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एक फौजी की डायरी-1

 दर्द –सा हो दर्द कोई...
श्रीनगर से पटना तक की दूरी- बीच में पीरपंजाल रेंज को लांघना शामिल- महज पाँच घंटे में पूरी होती है फ्लाइट द्वारा...लेकिन पटना से सहरसा तक की पाँच घंटे वाली दूरी खत्म होने का नाम नहीं लेती, जबकि नौवां घंटा समापन पर है। ट्रेन की रफ़्तार मोटिवेट कर रही है मुझे नीचे उतर कर इसके संग पैदल चलने को। इस ट्रेन के इकलौते एसी चेयर-कार में रिजर्वेशन नहीं है मेरा| मेरा...लेकिन कुंदन प्रसाद जी जानते हैं मुझे, बाई नेम...कुंदन इसी इकलौते एसी कोच के अप्वाइंटेड टीटी हैं और इस बात को लेकर खासे परेशान हैं, ये मुझे बाद में पता चलता है...मेरा नाम मेरे मुँह से सुनकर वो चौंक जाते हैं{अभी-अभी वादी में हुए आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में मेरे घायल होने को स्थानीय अखबारों ने खूब बढ़ा-चढ़ा कर छापा है} और एक साधुनुमा बाबा को उठाकर मुझे विंडो वाली सीट देते हैं...लेफ्ट विंडो वाली सीट ताकि मेरा प्लास्टर चढ़ा हुआ बाँया हाथ सेफ रहे।

एसी अपने फुल-स्विंग पर है तो टीस उठने लगती है फिर से बाँये हाथ की हड्डी में...पेन-किलर की ख्वाहिश...दरवाजा खोल कर बाहर आता हूँ टायलेट के पास...विल्स वालों ने किंग-साइज में कितना इफैक्टिव पेन-किलर बनाया है ये खुद विल्स वालों को भी नहीं मालूम होगा...कुंदन प्रसाद जी मेरे इर्द-गिर्द मंडरा रहे हैं...मैं भांप जाता हूँ उनकी मंशा और एक किंग-साइज पेन-किलर उन्हें भी आफर करता हूँ...सकुचाया-सा बढ़ता है उनका हाथ और गुफ़्तगु का सिलसिला शुरू होता है...मेरे इस वाले इन्काउंटर की कहानी सुनना चाहते हैं जनाब..."सच आपसे हजम नहीं होगा और झूठ मैं कह नहीं पाऊँगा"- मेरे इस भारी-भरकम डायलाग को सुनकर वो उल्टा और इनकरेज्ड होते हैं कहानी सुनने को...इसी दौरान उनसे पता चलता है कि यहाँ के चंदेक लोकल न्यूज-पेपरों ने हीरो बना दिया है मुझे और खूब नमक-मिर्च लगा कर छापी है इस कहानी को...कहानी के बाद कुछ सुने-सुनाये जुमले फिर से सुनने को मिलते हैं...आपलोग जागते हैं तो हम सोते हैं वगैरह-वगैरह...मुझे वोमिंटिंग-सा फील होता है इन जुमलों को सुनकर...मेरा दर्द बढ़ने लगता और मोबाइल बज उठता है...थैंक गाड...कुंदन जी से राहत मिली...

रात के {या सुबह के?} ढ़ाई बज रहे हैं जब ट्रेन सहरसा स्टेशन पर पहुँचती है...माँ के आँसु तब भी जगे हुये हैं...ये खुदा भी ना, दुनिया की हर माँ को इंसोमेनियाक आँसुओं से क्यों नवाज़ता है?...पापा देखकर हँसने की असफल कोशिश करते हैं...संजीता कनफ्युज्ड-सी है कि चेहरा देखे कि प्लास्टर लगा हाथ...और वो छुटकी तनया मसहरी के अंदर तकियों में घिरी बेसुध सो रही है...मैं हल्ला कर जगाता हूँ...वो मिचमिची आँखों से देर तक घूरती है मुझे...और फिर स्माइल देती है...ये लम्हा कमबख्त यहीं थमक कर रुक क्यों नहीं जाता है...वो फिर से स्माइल देती है...वो मुझे पहचान गयी,याहूsssss!!! she recognised me, ye! ye!! वो मुस्कुराती है...मैं मुस्कुराता हूँ...संक्रमित हो कर जिंदगी मुस्कुराती है...दर्द सारा काफ़ूर हो जाता है...!!!
...और एक त्रिवेणी की पैदाइश होती है :-

"दर्द-सा हो दर्द कोई तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चाँद सुन लेगा अगर तो रात कर उठ्ठेगी शोर

ख्वाहिशें पिघला के मल मरहम-सा मेरी चोट पर"
 

 

-गौतम राजरिशी



 

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