीक्षित जैसे साहित्यकार मौजूद हैं, आपने भी उनकी या उनके द्वारा सुझाई गई किसी साहित्यिक कृति का इस्तेमाल फ़िल्म बनाने के लिए नहीं किया। ऐसा क्यों?
महेश भट्ट-  इस बात को फिर दोहराना चाहूँगा कि सिनेमा एक बहुत ही कमर्शियल माध्यम है। अच्छी साहित्यिक कृतियाँ सफल कमर्शियल फ़िल्में बन सकेंगी, इसमें शक की बहुत बड़ी गुंजाइश है। हम जोखिम तो लेते हैं, लेकिन संभावनाओं के आधार पर। फिल्म लोक माध्यम है, साहित्य लोक माध्यम नहीं है। अपने मूल रूप में साहित्य काफ़ी कुछ एसोटिस्ट है। इसलिये यह ज़रूरी हो गया है कि हम दोनों को अलग-अलग मान कर देखें। सिनेमा का लोक पक्ष जैसे जैसे हावी होता जा रहा है, लिखित साहित्य से उसकी दूरी बढ़ती जा रही है। साहित्यिक कृतियों पर इधर एक दो फ़िल्मों का रिमेक हुआ है। लेकिन सवाल पूछा जा सकता है कि इनका ओरिजिनल रूप कितना कुछ कायम रखा गया है। दीक्षित एक साहित्यिक लेखक हैं। फ़िल्मों में भी हम उनका हर संभव उपयोग कर रहे हैं। उनकी लिखी स्क्रिप्ट्स पर सबसे ज्यादा फ़िल्में मैंने ही बनायी हैं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।

मधु - मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में अथाह पैसा है, फिर भी इंडस्ट्री ने पटकथा लेखन, डायलाग लेखन इत्यादि को विश्वविद्यालयों में विषम के तौर पर लगवाने की मुहिम क्यों नहीं शुरू की?

महेश भट्ट - हम लोग फ़िल्में बनाते हैं। ज़रूरी होने पर भी बहुत सी मुहिमें शुरू करना हमारा काम नहीं है। अथाह पैसा होने से ही सब कुछ नहीं हो जाता। यह शिक्षा शास्त्रियों का काम है कि फ़िल्म लेखन को वे आम शिक्षा का विषय बना दें। कई जगह ऐसा किया भी गया है। `मास कम्यूनिकेशन' की शिक्षा का काफ़ी विस्तार हो रहा है। जगह-जगह कॉलेजों में इसके विभाग खुल रहे हैं जहाँ फ़िल्म कला की शिक्षा दी जा रही है।

मधु - इसी से जुड़ा एक और सवाल है कि ज्यादातर फ़िल्म कंपनियों के स्टोरी डिपार्टमेंट बेहद कमजोर हैं। वे अभी भी गुलशन नंदाई अन्दाज से बाहर नहीं आ पाये है। ऐसा क्यों?

महेश भट्ट -  फ़िल्म कंपनियों के स्टोरी डिपार्टमेंट कमज़ोर हैं या नहीं, इसका फ़ैसला फ़िल्म उद्योग से बाहर रहने वाले लोग नहीं कर सकते। इसका फ़ैसला तो वह जनता करती है जो फ़िल्में देखती है। फ़िल्म चलती है तो इसका मतलब है कि स्टोरी वालों ने अच्छा काम किया है। बुरा काम करते हैं तो फ़िल्म पिट जाती है। गुलशन नंदा को बुरा क्यों कहती हैं? उन्होंने बहुत सी हिट फ़िल्में दी हैं। किसी ऊँचे टावर में बैठकर आम लोग इस बात का फ़ैसला नहीं कर सकते कि यह अच्छा है, यह घटिया या कमज़ोर है।

मधु - राधाकृष्ण प्रकाशन ने एक नई विधा शुरू की है, जिसे मंज़रनामा कहा जाता है, यानि कि गुलजार साहब की आंधी के स्क्रीनप्ले का प्रकाशन। क्या आप भी सोचते हैं कि सारांश, अर्थ, डैडी जैसी फ़िल्मों का मंज़रनामा होना चाहिये?

महेश भट्ट -
`सारांश', `अर्थ', `डैडी' जैसी फ़िल्मों की पटकथाएँ प्रकाशित हों तो अच्छा है। लेकिन जो पटकथाएँ प्रकाशित की जा रही हैं, वे सेंसर बोर्ड को दी जानेवाली स्क्रिप्ट हैं। फ़िल्म के तैयार हो जाने के बाद उसके एक-एक शॉट को देखकर सेंसर बोर्ड के लिये स्क्रिप्ट तैयार की जाती है। यह स्क्रिप्ट वह नहीं होती है जिसको लेकर फ़िल्म शूट की जाती है। शूटिंग स्क्रिप्ट का अपना एक अलग महत्व होता है।

मधु - मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में अधिकतर काम अंग्रेजी ज़बान में होता है। क्या निर्माता निर्देशक का हिन्दी से परिचय न होना ही तो हिन्दी साहित्य के प्रति अन्याय नहीं करवा रहा?

महेश भट्ट - अंग्रेजी का प्रभाव काफ़ी है, इसमें शक नहीं। बहुत से फ़िल्मकार अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए होते हैं। लेकिन यह दोष फ़िल्म उद्योग का नहीं है। हमारी पूरा शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी माध्यम को बहुत ज्यादा महत्व दिया गया है। सरकारी कामकाज, व्यापार, व्यवसाय, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है। यह समस्या सिऱ्फ फ़िल्मों की नहीं है। इसका दायरा काफ़ी बड़ा है। इसके बारे में बड़े पैमाने पर विचार होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के साथ न्याय अन्याय के सवाल को भी इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए। वैसा यह कहना ज़रूरी है कि हिन्दी साहित्य के साथ क्या हो रहा है, न्याय या अन्याय, यह सोचना फ़िल्मवालों का काम नहीं है।

मधु - क्या आपको लगता है कि हिन्दी साहित्य में वह बात नहीं जो सिनेमा के पर्दे पर तरान्स्लतए होकर तहलका मचा सके या फिर मुंबई सिनेमा में कोई दिक्कत है। प्रेमचन्द की कृतियों गोदान, गबन, शतरंज के खिलाड़ी आदि पर भी बहुत कमजोर फ़िल्में बनीं।

महेश भट्ट -  फ़िल्मकारों के लिये हिन्दी साहित्य या कोई और साहित्य महत्वपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूँ कि सिनेमा एक लोक कला है और साहित्य पढ़े लिखे लोगों की चीज़ है, एसीटिस्ट है। इसलिये हिन्दी साहित्य पर किसी और साहित्य में सिनेमा वाली बात का होना ज़रूरी नहीं है। हिन्दी साहित्य में वो बात नहीं है तो यह स्वाभाविक है। जहाँ तक प्रेमचंद की कृतियों पर बनीं फ़िल्मों का सवाल है, मैं आपकी तरह यह जजमेंट नहीं दे सकता कि वे सब की सब कमज़ोर फ़िल्में हैं।

मधु - क्या आप हिन्दी साहित्य पढ़ते हैं? अगर हाँ, तो आपको किन लेखकों की कृतियाँ प्रभावित करती है?

महेश भट्ट - नहीं। हिन्दी साहित्य की कृतियों को पढ़ने की ओर मैंने कभी ध्यान नहीं दिया।

मधु  - क्या आप भविष्य में किसी महत्वपूर्ण हिन्दी कृति पर फ़िल्म बनाना चाहेंगे?

महेश भट्ट - बनाना चाहूँगा, बशर्ते कि वह कृति लोकप्रिय सिनेमा की ज़रूरतों को पूरा करती हो। फ़िलहाल इसकी संभावना नहीं है।

मधु - आप एक समर्थ कल्पनाशील, वरिष्ठ और संवेदनशील फ़िल्मकार माने जाते हैं। आपने कैरियर की शुरूआत में सारांश, डैडी और अर्थ जैसी बेहतरीन फ़िल्में दीं। लेकिन क्या वजह हुई कि बाद में ये सिलसिला जारी रहने के बजाय चालू और फार्मूला फ़िल्मों की ओर मुड़ गया?

महेश भट्ट -  बदलते हुए वक़्त के साथ बदलना ज़रूरी है। मैंने यह तो कहा है कि ज़बरदस्त कॉम्पीटीशन है, ज़बरदस्त कमर्शियलाइज़ेशन है, लागत में ज़बरदस्त वृद्धि है। मैं चालू और फ़ार्मूला फ़िल्में दे रहा हूँ या नहीं, यह कहना मुश्किल है। लेकिन मैं बाज़ार में ज़िंदा रहने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूँ। एक लड़ाई है जिसका लड़ा जाना ज़रूरी है। मैं वह लड़ाई लड़ रहा हूँ।

मधु - क्या आपकी निगाह में एक फ़िल्म का कोई खास मकसद होता है? मसलन कोई संदेश या कुछ बेहतरीन कहने की कोशिश? या सिऱ्फ मनोरंजन और पैसा कमाना ही फ़िल्मों का मकसद रह गया है?

महेश भट्ट - बहुत ही साफ़ बात है कि फ़िल्मों का सबसे पहला मकसद है मनोरंजन। पैसा कमानेवाली बात इसी से जुड़ी हुई है। करोड़ों की लागत से फ़िल्म बनती है। मनोरंजन के माध्यम से पैसा कमाना फ़िल्म - निर्माण का बुनियादी शर्त है। मकसद या संदेश की बात हमेशा बाद में आती है। संदेश हो तो ठीक है, न हो तो भी ठीक है। जिन लोगों को संदेश देना है, वे भाषणों, प्रवचनों और उपदेशों के कैसेट निकालें। फ़िल्मकारों के लिये `संदेश' हमेशा दूसरे नंबर पर है। मैं अपनी फ़िल्मों में `संदेश' डालने की कोशिश ज़रूर करता हूँ। लेकिन फ़िल्म-निर्माण की बुनियादी शर्त आज है मनोरंजन और धनोपार्जन।


मधु - वे कौन से कारण हैं कि एक तरफ फ़िल्मकार बेहतरीन कृतियों पर फिल्में बनाने से डरते है और दूसरी तरफ अच्छी कृतियों के रचनाकार फ़िल्मी मीडिया से दूर भागते हैं।

महेश भट्ट - सचमुच ऐसा नहीं है कि साहित्यकार फ़िल्म माध्यम से दूर भागते हैं। मैंने तो देखा है कि लगभग हर साहित्यकार फ़िल्मों से जुड़ने के लिये उत्सुक ही नहीं, लालायित है। उनकी समस्या यह है कि फ़िल्म माध्यम में वे जम नहीं पाते। उन्हें समझ में ही नहीं आता कि लोग माध्यम क्या होता है, वाणिज्यिक ज़रूरतें क्या है। इसलिये वे असफल हो कर `रिजेक्ट' हो जाते हैं। हाँ, कुछ साहित्यकार फ़िल्म के लोग स्वरूप को समझते हैं। वे बराबर फ़िल्म माध्यम से जुड़े रहते है।

मधु- क्या फ़िल्म मीडिया की ज़रूरत की जानकारी न होना अच्छे रचनाकारों को फ़िल्मों की ओर आने से रोकता है?
महेश भट्ट - यह सही है। साहित्यकारों को यह समझने में दिक्कत होती है कि फ़िल्म एक अलग माध्यम है। इसीलिये वे इससे जुड़ने में असफल हो जाते हैं।

मधु -क्या आपने सोचा है कि अच्छी कृतियों की तलाश करें ताकि उन पर सार्थक फ़िल्में बन सकें?

महेश भट्ट - नहीं। मैं अच्छी साहित्यिक कृतियों को कोई तलाश नहीं कर रहा हूँ। न ही इसकी कोई ज़रूरत महसूस करता हूँ। अच्छी कहानियों की तलाश ज़रूर रहती है जो कहीं से भी आ सकती हैं, सिऱ्फ साहित्य से नहीं।

मधु - क्या कोई अनूठा विषय है जिस पर आप अपनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म बनाना चाहते हों?

महेश भट्ट - सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म बनाने के अवसर में मैं नहीं हूँ। न ही किसी अनूठे विषय की तलाश कर रहा हूँ।

मधु - आप अपनी कौन-सी फ़िल्म सबसे अच्छी मानते हैं? जिससे दर्शकों के साथ-साथ आपको भी सन्तोष मिला हो।
महेश भट्ट -  मैंने कहा न कि मैं सर्वश्रेष्ठ के चक्कर में बिल्कुल नहीं हूँ। मुझे `अर्थ' या `सारांश' भी उतनी ही `सर्वश्रेष्ठ' लगती है जितनी `ज़ख्म' बाज़ार के लिहाज़ से। `सड़क' मेरी बहुत ही सफल फ़िल्म थी।

प्रस्तुति -मधु
सितम्बर 1, 2006

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